शंभुनाथ के किताब हिन्दी नवजागरण : भारतेंदु और उनके बाद का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


हिंदी मीडिया ने 19वीं सदी के तीसरे दशक से लगातार संघर्ष करते हुए हिंदी भाषा के आधुनिक विकास में एक बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन पहले हम इस पर थोड़ी रोशनी डालेंगे कि 19वीं सदी के आरंभ से ही इसकी कैसी अवहेलना की गई।

गिलक्राइस्ट (1751-1841 ) ने काफी पहले हिंदी को “गंवारू और हिंदुओं की भाषा' कहा था। वे एक सर्जन थे और नील की खेती कराते थे। वे काफी समय तक बनारस और गाजीपुर में थे, जहाँ उन्होंने औपनिवेशिक शासकों की सुविधा के लिए ‘हिंदुस्तानी’ से संबंधित सामग्री इकट्ठी की थी। उन्होंने बाद में नील की खेती छोड़ दी। वे फोर्ट विलियम कालेज (1800) में हिंदुस्तानी विभाग के अध्यक्ष बन गए। उनका नजदीकी संबंध ‘फारसी मिश्रित हिंदुस्तानी” का इस्तेमाल करनेवाले दरबारियों से था, जिनमें मुसलमान और हिंदू दोनों थे। उस समय शिक्षित और रईस लोगों की भाषा फारसी थी। यह 19वीं सदी के मध्य तक सत्ता की भाषा थी। अंग्रेजों का संपर्क इन्हीं क्षमतावान लोगों से था। उन्हें जनता से संवाद नहीं करना था।

कलकत्ता के निकट स्थापित श्रीरामपुर मिशन एक समय काफी प्रसिद्ध था। वहाँ के धर्म प्रचारक जान चेंबरलेन ने 1813 में हिंदी को हिंदुओं की भाषा कहा था, “मैं दरबार के इतना निकट हूँ कि मुझे कृतज्ञतापूर्वक मुसलमान भाषा की ओर ध्यान देना चाहिए, किंतु मेरा मन अनिच्छा से ही उस पर केंद्रित होता है। मैं हिंदुओं को प्यार करता हूँ और स्वेच्छा से उन पर ही अपना समय लगाऊंगा। मैं हिंदवी में तीन चीजें व्याकरण, शब्दकोश और बाइबिल देखने का आकांक्षी हूँ।” (ईस्ट इंडिया कंपनी की हिंदी नीति, शिवमंगल राय)। हिंदी को हिंदू धर्म से जोड़ने की परंपरा पुरानी है। गौर करने की चीज यह है कि 19वीं सदी की शुरुआत में ही 'हिदुस्तानी' और “उर्दू” की जगह “हिंदवी” (हिंदी) में बाइबिल लाने की बात हो रही है। इसका अर्थ है, आम लोगों में हिंदी ज्यादा ग्रहणशील थी। भाषा का संबंध मजहब से नहीं है, फिर भी ऊपर उर्दू को मुसलमान भाषा कहा गया है। दरअसल हिंदी और उर्दू के बीच सांप्रदायिक विभाजन उपनिवेशवाद का खेल है। अंग्रेज हिंदू और मुसलमान के बँटे रहने में अपना भविष्य सुरक्षित समझते थे। उनके लिए आम हिंदू या आम मुसलमान दोनों ही 'ओरियंटल फेनोमेना' थे। ये सभ्य मनुष्यजाति के अंग न होकर “नेटिव्स” थे! भारतीय भाषाएं 'वर्नाकुलर' अर्थात गुलामों की भाषाएं कही जाती थीं।

आगे चलकर एक फ्रेंच विद्वान गार्सं-द-तासी (1794-1878) ने जो कहा, वह औपनिवेशिक भेदनीति का नंगा उदाहरण है, “हिंदी में हिंदू धर्म का आभास है – वह हिंदू धर्म जिसके मूल में बुतपरस्ती और उसके आनुषांगिक विधान हैं। ...मैं सैयद अहमद खां जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान की तारीफ में और ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता। उर्दू भाषा और मुसलमानों से मेरा जो लगाव है, वह कोई छिपी बात नहीं है। …इस वक्त हिंदी की हैसियत एक बोली की-सी रह गई है, जो हर गांव में अलग-अलग ढंग से बोली जाती है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल )। जिस समय हिंदी आबादी में सामाजिक गतिशीलता बढ़ रही थी और राष्ट्रीय चेतना पैदा हो रही थी, नागरी लिपि में खड़ी बोली हिंदी के कई दैनिक पत्र निकलने लगे थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र जिस दौर में हिंदी में लगातार नाटक और टिप्पणियां लिख रहे थे, उस दौर में गार्सां-द-तासी के उपर्युक्त कथन को सतही और उत्तेजनात्मक ही कहा जा सकता है।

सांस्कृतिक तोड़फोड़ करनेवाले उपर्युक्त साम्राज्यवादी विद्वानों की तुलना में इंग्लैंड के फ्रेडरिक पिन्काट की दृष्टि अधिक वैज्ञानिक थी। वे लंदन में रहते थे। दिसंबर 1887 के 'इंडियन मैगजीन' में उन्होंने अपना मत व्यक्त किया था, “हिंदी के अंतर्गत कितनी ही बोलियां हैं, पर इन बोलियों का समग्र समुदाय एक ही भाषा है। यही भाषा है, जिससे (भारत के) फारसी विजेताओं ने बहुत फारसी शब्द मिलाकर एक दोगली भाषा उत्पन्न कर दी, जो हिंदुस्तानी या उर्दू कहलाती है। सरकारी दफ्तरों और कचहरियों को छोड़कर इस भाषा का कहीं अस्तित्व नहीं है। उत्तर भारत की भाषा हिंदी है। यह वहाँ की “लिंगुआ फ्रांका” है।”

हिंदुस्तान में यह विलक्षण दृश्य देखने में आता है कि राजा और प्रजा राजकीय कार्य एक ऐसी भाषा में संपादित करते हैं, जो दोनों के लिए विदेशी है। भाषा-संबंधी यथार्थ प्रश्न जो 30 वर्षों से उत्तर भारत में उठ रहा है, लिपि विषयक है। जब तक फारसी अक्षरों का एकाधिपत्य रहेगा और लोग देशी नागरी का सरकारी कागज-पत्र में व्यवहार करने से रोके जाएंगे, तब तक उत्तरी भारत की भाषा पर बुरा प्रभाव पड़ता जाएगा । “उस जमाने की साम्राज्यवादी रीति-नीति और हिंदी की उपेक्षा के संदर्भ में फ्रेडरिक पिन्काट का अनुमान गलत नहीं था। उल्लेखनीय है कि फ्रेडरिक पिन्काट और भारतेंदु हरिश्चंद्र के बीच अच्छा संबंध था ।”