प्रहलाद अग्रवाल के किताब राजकपूर : आधी हकीकत आधा फसाना का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


‘जोकर’ 1970 के दिसम्बर में अखिल भारतीय स्तर पर एक साथ प्रदर्शित हुई। प्रत्यक्ष रूप से तो इसके निर्माण में लगभग छह वर्षों का समय और एक करोड़ रुपया लगा था, किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से राजकपूर की पूरी जिन्दगी इस सपने के साथ जुड़ी हुई थी। ‘जोकर’ अपने समय की सबसे महँगी फिल्म थी और निश्चय ही राजकपूर इसके माध्यम से लूटने के लिए नहीं, अपने कलाकार की मुक्ति की उद्दाम आकांक्षा से उद्वेलित होकर निकले थे। ‘जोकर’ का तमाशा लगातार लोगों ने सराहा था, उसे सिर-आँखों पर बिठाया था, लेकिन उसकी अन्दरूनी पीड़ा से तादात्म्य स्थापित करने से उन्होंने कतई इनकार कर दिया। ‘जोकर’ में वे उस मसखरे को नहीं ढूँढ़ पाए जिसकी तलाश में वे लम्बी-चौड़ी उम्मीदें लगाए सिनेमाघरों तक खिंचे चले आए थे। प्रेम जो राजकपूर की हर फिल्म की अदम्य शक्ति है, ‘जोकर’ में सामान्यीकृत होकर इतने विशाल धरातल पर फैल गई है कि वह किसी बँधे-बँधाए चौखटे में कैद नहीं रह पाती, अपितु सारी दुनिया उसकी भागीदार बन जाती है। प्रेम का इतना विस्तृत और मानवीय विकास होता है कि उसका फलक बढ़कर ‘आई विल मेक क्राइस्ट लाफ’ तक पहुँच जाता है। जोकर एक ऐसे दिल का मालिक है जिसमें सारी दुनिया का गम समा सकता है। ‘जोकर’ के बचपन की भूमिका राजकपूर के दूसरे बेटे ऋषि कपूर ने निभाई थी जिसे राजकपूर ने ’73 में ‘बॉबी’ में नायक के रूप में पेश किया और ‘बॉबी’ की अद्वितीय सफलता ने उसे रातों-रात स्टार बना दिया। बचपन में ‘जोकर’ क्राइस्ट की उदास मूर्ति देखकर अपनी टीचर से पूछता हैदृ‘मैंने क्राइस्ट को जहाँ देखा है, जब भी देखा है, उदास देखा है, कभी हँसते हुए नहीं देखा। ऐसा क्यूँ?’ टीचर उसकी बाल-सुलभ जिज्ञासा शान्त करने के लिए कहती हैदृ‘क्योंकि उसके बच्चे, सारी दुनिया के आदमी दुखी हैं। उनके दुख में वह भी दुखी हो जाता है।’ और जोकर का जवाब हैदृ‘मैं कभी उदास नहीं होऊँगा। आल विल मेक क्राइस्ट लाफ।’ वह उसे भी हँसाना चाहता है, जो सारी दुनिया के दुखों से दुखी है। यानी वह सारी दुनिया के दुखों में मुसकुराहटों की चिंगारी भर देना चाहता है। जिन्दगी में वह शिद्दत, वह ताकत पैदा करने के लिए सब-कुछ कुर्बान कर देने को तैयार है जो मुश्किलों, तकलीफों और शिकस्तों में भी खुशियाँ तलाश कर सके। लोगों ने ‘जोकर’ को राजकपूर की निजी जिन्दगी से जोड़कर देखा। उन हीरोइनों के साथ जोड़कर देखा जो एक के बाद एक उसे अलविदा कहकर चली गईं। ‘जोकर’ वस्तुतः राजकपूर के फिल्म-चरित्रा की दार्शनिक व्याख्या है। एक कलाकार का जीवन-दर्शनदृजिसका हँसना-रोना सब दूसरों को खुश करने के लिए है। जिसकी जिन्दगी सबके लिए तमाशा है। एक ऐसा तमाशा जो कभी खत्म नहीं होता। इसीलिए तो जोकर की माँ की मृत्यु पर जब जोकर की आँखें डबडबा आई हैं, वह आँखों से और चेहरे की एक-एक लकीर से बोल रहा हैदृमैं कैसे हसाऊँ दुनिया-भर को इस समय? आखिर मैं तो एक आदमी हूँ। पर नहीं। सर्कस का मालिक जोकर से कहता हैदृ‘राजू, मत भूलो, तुम एक जोकर हो और जोकर कभी नहीं रोता। जाओ, तुम्हारा टाइम आ गया है। शो मस्ट गो ऑन!’

