शिवमूर्ति के उपन्यास अगम बहै दरियाव का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


कहते हैं, हरा रंग आँखों की ज्योति बढ़ाता है। मन को ठंडक पहुँचाता है। पाँडे़ के दरवाजे से देखिए तो तीन तरफ फसल ही फसल लहलहाती दिखती है। इस समय भादों लगा है। उँचास के खेतों में कहीं-कहीं गन्ना, मक्का या सनई बोयी गई है, बाकी पूरी सिंवार में धान ही धान। पाँड़े दिशा-मैदान के लिए गाँव के पश्चिम रेलवे लाइन पार करके बड़ैला ताल के उत्तरी सिरे के भीटे पर आते हैं। भीटे के किनारे-किनारे घनी झाड़ियाँ हैं। इत्मीनान से दिव्य निपटान होता हैं। हरे-भरे खेतों का दर्शन होता है और टहलना भी। पास में ही मदरहवा वाला खेत भी है।

यह हरियाली ही किसान को जीवित रखती है। फसल तैयार होने में कितनी लागत आई? कितना लाभ होगा? इसका हिसाब वह नहीं लगाता। पीढ़ियों से हिसाब लगाने की परम्परा नहीं है। इसलिए नहीं कि वह हिसाब लगा नहीं सकता। इसलिए कि हिसाब लगाने बैठा तो दुखी हो जाएगा। वह जानता है कि हिसाब में हमेशा घाटा आएगा। खेती है ही घाटे का पेशा। बाप-दादा ऐसा कहते आए हैं। इधर जैसे-जैसे खेती में नगदी पर निर्भरता बढ़ रही है, घाटा भी बढ़ रहा है।

इस साल धान की फसल अच्छी है। हवा के झोंके पर पौधों का लहराना। खुश होने के लिए इतना ही काफ़ी है। इस खुशी के पीछे चोर दरवाजे से जो संकट झाँक रहा है, वह मन को दुखी न करे। कम-से-कम अभी न करे।

अभी मन को इस झूमती हरियाली का सुख ले लेने दो। मेंड़ की घास और धान की पत्तियों पर पड़ी ओस की बूँदों से पैर भीग गए हैं। धोती घुटने के ऊपर तक गीली हो गई है। उस पर अनगिनत तिनके और कीड़े चिपक गए हैं। कहीं-कहीं गड्ढों के सूखते पानी में छोटी-छोटी मछलियाँ झलमला रही हैं। घोंघे के बच्चे गड्‌ढों से बाहर निकलकर रेंग रहे हैं।

निपटान के बाद पाँड़े भीटे के पीपल के नीचे खड़े होकर सूर्योदय देख रहे हैं। लाली आई। पूरा गोला ऊपर आया फिर किरणों के तीर चले। उनके हाथ जुड़ जाते हैं। नजर आसमान की ओर जाती है। आसमान एकदम साफ नीला। अपवाद स्वरूप दो-चार सफेद बादल के टुकड़े। मन में न चाहते हुए भी चिन्ता की लकीर प्रवेश कर जाती है। आठ-दस दिन से एक बूँद पानी नहीं बरसा। आसमान को ढके रखने वाले काले-भूरे बादलों के पहाड़ जाने किस अनजाने देश की ओर उड़ गए। दो-तीन दिन से पछुवाँ बहने लगी है। आसमान में ऊँचाई पर तैरते सफेद बादलों के टुकड़े इस पछुवाँ के साथ उड़ते हुए वापस बंगाल की खाड़ी की ओर भागे जा रहे हैं। बड़े-बूढ़े कहते हैं – पछुवाँ का ररना। माने विलाप करना। क्यों विलाप शुरू कर दिया इस पछुवाँ ने? किस विपत्ति का पूर्वाभास? सूखे का? भादों बीत रहा है। धान की बालियाँ पौधों के गले तक आ गई हैं। इक्का-दुक्का फूटने भी लगी हैं। ऐसे में पछुवाँ!

