भगवानदास मोरवाल के उपन्यास मुक्ति की कामना में भटकते सफ़ेद पुतलों की त्रासद-कथा ‘मोक्षवन’ का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

वर्षा विगत शरद रितु आई, देखहूँ लक्ष्मण परम सुहाई ।
फूले काँस सकल मही छाई, जनु बरसा कृत प्रकट बुढा़ई ।।

रामचरित मानस की उपरोक्त पंक्तियों की मानें तो बारिश अब बूढ़ी हो चुकी है और ऋतुओं का सन्धिकाल शरद अपने आने की दस्तक दे रहा है। शरद ऋतु अर्थात परिवर्तन का संकेतक। बरसात का मौसम अब धीरे-धीरे विदा ले रहा है। कहा जाता है कि धरती की छाती में जब दूध उतरता है, तो काँस के फूल खिलते हैं और देखते-देखते धानी चूनर दूध के झाग से ढक जाती है। भोर की बढ़ती गर्मी सर्दी के आगमन का आभास देने लगा है। मानसून की विदाई के बावजूद पानी से लबालब भरी और अपनी ही धुन में बहती अजय और कोपाई नदी के किनारों, ख्वाई की गीली दीवारों और इनके आसपास डूब क्षेत्रों की धीरे-धीरे चटकती दलदल को फोड़, दूर तक फैले डाब, कुश या कहिए काँस की फुनगियों पर टँगे सफ़ेद फाहे ऐसे दिखने लगे हैं, मानो प्रकृति ने हरी धरती की माँग सफ़ेद सिन्दूर से भर दी हो। इसीलिए काँस के फूलों को मानसून की विदाई और शरद के आने का सूचक माना जाता है।

यह क्वार यानी आश्विन का महीना है। हल्की गर्म और थोड़ी उमसभरी। इसलिए सुबह बड़ी सुहावनी लगती है और शाम का मिज़ाज भी ख़ुशगवार होने लगा है। परन्तु दोपहर होते-होते यही बेरहम हो जाती है। बिजली घोष को लगने लगा कि कुछ दिनों पहले तक जिन काँस के फूलों का मुलायम ऐश्वर्य लुभाता था, वे अब अपना वैभव खोते जा रहे हैं। उसे याद आता है जब वह बाबा से काँस का फूल लाने की ज़िद करती, तो बाबा उसके शिखर पर पूरी ठसक के साथ, हवा में झोंके खाते धवल काँस के फूलों का गुच्छा लाकर उसे थमा देते ।

बिजली घोष नीले आकाश के नीचे लहलहाते काँस के फूल को देखकर सोचती है कि यह फूल सुबह के उस सपने की तरह है, जो हर साल उगता है और ज़रा-सी आहट से एक झटके के साथ झर जाता है। हवा के गर्म थपेड़ों से काँस के फूल से सफ़ेद रेशे बिखरकर हवा में ऐसे उड़ने लगते हैं, जैसे बर्फ़ीले पहाड़ की चोटियों को छूते हुए बादलों के गुच्छे उड़ रहे हों। इस नज़ारे को देख बिजली घोष अनायास एक उदासी से घिरती चली जाती है l किसी कल्पना में खोए अरुणाभ की ओर कनखियों से देखते हुए वह सोचती है, कि अपने फूलों के बिना यह पौधा कितना उदास होता होगा। अपने दु:खों को अपना प्रारब्ध मान यह फूल कैसे अपने अकेलेपन को काटता होगा ?

