प्रदीप अवस्थी के उपन्यास मृत्यु और हँसी का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
हमें नहीं पता रहता कि हमारे सबसे क़रीबी अपने मन में कितने राज़ दबाए रहते हैं। वे दो लोग जो रोज़ रात एक ही बिस्तर पर सोते हैं, किसी दिन अपने-अपने मन की सारी बातें एक-दूसरे से कह डालें, तो पता नहीं फिर कभी वे एक बिस्तर पर साथ बैठने के बारे में सोच भी पाएँगे या नहीं। हमें नहीं पता कौन से राज़, किस तरह खुलेंगे और क्या तबाही लेकर आएँगे। तबाही सिर्फ़ उन दो लोगों की ज़िन्दगी में नहीं, उनसे जुड़े लोगों की ज़िन्दगी में भी। और अगर वे बच्चे हों, तो जिस यातना से वे गुजरेंगे, उसकी छाप जीवन-भर उनके साथ रहेगी। तबाहियाँ ऐसी, जिनमें पिछली पीढ़ी का भी हाथ था। कोई एक-दो लोग नहीं होते, जो पिसते हैं। जब वे इन परिस्थितियों में होते हैं, तो ईर्ष्या, ग़ुस्से और बदले की भावना का ऐसा ज्वर रहता है कि लगता है बस कुछ भी करके मन को सुकून मिले। सब गुज़र जाने के बाद यदि कुछ बचता है, तो पछतावा और उसके भी बाद, ख़ालीपन।
बच्चे जब छोटे होते हैं तो छुट्टी की घंटी बजते ही ख़ुशी से शोर मचाते हुए, दौड़ते हुए बाहर तक आते हैं और फिर उत्साहित-से घर तक, जैसे कोई जेल हो स्कूल। घर जेल नहीं होते या नहीं होने चाहिए। लेकिन स्त्रियों के लिए तो वे जेल ही रहे। कौन-सा अँधेरा होता है जो उन बच्चों पर असर करने लगता है कि वे शोर मचाते हुए बच्चे, दौड़कर बाहर आते हुए बच्चे, बेमन से पैर पटकते हुए उदास चेहरा लिये इधर-उधर फिरने लगते हैं।
अंश के अप्रत्याशित व्यवहार से उपजे सवालों के बदले में सवाल मिलने से राघव भौचक्का था। वृंदा के बारे में दूसरे लोगों की बातें उसमें ज़हर की तरह उतर रही थीं। लेकिन उसकी बातें भी छुपी कहाँ थीं। वृंदा अपने मन और दिमाग़ में शिथिल पड़ती जा रही थी, जैसे सब हाथ से निकलता जा रहा हो और अब कोशिश करके भी रोका नहीं जा सकता। अगले दिन राघव ऑफ़िस नहीं गया। सुबह ही सोसाइटी कंपाउंड में एक दोस्त ने उससे कहा –
“यार तू रात को उठकर चला गया ग़ुस्से में।”
“तो क्या करता...वहाँ बैठे-बैठे मुस्कराते हुए सुनता रहता वह सब?”
उसके दोस्त ने बताया –“तुझे रात की बातें ख़राब ज़रूर लगी होंगी लेकिन तू थोड़ा पता करने की कोशिश कर। वह लड़का जो फ़ंक्शन में था...।”
राघव ने चुपचाप सुना। एक आग थी जो उसके अन्दर बढ़ती जा रही थी। उसके लिए यक़ीन करना भी मुश्किल था। उसने कुणाल के बारे में पता करने की कोशिश की। सबसे आसान और कम जोखिम भरा तरीक़ा था सोसाइटी गेट के गार्ड्स से पूछना। वह गेट तक गया। उसने किसी तरह बात शुरू करते हुए एक गार्ड से पूछा –
“सुनो, जितना पूछूँगा उतना ही बताना और किसी से इस बात का ज़िक्र मत करना। वृंदा मैडम इसी गेट से आती-जाती होंगी ज़्यादातर?”