धान की फसल पककर किसान के घर तक पहुँचे, इसके लिए जरूरी है कि इस समय कम-से-कम एक बार इतना पानी बरसे कि मेंड़ के ऊपर से बह जाए। वरना इस एक पानी के बिना सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। पछुवाँ की जगह पुरवाई बहने लगे तो बादलों के पहाड़ वापस आ सकते हैं।

जौ पुरवा पुरवाई पावै।
ओरी क पानी बँड़ेरी चढ़ावै।

लेकिन लगता है, इस साल पूर्वा नक्षत्र के लिलार में पुरवाई नहीं लिखी है। पाँड़े को याद पड़ता है, तीस-पैंतीस साल पहले इन्हीं दिनों एक बार नौ दिनों तक लगातार चौबीस घंटे पानी बरसता रहा था। दिशा-मैदान जाने-भर को, घंटे-आधे घंटे के लिए भी बन्द नहीं हुआ। मिट्टी के कितने घर गिर गए थे। जानवर भूखे बँधे रह गए थे। तब इतना पानी बरसता था कि इन दिनों में मेंड़ की ऊँचाई के बराबर पानी भरा रहता था। धान की फसल पककर लेट जाती थी। बालियों का धान खेत में भरे पानी में भीगकर अंकुरित होने लगता था। लेभा छानने की नौबत आ जाती थी। कटी फसल मेंड़ पर सुखाई जाती थी। कहाँ चले गए वे दिन? कहाँ चला गया सारा पानी?

पाँड़े की नजर ताल की और गई। यह पूरा भरा होता तो इसके पानी से चालीस-पचास बीघे धान की सिंचाई हो जाती, लेकिन अभी तो लगता है इसमें घुटने से थोड़ा ही ऊपर पानी होगा। कल तक इसमें रोज के रहने वाले पचास-साठ भूरे बगुले ही दिखते थे। एक टाँग पर खड़े, ध्यानावस्थित। धैर्य की मूर्ति! यहीं शिकार किया और यहीं बबूल के पेड़ पर बसेरा ले लिये। जो मिल गया, उसी में संतोष करने वाले। सारसों का कभी एक और कभी दो जोड़ा सबेरे आता था, शाम को उड़ जाता था। लेकिन आज सूरज निकलने के साथ इसमें लम्बी टाँग, पीली लम्बी चोंच और काली पीठ वाली अठारह-बीस चिड़िया और इतने ही सफेद बगुले आ जुटे। इनका भी कोई नियम है क्या? दिन-वार साधकर शिकार के लिए उतरती हैं? आज इस ताल में तो कल उस तलैया में? आज का दिन इस तालाब की मछलियों का आखिरी दिन होगा। पूर्वा नक्षत्र बरस गया होता तो इनको माघ-पूस तक जीवनदान मिल जाता। इनकी दुनिया कुछ दिन और आबाद रहती।

सबेरे सिंवार में निकलते हैं पाँड़े तो अपने सारे खेतों की मेंड़ तक जाते हैं। दूसरे के खेत में अच्छी फसल दिखती है तो वहाँ तक भी जाते हैं। अगर गंगा-स्नान के लिए संगम या हनुमानगढ़ी दर्शन के लिए अयोध्या जाते हैं तो भी रास्ते में पड़ने वाली फसल को देखते और उस पर अपनी राय देते चलते हैं।

नहर महीने भर से सूखी पड़ी है। धान की लगवाही के समय देर से पानी आया। जब तक बरसात होती रही तब तक नहर भी भरकर बहती रही। अब वह भी पेंदे में बह रही है। इसके पहले कि फसल सूखने लगे, पानी छोड़ने के लिए नहर की कोठी पर सारा गाँव चलकर ओवरसियर की खुशामद करे। लिखा-पढ़ी करके बात ऊपर तक पहुँचाने में ही हफ्ते-दस दिन लग जाएँगे।

दूर कहीं से पम्पिंग सेट चलने की पुक-पुक धुन शुरू हुई। किसी ने बादलों की आशा छोड़कर सिंचाई की शुरुआत कर दी।

आज जल्दी घर लौटने का मन नहीं कर रहा है पाँड़े का। दिवाकर की जिद ने उनके मन का चैन छीन लिया है। मन कर रहा है कि इसी पीपल के नीचे अँगोछा बिछाकर लेटे रहें। दिवाकर ने अपनी माँ के माध्यम से कहा है –“सिपाही की भर्ती होने वाली है। उन्हें भर्ती होना है। इसके लिए एक लाख घूस देना पड़ेगा।”

“तो तुमने क्या कहा?”