हाँ, ये समूची जिन्दगी एक ‘शो’ ही तो है, जिन्दगी जो कभी रुकती नहीं। जिन्दगी जो सबसे हसीन इनायत है। मृत्यु भय है और जिन्दगी एक सुसंगत क्रमबद्धता। आदमी मर के भी नहीं मरता। मृत्यु सिर्फ परिवर्तन है जो जिन्दगी की निरन्तरता के लिए अनिवार्य है। जब जिन्दगी नहीं रुकती तो जोकर का तमाशा कैसे रुक सकता है? वह तो दुनिया बनानेवाले की संजीदा तसवीर को भी मुसकुराहटों से भर देने का ख्वाब सँजोए है। क्या वह अपनी माँ की मौत के दर्द से भीगे हुए आँसुओं से भी तमाशाइयों को कहकहे नहीं बाँट सकेगा? और जोकर मौजूद है तमाशाइयों के सामने अपने आँसुओं के साथ। उसकी आँखों से आँसुओं की पिचकारियाँ छूट रही हैं और दर्शक समझ रहे हैं, यह भी जोकर का कोई नया तमाशा है। वे खिलखिला रहे हैं, तालियाँ बजा रहे हैं। उसके सीने से एक कबूतर निकलकर ऊपर उड़ गया हैदृवह उसे खोई-खोई आँखों से ताकता रह गया है। उसके होंठों पर उड़ती हुई हँसी हैदृ

सर्कस...हाँ बाबू, ये सर्कस है

और ये सर्कस शो है तीन घंटे का

पहला घंटा बचपन है, दूसरा जवानी है

तीसरा बुढ़ापा है,

और उसके बाद

माँ नहीं बाप नहीं बेटा नहीं बेटी नहीं

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं रहता है!

रहता है जो कुछ वो ऽऽऽ ...

खाली-खाली कुरसियाँ हैं, खाली-खाली तम्बू है, खाली-खाली डेरा है,

जीना चिड़िया का बसेरा है

न तेरा है, न मेरा!