“जी सर।” – गार्ड ने थोड़ा सोचकर जवाब दिया।
“तो अकेली ही आती-जाती हैं या कोई होता है साथ में? मतलब कोई भी उनका दोस्त, कोई सोसाइटी की ही औरत...” – राघव ने झिझकते हुए पूछा।
गार्ड बात को समझ रहा था लेकिन वह इन पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था इसलिए उसने अपनी नाइट ड्यूटी का हवाला दिया।
“सर मेरी तो अक्सर रात की ड्यूटी रहती है, अभी मिश्रा आएगा तो उससे पूछिएगा या तो मैं बता दूँगा कि आप पूछ रहे थे” – गार्ड ने कहा।
राघव चला गया लेकिन सवाल अभी सुलग रहे थे। सुबह शिफ़्ट बदलने के समय मिश्रा आया।
“वह राघव साहब अपनी बीवी की खोज-ख़बर ले रहे थे। मैंने पल्ला झाड़ लिया। तुझसे पूछेंगे। देख लेना” – गार्ड ने एक दुष्ट मुस्कान के साथ मिश्रा से कहा।
मिश्रा ने पान थूकते हुए कहा –“हाँ पूछेंगे तो बता देंगे सब सच-सच। कोई पहली बार थोड़ी न पूछ रहा है ऐसा सब। सब पूछते ही रहते हैं। एक घर में रहते हैं लेकिन जानकारी बाहर से लेते हैं। सब बता देंगे। कब जाती हैं, किसके साथ जाती हैं, कितनी देर में आती हैं, लेकिन ऐसे नहीं। क़ीमत लेकर।” दोनों हँसने लगे।
“दूसरी पार्टी को भी बता देना न। अब आग लग रही है इसे। बाक़ी पीछे से ख़ुद किसी और औरत को लाता था गाड़ी में।”
मिश्रा ने उसे समझाने वाले अन्दाज़ में कहा –“भाई अपने काम से काम रखना है बस। अपना कुछ जेब ख़र्च निकल जाए तो काफ़ी है। बाक़ी इन लोगों का तो यही सब चलता है। इसकी उसके साथ, उसका इसके साथ।”
दिन में राघव ने मिश्रा से पूछा तो वह आनाकानी करने लगा।
“साहब, यही तो मौक़ा है। कुछ आप भी कर दीजिए। मतलब...”
“मतलब?”
“कुछ पीने–पिलाने का इन्तज़ाम...” – मिश्रा ने हिचकिचाते हुए कहा। राघव कुछ क्षण उसको घूरता रहा।
“ठीक है।”
मिश्रा बताने लगा।
“साहब, छोटा मुँह बड़ी बात हो जाएगी लेकिन आप ठीक सोच रहे हैं। एक लड़का है, कुछ ही महीने हुए अभी सोसाइटी में आए, उसके साथ काफ़ी आना-जाना रहता है...मैडम का” – बोलते-बोलते उसकी आवाज़ धीमी हो गई।
राघव का माथा गरम होने लगा।
बात उसे समझ आ गई थी लेकिन उसने और जानना चाहा। वह सोसाइटी सेक्रेटरी के ऑफ़िस पहुँचा। सेक्रेटरी शर्मा वहाँ था नहीं।
राघव ने उसे फ़ोन किया।
“शर्मा जी कुछ ज़रूरी बात करनी है आपसे। आपके ऑफ़िस में इन्तज़ार कर रहा हूँ।”
“आता हूँ राघव भाई। यहीं कुछ मेंटेनेंस का काम देख रहा था।”
कुछ ही मिनट में शर्मा ऑफ़िस पहुँच गया।
“कैसे आना हुआ...चाय-पानी कुछ मँगाऊँ?” – शर्मा ने आते ही पूछा।
“नहीं। मुझे बस आपसे कुछ पूछना था” – राघव ने कहा। दोनों आमने-सामने एक टेबल के दोनों ओर बैठे थे।
“जी पूछिए” – शर्मा ने ध्यान देते हुए टेबल पर अपनी दोनों कोहनी टिकाते हुए कहा।
“यह लड़का, कुणाल...यह कब से रह रहा है सोसाइटी में?” – राघव ने थोड़ी झिझक से पूछा।
“यही कोई...तीन महीने हुए हैं। क्यों? कोई दिक़्क़त दे रहा है?”
“नहीं दिक़्क़त कोई नहीं...कोई जानता है उसे यहाँ? मतलब कैसे आया?”
शर्मा थोड़ा हैरान हुआ। फिर उसने अपनी हैरानी को छुपाया।
“मुझे लगा आपको तो पता होगा। वृंदा मैडम ने कहा था कि उनकी जान-पहचान का लड़का है। उन्हीं की गारंटी पर फ़्लैट दिया है।”
राघव को सारी बात समझ आ गई। उसने शर्मा से आगे कुछ नहीं कहा और वहाँ से उठ आया। सारे बिंदु एक ही ओर इशारा कर रहे थे। वह ग़ुस्से में था।
