भगवानदास मोरवाल के उपन्यास तुग़लक़, सादात, लोदी और मुग़ल राजवंशों से लोहा लेनेवाले मेवातियों की गाथा ख़ानज़ादा का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

बाबर ने सारी बग़ावतों को कुचलने के बाद देहली और आगरा ही नहीं, बल्कि दूसरे परगनों व इलाक़ों में अपने हाकिम और शिक़दार (गवर्नर) तैनात कर दिए।

ईद-उल-फ़ित्र के कुछ दिन बाद बादलगढ़ क़िले में गुम्बददार बारादरी महल के बीच में बने ऐवान (दालान) में बाबर ने बहुत बड़े दरबार का आयोजन किया। बड़े-बड़े ख़ूबसूरत पत्थरों के स्तंभोंवाला यह वही महल है, जहाँ कभी सुल्तान सिकंदर लोदी और इब्राहिम लोदी का दरबार लगता था। जिसमें इब्राहीम की माँ सुल्ताना बैदा पूरे राजसी ठाठ के साथ रहती थी l मगर नियति का खेल देखिए कि उसी बैदा को आज इस महल में क़ैदी बन कर रहना पड़ रहा है।

पानीपत की जंग जीतने के बाद बाबर का यह पहला दरबार है। इस दरबार में उन अमीर-उमरा और बेगों को सम्मानित किया जाना है, जिन्होंने इस मुहिम में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। दीवाने-ख़ास में सबसे पहले हुमायूँ को बुलाया गया। बाबर ने हुमायूँ को वह कोहनूर हीरा वापिस कर दिया, जो हुमायूँ को आगरा में सुल्तान इब्राहिम लोदी की हार के बाद ग्वालियर के महाराजा विक्रमादित्य ने दिया था।

हुमायूँ को हीरा करते समय बाबर की पुरानी स्मृति ताज़ा हो गई।

उस दिन वह यमुना किनारे शाम के झुटपुटे में चार चप्पुओं वाली ख़ूबसूरत चंदवा तनियों से बनी शाही नाव से उतरा ही था, कि कोर्निश करते हुए पहरेदार ने ख़बर दी कि मिर्ज़ा हुमायूँ शहंशाह हज़रत बादशाह के दीदार करना चाहते हैं। बाबर की तरफ़ से इजाज़त मिलने पर हल्के नारंगी रंग का जामा, हरे रंग का यार पैरहन, और सर पर पुरपेंच अमामा पहने, बाईं तरफ़ सुनहले पटके में सुनहरे काम वाले सुर्ख़ लाल रंग की म्यान में ख़ंजर टाँगे अट्ठारह साल का बाँका हुमायूँ अपने पिता के सामने आकर खड़ा हो गया।

किशोरावस्था को लाँघ चुके और यौवन की दहलीज़ पर क़दम रख चुके हुमायूँ ने, पहले मोतियों के काम से तैयार किए गए ज़रबफ़्त चोगे के चारों तरफ़, ज़र-दोज़ी के काम से तैयार चमचमाता कमरबंद थोड़ा ढीला किया। इसके बाद उसने मुस्कराते हुए अपने पिता की आँखों में उतर कर झाँका। फिर चोगे की जेब में हाथ डालते हुए बोला,”अब्बा हुज़ूर, ज़रा अपनी आँखें तो बंद कीजिए !”

बाबर ने मुस्कराते हुए अपनी आँखें मूँद ली।

“अब ज़रा अपना हाथ आगे बढ़ाइए !”

बाबर ने हाथ आगे कर जैसे ही आँखे खोली और अपनी हथेली पर सीप के काम की छोटी-सी संदूकची को देखा, तो उसे देख कर बाबर ने हैरानी से पूछा,”इसमें क्या है ?”

