भीमराव आंबेडकर के किताब धर्मान्तरण: आंबेडकर की धम्म यात्रा का एक अंश, संकलन एवं भूमिका – रतन लाल, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


भारत में जाति व्यवस्था सभी धर्मों में है। आंबेडकर का स्पष्ट विचार था कि मुसलमान बनते ही हम एक-दो दिन में नवाब बननेवाले नहीं हैं, सिक्ख धर्म स्वीकार करने पर भी हम तुरन्त सरदार बननेवाले नहीं हैं और ईसाई बनने पर हम पोप नहीं बन जाएँगे। अर्थात हम किसी भी धर्म को अपनाएँ, हमें अपने स्वाभिमान और उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्ष करना ही होगा। आंबेडकर दृढ़निश्चयी थे, “अब यदि हिन्दू अपने परमेश्वर को भी मेरे साथ खड़ा कर दें तो भी मैं हिन्दू धर्म में नहीं रहूँगा। स्पृश्य हिन्दू, अस्पृश्यों के लिए कुछ करें या न करें परन्तु यह तो निश्चित है कि अब मैं हिन्दू धर्म का त्याग करूँगा।”

आंबेडकर के धर्मान्तरण की घोषणा पर त्वरित प्रतिक्रिया गांधी की ओर से आई। एसोसिएटेड प्रेस को दिये गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “यदि उन्होंने यह भाषण दिया है और सभा में संकल्पबद्ध हिन्दुत्व से सब नाता तोड़ने व कोई ऐसा और धर्म जो उनको समता की गारंटी दे सके का प्रस्ताव पारित किया है मैं इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ...धर्म कोई घर या अंगवस्त्र नहीं है, जो जब जी चाहे बदल ले। यह तो हमारे शरीर तथा आत्मा का एक अभिन्न अंग है। धर्म किसी भी जन को उसके सृजनकर्ता से जोड़ता है, जबकि शरीर नश्वर है और इसका नाश होता है। परन्तु धर्म का अस्तित्व तो मृत्यु के बाद भी है।” आंबेडकर ने पलटवार किया “हमने अभी निर्णय नहीं लिया है कि किस धर्म को अपनाएँगे, क्या योजना व साधन का हम प्रयोग करेंगे, परन्तु गहन विचार तथा विचारों के आदान-प्रदान के पश्चात् हम इस दृढ़ निर्णय पर पहुँचे हैं कि हिन्दू धर्म हमारे हित में नहीं है... धर्म आवश्यक है, गांधी जी की इस बात से तो मैं सहमत हूँ। परन्तु यह बात कि मनुष्य को अपने पूर्वजों के धर्म से ही जुड़े रहना चाहिए, चाहे वह धर्म उसकी सोच में अति अरुचिकर हो और जो उसके नैतिक व्यवहार के मापदंड पर खरा न उतरता हो, चाहे जीवन में प्रगति तथा कुशलक्षेम के लिए प्रेरित न करता हो, से मैं सहमत नहीं हूँ।”