सारे कलात्मक कौशल के बावजूद ऐसे कठिन चरित्रा की संजीदा व्याख्या कोई आश्चर्य नहीं, जो व्यावसायिक दृष्टिकोण से दो कौड़ी की साबित हुई। और राजकपूर के लिए यह सिर्फ एक करोड़ का घाटा नहीं था, जिन्दगी-भर की तमाम संचित कलात्मक अनुभूतियों को डुबा देने का भी सवाल पैदा करता था। ‘जोकर’ के प्रदर्शन के पूर्व राजकपूर खुद इसकी व्यावसायिक असफलता की सम्भावना से बहुत अधिक नावाकिफ नहीं थे। ‘जोकर’ के लम्बे निर्माण-काल के दौरान इस फिल्म के लिए अपनी विशिष्ट प्रचार-पद्धति के द्वारा उन्होंने जनता में बेहद उत्सुकता भर दी थी। ‘जोकर’ के आकर्षण को बढ़ाने के लिए सोवियत सर्कस के अनेक कलाकारों को भारत बुलाया गया। वे महीनों भारत में रहकर ‘जोकर’ की शूटिंग में व्यस्त रहे। रूस की बैलरीना क्षण राबिनकिना, जो हर दूसरे भाग की नायिका थीं, लम्बे समय तक भारत में रहकर ‘जोकर’ के छायांकन में व्यस्त रहीं। दर्शक इस फिल्म से कुछ अनोखा, कुछ अत्यधिक आकर्षक कृतित्व की उम्मीद लगाए हुए थे। अब दर्शकों की वह पीढ़ी थी जिसने राजकपूर के ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘संगम’ के लुभा देनेवाले व्यक्तित्व को देखा था। राजकपूर इसीलिए ‘जोकर’ के तीसरे भाग में अधिक-से-अधिक रोचकता पैदा कर देना चाहते थे। भव्यतम सैट, कव्वाली, मुजरा, हीर-राँझा का ड्रामा, उत्तेजक मांसल सौन्दर्य, मधुर गीतदृवह सब-कुछ जो दर्शकों को आकर्षित कर सकता था। अपनी निर्माण-गुणवत्ता में अनन्यतम होने पर भी यह तीसरा भाग पूरी फिल्म की संरचना से दूर जा पड़ा है और वह सम्पूर्ण फिल्म की शक्ति बनने की जगह कमजोरी बन गया है। राजकपूर के भीतर कहीं-न-कहीं यह भय जरूर था कि ‘जोकर’ साधारण दर्शक के लिए अबूझ हो सकती है। इसीलिए वह तीसरे भाग में अपनी अद्भुत प्रदर्शन-प्रियता के द्वारा उन्हें भरमाना चाहते हैं।

‘जोकर’ का तमाशा शुरू होता है उसके आखिरी शो की घोषणा के साथ, जिसमें उसने तीन महिलाओं को विशेष रूप से आमन्त्रिात किया है। मैरीदृउसकी स्कूल-टीचर, मैरीनादृउसकी बेहद अजीज दोस्त और सोवियत रूस की बेहतरीन ट्रेपीज़ आर्टिस्ट! और मीना या उसकी अजीज मीनू मास्टरदृजो उसके सहारे सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते हुए रोशनियों की दुनिया में पहुँच गई। ये तीनांे जिन्होंने जोकर की जिन्दगी में खुशबुएँ बिखेरीं थीं। जोकर ने उन्हें विशेष रूप से आमन्त्रिात किया है इस आखिरी शो के लिए। और दर्शकों से खचाखच भरे सर्कस के तम्बू में जोकर का आखिरी शो देखने के लिए आई हैंदृउसकी टीचर मैरी, पति डेविड के साथ, रूस से खास इसलिए आई मैरीना, और मीना अपने किस्मत के मालिक कुमार के साथ। सर्कस का मालिक महिन्दर जोकर के अन्तिम शो की घोषणा करता हैदृजिसमें यह भी सम्मिलित है कि उसने दुनिया से अपनी जिन्दगी में जो कुछ पाया हैदृसुख-दुख, आशा-निराशा, मुहब्बत, नफरत, आँसू, मुसकानेंदृउन सबको कहकहों और खुशियों में तब्दील कर सारी दुनिया को लुटा दिया है। और इसके बाद सर्कस के रिंग में एक ऑपरेशन-थिएटर दिखलाई पड़ता है जहाँ बड़े-बड़े गैस-सिलेंडर, एक विशाल खून की बोतल और ऑपरेशन थिएटर पर दैत्याकार छुरियाँ और कैंचियाँ रखी हुई हैं। इसके साथ ही मौजूद है वहाँ डॉक्टरों और नर्सों की भीड़। ये सब मौजूद हैं वहाँ एक ऐसे आदमी का ऑपरेशन करने के लिए जिसका दिल जरूरत से ज्यादा बड़ा हो गया है। छोटे-छोटे स्वार्थों में डूबी हुई दुनिया में बड़े दिल से खतरनाक और क्या चीज हो सकती है?