“मैंने कहा कि घर की आमदनी तो तुम देख ही रहे हो। घर में एक लाख हो तो खुशी से ले जाओ।”

“फिर?”

“फिर क्या? वे कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। एक ही रट है कि एक लाख चाहिए। खेलावन ने एक लाख में भर्ती कराने के लिए हामी भरी है। अपने बेटे को भर्ती करा रहे हैं।”

“जानती हो, कितना होता है एक लाख?” उन्होंने उलटे अपनी पत्नी से पूछा – “ इतना रुपया अपनी आँख से देखा है कभी? सपने में कभी देखा हो तो भी बता दो। पूरे सौ हजार इकट्ठा हों तब बनता है एक लाख। घर का सारा गल्ला बेच डालो तब भी बीस-पचीस हजार से ज्यादा नहीं मिलेगा।”

दिवाकर कभी अपने बाप से सीधे कुछ नहीं कहते। माँ को माध्यम बनाते हैं। माँ-बेटे के बीच कई दिनों से चल रही है यह रस्साकसी। पाँड़े को भी पत्नी के माध्यम से अपना पक्ष रखना निरापद लगता है। आमने-सामने तकरार करने से दोनों लोग बचना चाहते हैं।

“क्या दिवाकर को नहीं पता कि ट्रैक्टर के लोन की किस्त निकालने में कितना नाकों चने चबाना पड़ रहा है। दो किस्त की देनदारी अभी भी खोपड़ी पर चढ़ी है। उसको नहीं सोच रहे हैं! इनको चाहिए कि बड़े भाई के साथ खटें। किस्त भुगतान करने की चिन्ता करें। वह तो नहीं सोचते, ऊपर से एक लाख चाहिए।”

“खट तो रहा ही था। चोट खा गया तो हिम्मत छूट गई। गाँव-देहात में कहाँ इतना काम है कि रातों-दिन ट्रैक्टर चलेगा!”

“नहीं है तो खोजें। जुताई खोजें, मिट्टी ढोएँ। भाड़ा खोजें।”

“आप भी अन्धेर पादते हैं दिवाकर के बाबू! जोताई, मड़ाई, मिट्टी सीजन में मिलेगी कि सावन-भादों में?”

“जब सावन-भादों में चूल्हा जलाना है तो काम भी खोजना होगा। सावन-भादों में बैंक ब्याज लेना बन्द कर देता है क्या? जब तक सीर-भर की खतौनी बैंक में बन्धक है, नींद नहीं आनी चाहिए। सो तो नहीं सोचेंगे। ऊपर से एक लाख नगद चाहिए।”

दिवाकर की अम्मा पाँड़े जी की बात को तुरन्त नहीं काटतीं। उनकी बात के ताप को ठंडा होने देती हैं; फिर आजिजी से, जैसे माफी माँग रही हों, अपनी बात रखती हैं।

“दिवाकर कहते हैं कि जब तक ट्रैक्टर का लोन अदा होगा, तब तक तो उनकी नौकरी पाने की उमर निकल जाएगी।”

“यह क्यों नहीं कहते कि बी.ए. कर लेने के बाद उन्हें बत्ती-पंखे के नीचे छाँहे-छाँहे बैठने के सपने आने लगे हैं।”

“तो इसमें खराबी क्या है? पढ़ा-लिखा है तो पढ़े-लिखों वाली नौकरी खोजेगा ही।”

“शौक से खोजे, लेकिन उसके लिए हमारे जैसे गरीब किसान से एक लाख रुपये वसूलने की उम्मीद न करें।”

“हम बस यह चाहते हैं कि कोई रास्ता निकले। घर में शान्ति बनी रहे। दिवाकर के जिद्दी स्वभाव से डर लगता है। रूठे हुए हैं। कल शाम से खाना नहीं खाए। शिवाले पर लेटे हैं। जाइए, मना लाइए।”

पाँड़े मनाने गए। समझाया – “आखिर अन्न से क्या बैर?”

“मुझे पैसा चाहिए। खेती करके देख लिया। खेती से गुजारा नहीं हो सकता।”

“सारी दुनिया का गुजारा खेती से ही तो हो रहा है!”