इधर अरुणाभ को काँस के धारदार तृणों को देख याद आता है कि माँ अक्सर हर बरस कुश को लाल कपड़े में लपेटकर अपने बक्से में रखती है। क्यों रखती है इसका उसे आजतक पता नहीं चला ।

शरद ऋतु का उत्सव प्रकृति का ही उत्सव है और यह शरदोत्सव की पहले सूचना होती है। एक तरह से विजय पर्व का उद्घोष। काँस के ये फूल जहाँ पितृपक्ष में पितरों के स्मरण के गवाह बनते हैं, तो महालय के बाद देवी दुर्गा के स्वागत के लिए ये मचल-मचल उठते हैं। कई बार लगता है जैसे ये फूल अपने-अपने घरों के बाहर बैठे किसी असहाय वृद्ध की तरह शाम को अपने घर-परिवार के सदस्यों के सकुशल लौट आने के लिए प्रार्थना करते हैं।

लेकिन जैसे-जैसे पितृपक्ष और नवरात्रि का सन्धिकाल महालय निकट आने लगा, उसके साथ दुर्गा पूजा की शुरुआत भी हो जाएगी l इसलिए महालय और पितृपक्ष अमावस्या एक ही दिन मनाई जाती है l इस दिन दुर्गा की वन्दना करके उससे अपने घर आगमन के लिए प्रार्थना की जाती है और पितरों को जल-तिल देकर उन्हें नमन किया जाता है l महालय के दिन ही हर मूर्तिकार माँ दुर्गा की आँखें तैयार करता है l इसके बाद से दुर्गा की मूर्तियों को अन्तिम रूप दिया जाता है l इसीलिए पूरे बंगाल को बड़ी बेसब्री से इस दिन की प्रतीक्षा रहती है ।

इधर महालय के दिन से दुर्गा पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं, तो उधर विश्वभारती कर्मी-सभा द्वारा प्रतिवर्ष इस दिन शान्ति निकेतन में आयोजित होनेवाले आनन्द बाज़ार अर्थात आनन्द मेले की तैयारियाँ शुरू हो गईं l कक्षा पाँच से लेकर शोध तक के सारे विद्यार्थी अपनी-अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए तैयारियों में जुट गए। इन तैयारियों को देखकर लगता जैसे आनन्द मेला विश्वभारती कर्मी-सभा का नहीं, पूरे शान्ति निकेतन का है l कोई अपनी सुरुचि का खाना बनाने की तैयारी में जुटा हुआ है, तो कोई अपने पसन्द के बाउल की पंक्तियों के पोस्टर बना रहा है। कहने का आशय यह है कि जिसमें जिसकी रूचि है आनन्द बाज़ार में बेचने के लिए उसी की तैयारी में लगा हुआ है ।

बिजली घोष और अरुणाभ रास्ते के दोनों तरफ़ खड़े सप्तपर्णी के बीच से लाल मिट्टी पर धीरे-धीरे क़दम-बोसी करते हुए छाँववाला रास्ता छोड़कर खुले मैदान में आ गए l यहाँ कुछ देर टहलने के बाद दोनों पाठ-भवन की ओर मुड़ने के बाद बकुल के नीचे आकर बैठ गए l दरअस्ल यह दोनों की पसंदीदा जगहों में से एक है ।

“बिजली, मेले के लिए तुम क्या तैयार कर रही हो ?” शुरुआत अरुणाभ ने की ।

“ओरु, मेरे पास सिवाय बाउल के क्या है l” फिर कुछ पल रुककर उसने अरुणाभ से पूछा,”तुम क्या कर रहे हो ?”

“मेरा मन तो कुछ पेंटिंग्स बनाने का है लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि क्या बनाऊँ ?” अरुणाभ ने अपनी दुविधा से बिजली को अवगत कराया ।

“तुम ख्वाई और काँस के फूलों के कुछ लैंडस्केप बनाओ न !”

“कमाल है, इस पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया l यह तुमने सही ध्यान दिलाया l आज से ही छोटी-छोटी पेंटिंग्स बनाना शुरू कर देता हूँ ।”

पाठ भवन का यह बकुल और इसकी यह छाया इन दोनों को इसीलिए भी पसन्द है कि यहाँ आकर जैसे उनकी हर मुश्किल आसान हो जाती है l इस तरह आनन्द बाज़ार में अपनी-अपनी भूमिका तय कर दोनों अपने-अपने हॉस्टल लौट गए ।