अन्धकार में डूबे सर्कस के तम्बू में ऊपर से धीरे-धीरे जगमगाता हुआ दिल के आकार का एक विशाल गुब्बारा नीचे उतर रहा है और उस गुब्बारे के बीच से निकलता हैदृजोकर। सारे डॉक्टर आश्चर्यचकित हैं, वह दिल है या आदमी? डॉक्टर उसे बतलाते हैं कि अब सारी दुनिया लगातार छोटी होती जा रही है और उसका बड़ा दिल होता चला जा रहा है। दिल बड़ा और दुनिया छोटीदृयह तो ऐसी स्थिति है जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए। और सारे डॉक्टर जोकर को पकड़कर ऑपरेशन-टेबल पर लिटा देते हैं। यहाँ शुरू होता है एक कौतुक भरा तमाशा। बड़ी-बड़ी छुरियाँ, कैंचियाँ और हथौड़ों के जरिए जोकर का ऑपरेशन किया जा रहा है। बड़े डॉक्टर ने ऑपरेशन करके जोकर का दिल निकाल लिया। एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर के हाथों में जाते हुए दिल और बड़ा होता चला जा रहा है। वे कहते हैंदृइस दिल में पूरा सर्कस, सारा शहर...नहीं-नहीं सारी दुनिया ही समा सकती है! और राजू...!

और राजू टेबल से उतरकर अपनी दोनों बाँहें फैलाए सारी दुनिया से पूछ रहा हैदृकिसी ने देखा है मेरा दिल, कोई जानता है किसने चुराया है मेरा दिल? मैरी, मैरीना और मीनादृतीनों से वह बाँहें फैलाए आँखों की जुबान में पूछ रहा हैदृकुछ कह रहा हैदृटटोलकर देखो अपने भीतर कहीं मेरा दिल, धड़कता हुआ पाओगे। दुनिया को मुहब्बत लुटानेवाले जोकर को भी मुहब्बत का एक कतरा चाहिए। और उनकी आँखों में सिर्फ एक संवेदना हैदृबेबस संवेदनादृकातर संवेदना। वह संवेदना जिसका अर्थ है, यह सच है कि तुम्हारा दिल मेरे पास कैद है, उससे बेइन्तिहा मुहब्बत भी करती हूँ। लेकिन उस मुहब्बत के कोई मायने नहीं हैं। और राजू...बगैर मायने के ये जिन्दगी चलती नहीं। यदि चलताऊ जुबान में कहें तो मतलब के बगैर जिन्दगी जी पाना लगभग नामुमकिन है। इसलिए मैरी, मैरीना, मीनादृसब उसकी जिन्दगी से दूर हो गईं। वे बेवफा नहीं थींदृकतई नहीं। उन्होंने राजू से तहेदिल से बेपनाह मुहब्बत की। लेकिन क्या एक जोकर को अपना बना पाना कोई आसान काम है? जिसके दिल में सारी दुनिया के आँसू और मुसकुराहटें समा सकें, उसको सिर्फ अपने एक दिल में कौन कैद कर सकता है? अब राजू लौट आया है उन्हीं डॉक्टरों के पास। अब उसकी आँखों में ऑपरेशन के पहले जैसी चमक नहीं है। खोई-खोई-सी आँखें हैं उसकी। डॉक्टर उसे उसका दिल वापस लौटाते हुए हिदायत देते हैं कि वह उसे सम्भालकर रखे। यदि वह इसी तरह बढ़ता रहा तो एक दिन उसमें सारी दुनिया समा जाएगी। जोकर खुश हैदृबहुत खुश। क्या ऐसा हो सकेगा कि उसके दिल में सारी दुनिया का दर्द समा जाए? इससे बढ़कर उसे क्या चाहिए? कोई भी जिन्दगी में इससे बढ़कर और क्या पा सकता है? उसकी जिन्दगी निरर्थक नहीं हुई। उसे किसी बात का अफसोस नहीं। राजू अपनी खुशियों में डूबा हुआ अपने दिल को बार-बार उछाल रहा है, और अचानक उसका दिल सर्कस के रिंग में गिरकर सैकड़ों टुकड़ों में बिखर गया है। और वह खुश हो रहा है उन टुकड़ों में झाँकती हुई अपनी जिन्दगी को देखकर। और यहाँ से शुरू होती है जोकर की कहानी। जिस कहानी के साथ जुड़ी हुई हैंदृमैरी, मैरीना और मीना।