“इसको गुजारा कहते हो? पिछले साल आलू बोया गया दस रुपये किलो का बीज खरीदकर। पैदा होने पर बिका तीन रुपये किलो। बोवाई, खोदाई, खाद और सिंचाई का दाम जोड़ दीजिए तो लागत आती है छह रुपये किलो। कैसे गुजारा होगा? प्याज का बीज खरीदा हजार रुपये किलो। धूप में निराई, गोड़ाई, खोदाई, सिंचाई करते हाँड़ गल गया। लागत आई आठ रुपये किलो और बिका पाँच रुपये किलो। कैसे गुजारा होगा? टमाटर माटी के मोल भी नहीं बिका। दो रुपये किलो भी नहीं। कूड़े की तरह बाजार में फेंककर चले आए। कैसे गुजारा होगा?...खेती में हाड़ गलाना गाँड़ मराने के बराबर है। जिसको शौक हो मरावे। मैं नहीं मराऊँगा।”

पाँड़े पल-भर के लिए चुप रह जाते हैं। फिर कहते हैं – “मैंने कोई दरखास्त तो दिया नहीं था कि किसान के घर में पैदा करो। किस्मत गाँडू थी तो पैदा हो गए। अब भागकर कहाँ जाएँ? तुम्हें कोई गली सूझती हो तो बताओ।”

“हमें पैसा चाहिए, बस।”

“तुम्हीं बताओ, कहाँ से लाएँ?”

“मदरहवा वाला खेत बेच दीजिए।”

“खेत तो सब बैंक के पास बंधक है।”

“मदरहवा वाला बंधक नहीं है। जब लोन लिया गया तो मदरहवा गाँव का रेकार्ड सीज था। खतौनी की नकल जारी नहीं हो रही थी, इसलिए बच गया। हमें सब पता है।”

पाँड़े दिवाकर का मुँह देखने लगे। फिर बोले – “अच्छा घर चलो। तुम्हारी अम्मा परेशान हैं। खेत कोई गाजर-मूली नहीं कि जब चाहा बेच दिया।”

पाँड़े दिवाकर का हाथ पकड़कर दालान तक लाए। दिवाकर वहीं चारपाई पर लेट गए। बाप के साथ खाना खाने नहीं बैठे। पाँड़े खाना खाकर कुछ देर आराम करना चाहते थे, लेकिन दालान में फिर दिवाकर से सामना होगा, यह सोचकर गाँव की ओर निकल गए। दो-एक घरों में जोताई का बकाया था। सोचा, मिले तो वही वसूल लाएँ। लौटे तो अँधेरा उतरने लगा था। गाय-भैंस अभी बाहर ही बंधे थे। नौ में झांककर देखा। खाली थी। अभी तक इनका चारा-पानी नहीं हुआ!

ढाली के एक पहिए की बेयरिंग फूट गई थी। प्रभाकर उसी को बनवाने बाजार गए थे। चारे-पानी का जिम्मा दिवाकर का था।

दालान और ओसारे के बीच की जगह पर खड़े होकर पाँड़े एक-दो बार खाँसे। प्रत्युत्तर में छोटी बहू हाथ में लालटेन लेकर निकली और दालान के छप्पर में लटकी लटकन में टाँग दिया। फिर पास से झाडू़ उठाकर पूजा की जगह बुहारने लगी। तब तक अन्दर से लोटे में पानी लेकर दिवाकर की अम्मा निकलीं। उन्होंने बहू के हाथ से झाडू़ लेते हुए टोका – “तुम्हें हजार बार मना किया बहू कि अँधेरा होने के बाद झाडू़ लगाना दोख है। उजाले में क्यों नहीं लगा लिया?”

बहू बिना कुछ बोले घर के अन्दर चली गई। बहू की पायल की झनकार और बाल्टी की खनक सुनकर हाथ-मुँह धोने जा रहे पाँड़े ने अनुमान लगाया कि बहू बाल्टी लेकर कुएँ की ओर जा रही है। यानी नाँद में उसे ही पानी भरना है।

“दिवाकर कहाँ गए?”

“हम क्या बताएँ।”

“बहू को तो पता होगा?”