“आप ही खोल कर देखिए अब्बा हुज़ूर।”

बाबर ने संदूकची को खोल कर देखा, तो लगभग तीन सौ बीस रत्ती अर्थात साढ़े चार तोले के अखरोट जितने आकार के हीरे से फूटती आँखें चौंधियाने वाली किरणों को देखकर बाबर को हैरानी हुई।

“यह क्या है बेटे ?” हीरे को बड़ी बारीकी से निहारते हुए बाबर ने हुमायूँ से पूछा।

“यह कोहनूर हीरा है अब्बा हुज़ूर।”

“को...कोहनूर हीरा ?” बाबर को जैसे अपने बेटे के कहे पर यक़ीन नहीं हुआ।

“जी अब्बा हुज़ूर l” हुमायूँ ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।

“यह नायाब हीरा आपको कहाँ से मिला ?” बाबर ने विस्मय के साथ हुमायूँ से पूछा।

“मुझे यह ग्वालियर के महाराजा विक्रमादित्य के ख़ानदान के लोगों ने तोहफ़े में दिया है।”

“महाराजा विक्रमादित्य के लोगों ने?”

“जी अब्बा हुज़ूर। यह वही ख़ानदान है जो पिछले सौ सालों से ग्वालियर पर हुकूमत करता आया है। इन्होंने कभी भी सुल्तान इब्राहीम लोदी की हुकूमत नहीं मानी। अरसे तक ये देहली के सुल्तान से जंग करते रहे। आख़िरकार इन्हें मजबूरन इब्राहिम लोदी को ग्वालियर देना पड़ा।” फिर कुछ पल रुक कर बोला,”इस हीरे की क़ीमत कितनी है, जानते हैं अब्बा हुज़ूर ?”

“कितनी है ?” बाबर ने बेटे की तरफ़ देखा।

“इसकी क़ीमत इतनी है कि इससे पूरी दुनिया के ढाई दिन के खाने का ख़र्चा चल सकता है।”

कोहनूर हीरे की क़ीमत सुन बाबर को अपने कानों पर जैसे यक़ीन नहीं हुआ l बमुश्किल पुरानी यादों की खोह से वह बाहर निकला, तो पाया हीरा अपनी उसी धज के साथ जैसे मंद-मंद मुस्करा रहा है। बाबर ने बादलगढ़ क़िले के दीवान ख़ाने में बेटे हुमायूँ को इस हीरे के अलावा हिसार फ़िरोज़ा, सम्भ्ल की जागीर के साथ सत्तर लाख दाम, एक तलवार की पेटी और सुनहरी ज़ीन सहित एक तीपूचाक़ घोड़ा भी तोहफ़े में दिया। इसी तरह दूसरे बेगों और सिपाहियों को ख़िलअतें भेंट की गईं l इतना ही नहीं आगरा से बहुत दूर काबुल में रहने वाले अपने किसी भी संबंधी को बाबर नहीं भूला l सबको दिल खोल कर दान और तोहफ़े देने का ऐलान कर दिया।

अभी बाबर ने दान देने का ऐलान ख़त्म किया ही था कि जैसे उसे कुछ याद आ गया।

“ख़ुदावंद हिंदू बेग, ये जनाब मुहम्मद अली असस साहब कहाँ हैं ?” अपने सामने बैठे बेगों, मुसाहिबों, बहादुरों, वज़ीरों, और ओहदेदारों पर नज़र मारते हुए बाबर ने हिंदू बेग इंदर से पूछा।

“हुज़ूरे आली, अभी तो नज़र आ रहे थे l” हिंदू बेग इंदर ने आसपास नज़र दौड़ाते हुए जवाब दिया।

“जाइए, उसे ढूँढ़ कर लाइए !”

बाबर के इस हुक्म पर मुहम्मद अली असस की ढूँढ़ मच गई,और कुछ ही देर में मुहम्मद अली असस को बाबर के सामने पेश कर दिया गया।

मुहम्मद अली असस हाथ बाँधे बाबर के सामने चुपचाप खड़ा रहा।

“जनाब असस साहब, हम चाहते हैं कि आपको भी पानीपत की फ़तह की ख़ुशी में ईनाम बख़्शी जाए। आख़िर आप हमारे मौलवी जो ठहरे।” बाबर ने मुस्कराते हुए कहा।

इतना सुन मुहम्मद अली असस का चेहरा मारे ख़ुशी के चमक उठा।

“ख़ुदावंद हिंदू बेग, हम चाहते हैं कि मौलवी असस को बतौर ईनाम एक अशर्फ़ी दी जाए।”