मैरीदृजिसने उसकी किशोर-अवस्था को भावुक संवेदना दी। मैरीनादृजिसने उसके जवान होते दिल को धड़कना सिखाया। और मीना, उसकी प्यारी मीनू मास्टरदृजिसने मुहब्बत और दुनियादारी की चतुराई सिखलाई। वो सबके हाथों का खिलौना बना। लेकिन जोकर कभी हार नहीं मानता। उसका दिल कभी नहीं टूटता। लेकिन उसकी आँखों में कभी आँसू नहीं आते। वह हर पुराना सपना टूटते ही नया सपना बुनना शुरू कर देता है। राजकपूर अपने रचनात्मक जीवन में भी इसी तरह लगातार सपने बुनते दिखलाई पड़ते हैैं। सपने भले ही टूटने के लिए बने हों, लेकिन सपनों से बढ़कर उसके लिए कुछ भी नहीं। कोई सपना उसकी जिन्दगी का आखिरी सपना नहीं है। वह हर क्षण उस मधुरतम जीवन के सत्य की तलाश में है, जो अभी तक अज्ञात है, लेकिन सपनीला आदमी इसी माधुर्य की निरन्तर तलाश में जीता है। महाकवि शैली की तरहदृ‘हर्ड मेलोडीज़ आर स्वीट, बट दोज़ अन्हर्डदृआर स्वीटर।’ वह सब कुछ लुटाकर भी फिर होश में आ जाता है। बार-बार सब-कुछ लुटाने पर भी उसके भीतर की आग बुझती नहीं है; कभी नहीं बुझ सकती, क्योंकि यही आग तो उसकी जिन्दगी है। इसीलिए जोकर का तमाशा कभी खत्म नहीं होता। फिल्म के अन्तिम दृश्य में दोनों हाथ फैलाकर दर्शकों का शुक्रिया अदा करते हुए जोकर यह निवेदन करता है कि मेरा तमाशा अभी खत्म नहीं हुआ। यह सिर्फ इंटरवल है जो पंद्रह मिनट का भी हो सकता है और पंद्रह महीनों का भी। लेकिन जोकर का तमाशा अभी खत्म नहीं हुआ। ...आप लोग जाइएगा नहीं, जोकर का तमाशा अभी खत्म नहीं हुआ। रोते और मुसकुराते जोकर का तमाशा। अपनी तमाम इच्छाओं के बावजूद राजकपूर का यह तमाशा अधूरा ही रह गया। आज भी यह तमाशा अधूरा भले ही हो, किन्तु खत्म नहीं हुआ। और सच तो यह है कि जोकर का तमाशा कभी खत्म होता ही नहीं। राजकपूर अपने जीवन में कोई ऐसा बिन्दु कभी नहीं पा सकते थे जिससे वह सन्तुष्ट हो जाते। वह हमेशा ही अपनी रचना-यात्रा में अधूरापन खोजते रहे। मनुष्य के अस्तित्व की सार्थकता भी इसी अधूरेपन से निरन्तर संघर्ष करने में है। पूर्णता का आभास स्थायित्व की जड़ता में बदल जाता है। ज्ञान-ज्योति का यही विरोधाभास है। जब तक अज्ञान घेरे रहे, मनुष्य बहुत सुखी होता है, किन्तु ज्ञान-ज्योति की पहली किरण का प्रकाश पाकर उसे आभास होता है कि वह कितने अन्धकार में है। ज्ञान अनन्त है। इसीलिए अज्ञानी ही स्वयं को ज्ञान-ज्योति से पूर्ण मान सकते हैं।