“बहू को भी नहीं बताया।”

उनके रहते बहू का नाँद में पानी भरना ठीक नहीं। वे लालटेन लेकर कुएँ की ओर बढ़े। साथ ही बिजली विभाग को भुनभुनाकर कोसने लगे – “रात में दस बजे बिजली देंगे जब सारा गाँव सो जाएगा।”

बहू से कहा – “बाल्टी छोड़ो, जाकर भूसा-खली लाओ।”

जब तक पाँड़े ने नाँद में पानी भरा, सानी चलाई और जानवरों को अन्दर बाँधा—दिवाकर की अम्मा ने संध्या-स्थल पर हवा करके काल्पनिक धूल को उड़ाया। लोटे का पानी लेकर आसपास कच्ची फर्श पर छिड़का। फिर कुशासनी बिछाकर उस पर अगरबत्ती, माचिस, शंख, कमरी आदि छूहे के ताखे से निकालकर रखा। पाँड़े आकर संध्या वंदन करने बैठे, स्त्रोत पढ़ा, शंख बजाया। फिर उसे धोकर कमरी में लपेट दिया। इस बीच पत्नी बिना बोले धैर्यपूर्वक पास में बैठी रहीं। उनके न बोलने से पाँड़े अधीर होने लगे। बैठी हैं तो जरूर कुछ कहने के लिए बैठी हैं। तो कहती क्यों नहीं?

“बोलो।” पाँड़े ने इशारे से कहा।

“सोच रहे हैं कि कोई रास्ता निकालना होगा। बेटा पराया न हो जाय। कहीं भागे-छाँड़े नहीं।”

“भागना चाहेंगे तो कोई बाँधकर थोड़े रख लेगा! बच्चे तो हैं नहीं।”

पत्नी उनका मुँह देखती रहीं।

“कहीं नहीं भागेंगे। और भागे तो फिर लौटकर यहीं आएँगे। जैसे दो बार भागकर लौटे हैं। कहीं ठेकाना लगा? बाभन के लड़के को कहीं ठेकाना नहीं लगेगा। उसके लिए बभनाहट भूलना पड़ता है।”

“आप तो दुश्मन की तरह बोलते हैं।…एक सूरत और निकल सकती है। बहू कह रही थी कि अगर आप उसके बाप से चर्चा चलाएँ तो वे कुछ मदद कर सकते हैं। नौकरी मिलने पर धीरे-धीरे वापस कर दिया जाएगा।”

“लेकिन मैं उनसे किसी कीमत पर ऐसा नहीं कह सकता। जब विवाह तय करते समय मैंने अपना मुँह नहीं खोला तो अब खोलूँगा? और वापसी की बात भी झूठ है। बेटी के घर गया पैसा कहीं वापस आता है! बहू अपने बाप से कहना चाहे तो कहे, मैं नहीं कह सकता और न चाहूँगा कि दिवाकर वहाँ माँगने जाएँ।...और तुम भी गजब हो, दिवाकर की अम्मा! जैसा सुन लेती हो, वैसा गाने लगती हो। अरे, घूस देकर नौकरी वह खरीद सकता है जिसके घर में घूस का पैसा आता हो। खेलावन सरकारी आदमी हैं। उनकी कमाई के दस रास्ते होंगे। वे एक क्या, दो लाख देकर अपने बेटे को भर्ती करा देंगे। तुम्हारा बेटा उनके बेटे की बराबरी कैसे कर सकता है?”

“देने वाले तो खेत बेचकर भी दे रहे हैं।”

“जो मुँह में आवै, वही नहीं बोल देना चाहिए। बाप-दादा की सम्पत्ति बढ़ा तो पा नहीं रहे हैं, उसे बेचने की कैसे सोच सकते हैं, चाहे फाँसी लगने की ही नौबत क्यों न आ जाय! मान लो, मुझे किसी जुर्म में फाँसी की सजा हो जाय और वकील कहे कि सब बेच-बाँच कर लाओ, ऊपर से छुड़ा लूँगा, तो क्या मैं फाँसी से बचने के लिए खेत बेच दूँगा?”

सन्नाटा लम्बा खिंचता है...

आखिर इसे पाँड़े ही भंग करते हैं।

“मेरे लिए घूस खाना और खिलाना गुह खाने के बराबर है।”

“दुनिया तो उसी को खाने के लिए लपकी जा रही है।”

“जिसको खाना हो, वह लपके। मेरी तो न खाने की औकात है, न खिलाने की।”