आंबेडकर के धर्मान्तरण की घोषणा पर गांधी ने हरिजन में 26 अक्टूबर, 1935 को ऑन इट्स लास्ट लेग-शीर्षक से एक लेख लिखा। एक तरफ़ उन्होंने सुधारकों के प्रयासों की सीमाओं पर प्रश्न उठाए, हिन्दू धर्म एक भयंकर अग्नि परीक्षा से गुज़र रहा है। इसका विनाश व्यक्तिगत धर्मान्तरण से नहीं, सामाजिक धर्मान्तरणों से भी नहीं, बल्कि तथाकथित सवर्ण हिन्दुओं के द्वारा हरिजनों को न्याय से अधर्मी रूप से वंचित रखने के कारण होगा। अतः धर्मान्तरण की प्रत्येक धमकी सवर्णों के लिए एक चेतावनी है कि अगर वे समय रहते नहीं जागते तो बहुत देर हो जाएगी। दूसरी तरफ़ पढ़े-लिखे अस्पृश्यों पर धर्मान्तरण के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखा, “मैं प्रबुद्ध हरिजनों से उनकी अपनी ख़ातिर यह आग्रह करूँगा कि धर्मान्तरण की धमकी के नीचे वे भौतिक लाभ नहीं ढूँढ़ें। और सुधारकों को किसी भी धमकी के आगे किसी हालत में नहीं झुकना चाहिए, उनको सवर्ण हिन्दुओं के हाथों हरिजनों के लिए न्याय दिलाने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए।” गांधी के अनुसार धर्म कोई लेन-देन का मामला नहीं था। लेकिन हरिजन सेवक संघ की भूमिका की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा, “छुआछूत मिटाने के लिए सबसे बड़ी संस्था हरिजन सेवक संघ है। यह यथासम्भव हरिजनों को नौकरी देता है। हरिजन जिन नौकरियों के उपयुक्त हैं और जिनके लिए वे अपने को प्रस्तुत करते हैं, आमतौर पर ऐसे नौकरियों की कोई कमी नहीं है (ज़ोर हमारा)।” हालाँकि गांधी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि हरिजन किन नौकरियों के लिए उपयुक्त हैं और कौन सी नौकरी है जिसकी कमी नहीं है। दिलचस्प है ठीक उसी समय गांधी के पुत्र हरिलाल गांधी ने 29.05.36 को इस्लाम धर्म स्वीकार किया, लेकिन अपने पुत्र के सम्बन्ध में उन्होंने वैसी प्रतिक्रिया नहीं दी।

26 अक्टूबर, 1935 को शंकराचार्य (डॉ. कुर्ताकोटि) की अध्यक्षता में नासिक प्रोग्रेसिव हिन्दुओं द्वारा चुने गए शिष्टमंडल और आंबेडकर के बीच एक बैठक हुई। उस समय भारत सरकार का अधिनियम 1935 आ चुका था। कुर्ताकोटि की अध्यक्षता में हुए एक सम्मेलन में पारित संकल्प आंबेडकर के समक्ष प्रस्तुत किये गए, जिसमें उन प्रयासों का उल्लेख था जिससे अस्पृश्यता मिटाने का प्रयास किया जा सके। लेकिन आंबेडकर का तर्क था कि ‘हिन्दू सामाजिक प्रणाली’ के मूल में धर्म है, जैसा कि ‘मनुस्मृति’ में बताया गया है। ऐसा होने की वजह से मुझे नहीं लगता कि हिन्दू समाज से असमानता को मिटा पाना सम्भव होगा, जब तक कि ‘स्मृति’ धर्म के मौजूदा आधार को हटाकर, उसकी जगह कोई बेहतर नींव न डाली जाए। परन्तु मुझे उम्मीद नहीं है कि हिन्दू समाज किसी ऐसे बेहतर आधार पर अपने धर्म का पुनर्निर्माण कर पाएगा। आंबेडकर ने धर्म-परिवर्तन का अपना लक्ष्य स्पष्ट किया कि उनका इरादा सामूहिक और अखिल भारतीय स्तर पर धर्मान्तरण का है, चाहे उसमें जितना समय लगे। आंबेडकर ने स्पष्ट किया कि मैं किसी नये सम्प्रदाय की शुरुआत करने की ज़िम्मेदारी नहीं लूँगा और न ही मैं अपने समुदाय के लोगों को इसमें शामिल होने की सलाह दूँगा...बौद्ध धर्म अपनाने के रास्ते में कुछ हमें कठिनाइयाँ हैं। आंबेडकर का मानना था कि हरिजन समुदाय को किसी सशक्त समुदाय में पूरी तरह से समा जाना चाहिए। उन्होंने आर्य समाज न अपनाने का निर्णय लिया और सिक्ख धर्म अपनाने के प्रश्न पर विचार-विमर्श किया।