राजकपूर ने कई बार बदले हुए परिवेश में फिल्म बना सकने की असमर्थता जाहिर की थी। समय के साथ फिल्म-निर्माण की पूरी प्रक्रिया ही बदल गई। वह आत्मीय वातावरण ही नहीं रहा जिसमें राजकपूर जैसे फिल्मकार रमते थे। लेकिन समय का हर परिवर्तन अनचाहे भी स्वीकार करना मनुष्य की मजबूरी है। उसमें नए सौन्दर्य की सृष्टि करना उसकी सार्थकता है। राजकपूर अपने जीवन मंे कभी रुक नहीं सकते थे। खुद को फिल्म बनाने से रोक नहीं सकते थे। वह फिल्म बनाकर ही सन्तुष्ट हो सकते थे। सम्पूर्ण सिने-कला ही उनके जीवन का पर्याय थी। वह उसमें कितनी सार्थकता जोड़ सके, यह अलग बात है। फिर कोई भी काम अपने समय में सिर्फ सार्थक या निरर्थक हो सकता है, छोटा या बड़ा नहीं। छोटा या बड़ा तो वह समय के पंख लगाकर बनता है।

एक निर्देशक और एक कलाकार के रूप में राजकपूर ने अपनी जिन्दगी का सब-कुछ ‘जोकर’ को दिया। एक निर्माता के रूप में उन्होंने अंगरेजी की ‘लेफ्ट नो स्टोन अन्टर्न्ड’ कहावत चरितार्थ की। ‘मेरा नाम जोकर’ राजकपूर के सपनों का एक ऐसा तमाशा था जिसे वह एक साथ कलात्मक और व्यावसायिक ऊँचाइयों तक पहुँचाना चाहते थे। यूँ तो राजकपूर का पूरा कैरियर ही इसी तालमेल के जद्दोजहद की कहानी है। उनकी ख्वाहिश थी कि जोकर की दास्तान सारी दुनिया तक पहुँचे। इसीलिए ‘जोकर’ में एक सौम्य संजीदा कलाकार और शोमैनदृदोनों उपस्थित हैं। पर ‘जोकर’ में कहीं भी शोमैन कलाकार पर हावी नहीं हो सका। शोमैन कलाकार का सिर्फ साथ देता है। राजकपूर आम आदमी के कलाकार हैं। वह जो बौद्धिकता की तंग और खोखली गलियों में नहीं भटकता। जो दिल की जुबान समझता है। खूबसूरती पर भोलेपन से रीझता है। मनुष्य का जीवन भावनाओं से काटा नहीं जा सकता। भावना की तीव्रता ही उसे सच्चा इनसान बनाती है। इसीलिए हम देखते हैं कि जीवन चाहे कितने ही बौद्धिक तर्कों से घिरा हुआ हो, लेकिन जिन्दगी की मुश्किलों का कोई मुकम्मिल हल तर्क द्वारा कभी सम्भव नहीं है। यह जरूरी है कि आदमी भावनाओं के प्रवाह में अपने अस्तित्व को न डुबा दे। पर भावना का इतना आश्रय अवश्य ले कि आत्मघाती प्रवंचना से दूर रह सके; दूसरे के दर्द को महसूस कर सके। जो ‘पराई चूपड़ी’ देखकर अपना मन नहीं डुलाता। ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, क्रोध आदि विकारों से लिप्त होते हुए भी जो सुन्दर की स्थापना के संघर्ष में सदैव अपना तुच्छ अहंकार-विहीन सहयोग अर्पित करता है। राजकपूर उस तक पहुँचना चाहते हैं जो सभ्यता के जंगल के अँधेरे में बड़ा हुआ है। इसीलिए उनकी फिल्में कड़वे यथार्थ को सपनीले आवरण के साथ पेश करती हैं। आदमी जिन्दा हैदृतमाम मुश्किलों के बीच तो सिर्फ इसलिए कि आँखें जिन्दगी का कोई सुनहला सपना सँजोए हुए हैं।