महालय के दिन प्रात: चार बजे से सिंह सदन के मैदान में लगनेवाले आनन्द मेले में अपनी-अपनी दुकान लगाने के लिए सभी विभागों के छात्र-छात्राएँ पहुँचने शुरू हो गए l अलग-अलग विभागों के लिए निश्चित किए गए मण्डप में सब अपने-अपने स्टाल सजाने में जुट गए।पंक्तिबद्ध पाठ भवन, कला भवन, शिक्षा भवन, विद्या भवन, विनय भवन, संगीत भवन, चीन भवन, हिन्दी भवन, श्रीनिकेतन, हिन्द-तिब्बती शिक्षालय सहित दूसरे विभागों के छात्रों की यही कोशिश है, कि वह अपने स्टाल को कैसे अधिक-से-अधिक आकर्षक बनाए।

बिजली घोष ने संगीत विभाग के लिए तय की गई जगह में एकदम किनारे पर एक छोटा-सा आखरा बनाया l बिलकुल फूलमाला के आखरा की तरह । कहीं उसमें शरद ऋतु के मादक गन्ध बिखेरते सात पत्तोंवाले गुच्छो के बीच से झाँकती फूलवाली छातिम की ताज़ा टहनियाँ टाँग दी, तो कहीं काँस की सफ़ेद फूलों की टहनियाँ लगा दीं l आखरा की यह अनुकृति इतनी स्वाभाविक दिखाई दे रही है कि देखनेवाला एक पल के लिए भ्रमित हो जाए l उसके लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल हो जाए कि इस समय वह सिंह सदन मैदान पर लगे आनन्द बाज़ार में किसी अनुकृति के सामने खड़ा है, अथवा कोपाई नदी के किसी वास्तविक आखरा के समक्ष खड़ा है।

जबकि संगीत विभाग के ठीक सामनेवाले मण्डप के एकदम शुरू में, अरुणाभ के बने ख्वाई और काँस के फूलों के लैंडस्केप्स बरबस ही अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं l जिस तरह कभी नन्दलाल बसु ने अंकन के लिए ख्वाई और शान्ति निकेतन की विभिन्न रंगों की काली मिट्टी से काला रंग और लाल मिट्टी से लाल रंग बनाया था, उसी तरह अरुणाभ ने इन मिट्टियों से प्राकृतिक रंग बनाकर अपनी पेंटिंग्स तैयार की हैं । इस तरह आमने-सामने एक तरफ़ बिजली घोष के आखरा और दूसरी ओर अरुणाभ की पेंटिंग्स ने ऐसा स्वाभाविक दृश्य बना दिया, मानो यहाँ आनेवाला दर्शक आनन्द बाज़ार मेले में नहीं, कोपाई नदी के आखरा आश्रम में पहुँच गया है l जो दर्शक छातिम और खिले हुए काँस से घिरे आखरा में बैठी बिजली घोष के स्टाल पर आता, वह सामने अरुणाभ की पेंटिंग्स को देखे बिना नहीं जाता । और जो अरुणाभ की पेंटिंग्स देखने आता, वह अपने आपमें डूबी बिजली घोष के गाए लालन शाह फ़क़ीर अथवा हसन राजा का बाउल सुने बिना नहीं लौटता l बिजली की तर्जनी का पोर जब एकतारे के तार को छूता और उससे अध्यात्म की तरंगें निकलतीं, तब सुननेवाले को लगता ये तरंगें एकतारे के तार से नहीं, उसके अपने ही जिस्म की शिराओं से फूट रही हैं l मीरा-सी एकतारे की धुन पर पूरी तन्मयता और बाउल गाती बिजली घोष की एक-एक भंगिमा और अंग-मुद्रा को देख, एक पल के लिए देखनेवाला अपने आपमें खोकर रह जाए l ऐसा लगता मानो जलंगी नदी के किनारे नबद्वीप के ओसारे में निमाई पंडित अर्थात गौरांग प्रभु का कीर्तन चल रहा है ।