आंबेडकर के धर्मान्तरण की घोषणा के बाद दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं, पहला अस्पृश्यों पर अत्याचार और उत्पीड़न की घटना में इज़ाफ़ा और दूसरा धर्मान्तरण समर्थकों की संख्या में बढ़ोतरी। आंबेडकर पुनः अपने प्रमुख श्रोताओं (अस्पृश्यों) की ओर मुड़े। दिसम्बर 1936 से जुलाई 1939 के बीच आंबेडकर ने बंबई, पुणे, अहमदनगर, अमरावती, कल्याण आदि जगहों पर कई सभाओं को सम्बोधित किया। लेकिन इस बार एकदम नये तेवर में, अपने सम्बोधनों में एक तरफ़ उन्होंने हिन्दू धर्म पर ताबड़तोड़ हमले किये। दूसरी तरफ़ अपने अनुयायियों को चेताया, सतर्क किया और धमकाया भी। आंबेडकर ने धर्मान्तरण पर पुनः अपनी स्थिति स्पष्ट की, “अब स्पृश्य हिन्दू मेरे सामने अगर भगवान को भी लाकर खड़ा कर दें तब भी मैं हिन्दू धर्म छोड़कर जानेवाला हूँ...धर्मान्तरण करने से हमारे लिए स्वर्ग के द्वार खुलेंगे, या हम पर अमृत की धारा बरसेगी, ऐसा मेरा बिलकुल भी कहना नहीं है। हमारे सिक्ख, ईसाई या मुसलमान होने पर भी अपना भविष्य बनाने के लिए हमें लड़ना तो पड़ेगा ही...लड़ाई करने के लिए हमें अपनी संघशक्ति को बढ़ाना होगा। निजी फ़ायदे के लिए हमें चोरी-चोरी धर्म-परिवर्तन नहीं करना है। जहाँ जाएँगे वहाँ सिर पर कफ़न बाँधकर लड़कर अपने लिए जगह बनानी होगी। इसी निश्चय के साथ हमें धर्मान्तरण करना है। कल हम लोग जब मुसलमान या ईसाई बनेंगे तब वे लोग हमें महार ईसाई कहकर अलग चर्च में जाने के लिए कहेंगे, तब हम चर्च में आग लगा देंगे। मैं कोई सीधा-सादा इंसान नहीं हूँ। जहाँ भी जाऊँगा काँटे की तरह चुभता रहूँगा। अस्पृश्यों के बीच जातिभेद ख़त्म करने की पुनः अपील की कि जातिभेद नष्ट करना स्वराज पाने की कोशिश से भी पवित्र काम है।” आंबेडकर ने अपने अनुयायियों को चेताया भी “धर्म बदलना हँसी-ठिठोली नहीं है। वह कोई तमाशा नहीं है। ढोलक बजाकर केवल गा-बजाकर करने जैसा वह कोई कार्यक्रम नहीं है। धर्मान्तरण बहुत ही गम्भीर विषय है।” आंबेडकर अपने श्रोताओं को धर्मान्तरण के लिए मानसिक रूप से तैयार करने की कोशिश कर रहे थे, ख़ास तौर पर युवा वर्ग को। उनकी नज़र में अस्पृश्यों की असहाय स्थिति का एक ही निवारण था—धर्मान्तरण। लेकिन इसके लिए चारित्रिक शुद्धता और शिक्षा महत्त्वपूर्ण शर्त थी। आंबेडकर के लिए धर्मान्तरण के वही मायने थे, जो सवर्ण हिन्दुओं के लिए स्वराज के मायने थे।