अब एक सच था जो राघव जानता था। लेकिन उसका अपना भी एक सच था जो वृंदा जानती थी। ऐसा बहुत कुछ होता है जिसके बारे में बात नहीं हो पाती लेकिन जिसे जानते सब हैं। वे सारी बातें जो अनकही रह जाती हैं, इकट्ठी होती रहती हैं और बीच में दूरियाँ बनकर बैठ जाती हैं। ध्रुव की दुनिया में उसके पिता किसी और औरत को चूमते थे और वह गाड़ी तोड़–फोड़कर अपना ग़ुस्सा निकाल लेता था। यह बात वह सबको बता भी देता था। उसकी दुनिया में कुणाल उसका और उसकी मम्मी का दोस्त था। अंश की दुनिया में नई और बदसूरत चीज़ें खुल रही थीं। वह ग़ुस्सा निकालना नहीं जानता था। वह उदास और परेशान होना जानता था। वह नाराज़ होना और ख़ुद को अकेला करना भी जानता था। वह जानने लगा था कि उसके बड़ों की दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं है। उसके पास सवाल थे लेकिन ऐसा कोई नहीं जिससे जवाब की उम्मीद करे। उसके माता-पिता दो अलग-अलग रास्तों पर थे और उसे बेसहारा छूट जाने का दुख भी सता रहा था। ऐसा कोई दुख ध्रुव नहीं जानता था। अंश को उसके अनजान रहने पर उस पर ग़ुस्सा भी आता था। सिर्फ़ वृंदा को दिखता था अंश का इस तरह होते जाना लेकिन वह हाथ नहीं बढ़ा पाती थी।
राघव असमंजस में था। जहाँ एक ओर यह बात उसे पागल कर रही थी कि वृंदा उसके पीछे कुणाल से मिलती है, वहीं दूसरी ओर अब वह वृंदा की आँखों में आँखें डालकर उससे बात कर सकता था। अपनी नज़रों में अब वह नैतिक तौर पर वृंदा के बराबर खड़ा था। फिर भी वह वृंदा से सवाल-जवाब नहीं कर पा रहा था। उसे घुटकर रह जाना पड़ा। लेकिन अब उसे ख़ुद बहुत छुपकर रहने की ज़रूरत नहीं रह गई थी। वह ऑफ़िस में अपने केबिन में इसी सब दिमाग़ी उधेड़बुन में था कि एक कर्मचारी ने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी। वह अन्दर आया और राघव को एक पार्सल देकर चला गया। वह वृंदा की तरफ़ से था। राघव थोड़ा हैरान हुआ। उसने पार्सल खोला। उसमें एक डॉक्यूमेंट था। वृंदा ने तलाक़ के काग़ज़ भेजे थे। ख़ुद साइन भी कर दिया था। राघव के साइन की ज़रूरत थी। राघव का दिल धक्क से रह गया। उसे लगा बात हाथ से निकलती जा रही है।
यूँ तो तलाक़ के काग़ज़ देखकर राघव ने उन्हें हल्के में लिया होता। बिज़नेस और प्रॉपर्टी और थोड़ा-बहुत बच्चों का मामला न होता, तो शायद वह साइन कर भी देता। लेकिन दो बातें एक के बाद एक हुईं। उसे वृंदा और कुणाल के रिश्ते का पता चला और फिर, वृंदा ने तलाक़ के लिए बात आगे बढ़ाई। इस बात ने राघव को ग़ुस्से से भर दिया।
“अब अपना रास्ता दिखने लगा है तो ज़रा देर नहीं लगी मुझे हटाने में। इतनी आसानी से नहीं। अब तो बिलकुल नहीं। अब तो खेल खुलकर होगा” – उसने जैसे ख़ुद से ही कहा। कितनी अजीब बात है कि वृंदा उसे स्वार्थी नज़र आई। उसे अपने पिता को यह बात बतानी थी। उसने अपने फ़ोन में काग़ज़ों का फ़ोटो खींचा और अपने पिता को भेज दिया। अगले ही मिनट उसके पिता का फ़ोन आया।
“ये सब क्या है?”
“वही है जो आप देख रहे हैं।”
“मैंने कहा था तुझसे कि अपने फ़ालतू काम बन्द कर दे कुछ समय। घर सँभाल। अब मुझे क्या भेज रहा है फ़ोटो। जो किया है भुगत। जो करना है कर।” इतना कहकर उन्होंने फ़ोन काट दिया। राघव का ग़ुस्सा और बढ़ गया।
कहा जाता है कि ग़ुस्से में फ़ैसले नहीं लेने चाहिए। लेकिन राघव ने वही किया। उसके दिमाग़ में एक भद्दी-सी बात आई और जैसा कि हमें सिखाया जाता है कि ऐसे में कुछ देर शान्त रहकर ऐसी बातों को निकल जाने देना चाहिए, राघव ने ठीक इसका उलट किया। वह उस पर आगे बढ़ता गया। उसने मोहिनी को अपने केबिन में बुलाया।
“आज तुम्हारी शिकायतों को दूर कर ही देता हूँ। तुम्हें लगने लगा था कि मेरा क्या भरोसा। मैं कहता रहता था कि थोड़ा समय दो...आधे घंटे में हम घर चल रहे हैं” – राघव ने एक साँस में कह दिया।
“पागल-वागल हो गए हो क्या? घर चल रहे हैं...हो क्या गया तुम्हें?” – मोहिनी ने मज़ाक़ उड़ाने वाले लहजे में कहा।
राघव उसे कुछ पल चुपचाप देखता रहा।
“आधा घंटा। जाओ अपने केबिन में और ज़रूरी काम निपटा लो” – राघव ने शान्त भाव से कहा। मोहिनी कंधे उचकाते हुए बाहर निकल गई। अपने केबिन में जाकर उसने जल्दी से थोड़ा काम निपटाया और राघव का इन्तज़ार करने लगी।
“लेकिन आज यह हुआ क्या है? तुम्हारी बीवी घर पर नहीं है क्या?” – जब चलने के लिए राघव उसके केबिन में आया, तो मोहिनी ने पूछा।
“चलो। सब पता चल जाएगा।”