सिंह सदन के मैदान पर लगा पूरा मेला कुशल-अकुशल हाथों के बने तरह-तरह के बंगाली व्यंजनों की ख़ुशबू से महक उठा l यह महक तब और मादक हो जाती जब एकतारे और डुग्गी की तान के साथ, बिजली घोष के गाए बाउल शरद की कुनमुनाती धूप में टहलते कानों में गूँजने लगते ।

कहते हैं कि शान्ति निकेतन का मौसम बड़ा बेमुरव्वत, अनपेक्षित और अप्रत्याशित है l उसके बारे में किसी तरह का पूर्वानुमान लगाना बड़ा मुश्किल है l इस बार महालय के दिन भी ऐसा ही हुआ l शाम के धुंधलके में जब पूरा आनन्द मेला बिजली की रोशनी में जगमगा उठा, और अपने पूरे उठा न पर था कि विदा हो चुके मानसून के कुछ आवारा बादलों का विशाल झुंड भटकते हुए, अचानक जैसे मेले का आनन्द लेने सिंह सदन के ऊपर मँडराने लगा l एकाएक आसमान में छाए ठिठके घने बादलों को देख, पूरे आनन्द मेले को एहसास हो गया कि इनकी नीयत ठीक नहीं है ।

ऐसा ही हुआ और देखते-देखते बदल बरसने लगे। ऐसा लगा जैसे बारिश के साथ बादल ख़ुद ही ग्राहक बन मेले में उतर आए हैं। चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री मच गई। सब बारिश से अपने-अपने सामान को बचाने में जुट गए l इसी बीच बल्बों की रोशनी में आसमान से बरसती पानी की लड़ियों से फूटती किरणों के बीच, छात्र-छात्राओं को न जाने क्या सूझा कि जिसके जो बर्तन हाथ लगा, उसे बजाते हुए जैसे वर्षा-नृत्य करने लगे l हालाँकि एक तरफ़ अचानक आई बारिश से जहाँ जोश और उल्लास पर जैसे पानी फिर गया, वहीं दूसरी ओर तेज़ बारिश के बीच उनका उल्लास भी ठहाठा मारने लगा। अपनी-अपनी दुकानों को बारिश में भीगता देख कुछ पलों के लिए हताशा से सबके चेहरे पुत गए l यहाँ तक कुछ बच्चे यह सोचकर रोने लगे कि उनकी मेहनत बेकार चली गई है, परन्तु वहीं नाचते-गाते छात्रों का जोश देखते बन रहा है l इस तरह बारिश पर यह उत्साह भारी पड़ने लगा और बारिश में भी मेला चलता रहा। जब-जब बारिश तेज़ होती तो सब थाली बजाकर नाचने लग जाते l जैसे ही धीमी होती, ग्राहकों को लुभाते हुए छाता लेकर घूमते ख़रीददारों को भीगते-भागते छात्र अपने-अपने स्टाल पर बुलाने लगते l आनन्द बाज़ार में जगह-जगह छोटे-छोटे बन गए पानी के तालों में जब-जब आसपास जलते बल्बों का अक्स उभरता, तब-तब उन्हें देखकर लगता जैसे बादलों के पीछे छिपे असंख्य चन्द्रमा की प्रतिछायाएँ उनमें तिरमिरा रही हैं ।

मेला समाप्त होने के बाद अरुणाभ ने अपनी सारी कमैया विश्वभारती कर्मी-सभा को सौंप दी ताकि मेले से प्राप्त पूरे लाभांश को इकट्ठा कर कर्मी-सभा द्वारा ज़रूरतमंदों में बाँट दिया जाए l मेला ख़त्म होने के बाद अरुणाभ और बिजली घोष अपने-अपने हॉस्टल आ गए l हॉस्टल आने के बाद बिजली देर तक यही सोचती रही कि शान्ति निकेतन के ऐसे ही आकर्षण भीतर तक प्रभावित करते हैं l वह सोचती है कि यदि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर इस दृश्य को देखते, तो आकाश से झरती पानी की लड़ियों में छिपी प्रेम की आसक्ति को छुए बिना नहीं रहते। काश, आज इस मेले में उनके साथ गुरुदेव भी होते ।