बाबर के इस ऐलान को सुन मौलवी मुहम्मद अली असस का जो चेहरा, कुछ क्षण पहले मारे ख़ुशी के चमक रहा था, एकाएक बुझता चला गया। वही नहीं बल्कि ऐवान में मौजूद सारे बेग, मुसाहिब, बहादुर, ओहदेदार सोचने लगे कि सिर्फ़ एक अशर्फ़ी देने के लिए बादशाह को मौलवी मुहम्मद अली असस को भरे दरबार में बुलाने की क्या ज़रूरत थी l इस मामूली अशर्फ़ी को तो वह किसी के भी हाथ भिजवा सकता था।

इससे पहले कि पूरा दरबार अपने बादशाह के इस फ़ैसले का कुछ और अर्थ निकालता, बाबर की आवाज़ गूँजी,“ हिंदू बेग, मौलवी असस की आँखों पर पट्टी बँधवा दी जाए !”

बाबर के इस आदेश पर दरबार में सन्नाटा छा गया l ऐसा सन्नाटा कि दरबार में मौजूद बेगों, मुसाहिबों, बहादुरों और ओहदेदारों की साँसें आपस में एक-दूसरे को सुनाई देने लगी l हिंदू बेग इंदर ने एक क्षण के लिए बाबर की तरफ़ देखा और फिर अकबकाते हुए बोला,”पादशाह सलामत, आँ...आँखों पर पट्टी ?”

“जी, आँखों पर पट्टी !”

इसके बाद हिंदू बेग इंदर से कुछ भी कहते नहीं बना। उसने चुपचाप मुहम्मद अली असस की आँखों पर पट्टी बँधवा दी।

इसके बाद बाबर ने शाही ख़ज़ानची को पेश होने का हुक्म दिया।

शाही ख़ज़ानची के पेश होने पर बाबर उसकी तरफ़ मुख़ातिब होते हुए बोला,” ख़ज़ानची जाइए, और उस अशर्फ़ी को लेकर आइए जो मौलवी असस को बतौर ईनाम दी जानी है।”

“जी हुज़ूरे आली।”

शाही ख़ज़ानची तुरंत रेशमी कपड़े से ढके थाल को लेकर फिर से दरबार में हाज़िर हो गया।

“ख़ुदावंद हिंदू बेग, अब आप इस पादशाही अशर्फ़ी को मौलवी मुहम्मद अली असस के गले में लटका दीजिए !”

हिंदू बेग इंदर ने इस बार अपने बादशाह से कोई सवाल नहीं किया। चुपचाप उसने बादशाह के हुक्म की तामील करते हुए थाल से जैसे ही रेशमी कपड़ा उठाया, तो कपड़े वाला हिंदू बेग इंदर का हाथ हवा में जहाँ था, वहीं ठहर गया। थाल में उसने जो देखा, एक पल के लिए उसे अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं हुआ। अचकचाते हुए उसने पलट कर बादशाह की तरफ़ देखा, तो बाबर ने इशारे से उसे कुछ भी कहने से रोक दिया। इधर मौलवी मुहम्मद अली असस का जो चेहरा मारे ख़ुशी के चमक रहा था, उसी चेहरे पर जैसे हवाइयाँ उड़ने लगीं। हिंदू बेग इंदर ने मुस्कराते हुए थाल से मोटे रेशमी पट्टे में बँधी पादशाही अशर्फ़ी उठाई और वह जैसे ही मौलवी असस के गले में उसे डालने लगा, पूरे दरबार की इस दृश्य को देखकर आँखें फटी-की-फटी रह गईं। उनकी समझ में यह रहस्य अब आया कि क्यों बाबर ने एक अशर्फ़ी देने का ऐलान किया, और क्यों मुहम्मद अली असस की आँखों पर पट्टी बँधवाने का हुक्म दिया।

अपने बादशाह के हुक्म पर हिंदू बेग इंदर ने मुहम्मद अली असस के गले में जैसे ही सोने की अशर्फ़ी लटकाई, मौलवी असस की गर्दन आगे की तरफ़ झुकती चली गई। लड़खड़ा कर वह गिरते-गिरते बचा l उसका पूरा बदन एक अनजाने डर के चलते पसीना-पसीना हो गया। सोने की अशर्फ़ी के बदले गले में पड़ी इस वज़नदार चीज़ की कल्पना करना उसके लिए मुश्किल हो गया, कि उसके गले में पड़ी भला यह क्या चीज़ हो सकती है ?