30 मई - 1 जून, 1936 को येवला में आयोजित अखिल बंबई इलाक़ा महाड़ परिषद में धर्मान्तरण के सवाल पर आंबेडकर ने जो भाषण दिया उसे ऐतिहासिक माना जाता है। यह उनका सबसे लम्बा भाषण है, जिसे मुक्ति कौन पाथे के नाम से जाना जाता है। अपने अध्यक्षीय भाषण में आंबेडकर ने धर्मान्तरण से जुड़े सभी पहलुओं और प्रश्नों का विस्तार से विश्लेषण किया और अब तक जितने व्याख्यान हुए थे उसका निचोड़ प्रस्तुत किया। आंबेडकर ने 1924 में बार्शी में दिये गए वक्तव्य की पुनरावृति की, “अस्पृश्यता रोज़मर्रा की बात है, नैमित्तिक या कभी-कभार की बात नहीं। साफ़ तौर पर कहना हो तो स्पृश्य और अस्पृश्य के बीच कलह रोज़मर्रा की है, और वह हमेशा, त्रिकालबाधित रहनेवाली है। विष का अमृत नहीं बनाया जा सकता। हिन्दू धर्म में रहते हुए, जातिभेद को नष्ट करेंगे, कहना लगभग विष को अमृत बनाने की बात कहने जैसा ही है। धर्म-परिवर्तन एक तरह से नामांतरण ही है। मुलसमान या ईसाई या बौद्ध कहलाना, सिक्ख कहलाना धर्मान्तरण तो है ही, नामांतरण भी है। वह सच्चा नामांतरण है। देश को जितना स्वराज का महत्त्व है, उतना ही अस्पृश्यों के लिए धर्म-परिवर्तन का महत्त्व है। धर्मान्तरण और स्वराज इन दोनों का अन्तिम उद्देश्य एक ही है।”

अपने व्याख्यान को समाप्त करते हुए आंबेडकर ने कहा कि हिन्दू धर्म मेरी बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। हिन्दू धर्म मेरे स्वाभिमान को रास नहीं आता। लेकिन आप लोगों को आध्यात्मिक लाभ के साथ ऐहिक लाभ के लिए भी धर्म-परिवर्तन करना ज़रूरी है...इंसानियत पानी हो तो धर्म-परिवर्तन करें। संगठन बनाना हो तो धर्मान्तरण करें। समता पानी हो तो धर्म-परिवर्तन करें। आज़ादी पानी हो तो धर्म-परिवर्तन करें। गृहस्थी में सुख लाना है तो धर्म-परिवर्तन करें। आंबेडकर ने सोच-समझकर सामूहिक धर्मान्तरण की अपील की। बुद्ध के स्वयं प्रकाशित बनो के उपदेश से अपने लम्बे व्याख्यान को ख़त्म किया। स्पष्ट था कि अछूतों को किसी ‘बाहरी’ स्रोत से शक्ति प्राप्त करनी थी, और वे ऐसा किसी अन्य प्रभावशाली धार्मिक समूह में विलय करके कर सकते थे। आंबेडकर ने अछूतों के लिए उपलब्ध विकल्पों का उल्लेख नहीं किया और किसी नये विश्वास की स्थापना या सम्प्रदायों में शामिल होने को स्पष्ट रूप से ख़ारिज कर दिया। उन्होंने संयुक्त प्रान्त में आदि हिन्दू आन्दोलन के नेता ‘स्वामी’ अछूतानंद के साथ एक सार्वजनिक बैठक को भी सम्बोधित किया था। लेकिन उन्होंने आदि धर्म आन्दोलन जैसे विकल्पों पर बिलकुल भी विचार नहीं किया। उनकी रुचि केवल बड़े अनुयायियों वाले स्थापित धर्मों में थी। जैसा कि अपेक्षित था, आंबेडकर के भाषण ने राष्ट्रीय मीडिया में हलचल मचा दी। ख़ैरमोडे द्वारा एकत्र की गई पत्र-पत्रिकाओं और अख़बारों की रिपोर्टिंग से पता चलता है कि कई अन्य पत्रिकाओं ने भी आंबेडकर के भाषण पर ध्यान दिया और पक्ष-विपक्ष में लेख और सम्पादकीय छापे।