इससे पहले कि वह तरह-तरह की कल्पनाएँ कर पाता, बाबर का हुक्म मुहम्मद अली असस के कानों में पड़ा।

“ख़ुदावंद हिंदू बेग इंदर, अब जनाब मौलवी असस साहब की आँखों से बँधी पट्टी हटवा दी जाए !”

बाबर के हुक्म पर मौलवी मुहम्मद अली असस की आँखों पर बँधी पट्टी खोल दी गई l पट्टी खुलते ही मौलवी असस भयातुर आँखों से गले में पड़ी वज़नी चीज़ के बजाय दरबार को देखने लगा। मिचमिचाई आँखों से उसने देखा कि पूरे दरबार की मुस्कराती आँखें उसी पर टिकी हुई हैं l इसके बाद उसने निरीहिता और याचना भरी मुद्रा के साथ बाबर की तरफ़ देखा, तो उसे यह देख कर और भी हैरानी हुई कि बादशाह भी औरों की तरह उसे देख कर मंद-मंद मुस्करा रहा है। मौलवी असस से अब ख़ुद को सँभालना मुश्किल हो गया।

निराश-हताश मौलवी असस ने अपने गले की तरफ़ देखा, तो देखते ही उसे मानो अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं हुआ। घुटनों के बल वह फ़र्शी सलामी मुद्रा में ज़मीन पर बैठता चला गया। मारे ख़ुशी के मुँह से निकलने वाले शब्द जैसे हलक़ में ही अटक कर रह गए।

“फ़तहयाब पादशाह सलामत, आपकी बुलंदी का परचम दुनिया में यूँ ही लहराता रहे।” भीगी आँखों से मौलवी मुहम्मद अली असस ने अपने बादशाह की तारीफ़ में आसमान की तरफ़ अपने दोनों हाथों को उठाते हुए कहा।

“ख़ुदावंद हिंदू बेग, जनाब मुहम्मद अली असस के गले में लटकी सोने की इस अशर्फ़ी का वज़न आपके ख़याल से कितना होगा ?” बाबर ने पूरे दरबार को सुनाते हुए मुस्करा कर पूछा।

“मैं कैसे बताऊँ हुज़ूरे आली।” हिंदू बेग इंदर मुस्करा कर रह गया।

“ख़ज़ानची, आप ही बताइए कि इस अशर्फ़ी का कितना वज़न है ?” बाबर ने इस बार हिंदू बेग इंदर के बग़ल में खड़े शाही ख़ज़ानची से कहा।

“पादशाह सलामत, इस पादशाही अशर्फ़ी का वज़न तीन सेर है।”

“तीन सेर !” अशर्फ़ी का वज़न सुन पूरे दरबार का मुँह खुला-का-खुला रह गया।

बाबर ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। बस, मंद-मंद मुस्कराता रहा।

इधर बारादरी महल में हुमायूँ, अमीर-उमरा और कुछ बेगों के साथ मौलवी मुहम्मद अली असस को सम्मानित किया जा रहा था, उधर बाहर ऐसी मूसलाधार बारिश हो रही थी कि लग रहा था आगरा अब डूबा, तब डूबा। दरबार की रस्म पूरी होने के साथ, दरबार की तरफ़ से आयोजित होने वाले शाम के जश्न का ऐलान कर दिया गया। इस ऐलान के बाद इतनी बड़ी जंग जीतने की ख़ुशी में और थकान मिटाने के लिए अपने उमरा, बेगों, मुसाहिबों, बहादुरों, वज़ीरों, ओहदेदारों, एलचियों, सफ़ीरों, अमीरों, कोरचीबाशियों और ख़ास लड़ाकों को दावत होने जा रही है; शराबनोशी, नाच-रंगवाले व महफ़िलों के शौकीनों की बाँछें खिलती चली गईं।

शाम होते-होते उमस और देह झुलसाती गर्मी ने देखते-ही-देखते मौसम को बेहद नरम और ठंडा बना दिया।