प्रभात प्रणीत के उपन्यास वैशालीनामा का एक अंश, राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


विशाल नदी के पास उसकी कलकल ध्वनि सुनते हुए एक कुटिया में धरती पर बिछे बिछावन पर सुप्रभा और नाभाग दाम्पत्य जीवन की पहली रात बिता रहे थे। दोनों एक दूसरे को निहारते हुए उन तमाम प्रश्नों, सम्भावनाओं को टटोल रहे थे जिसके सम्बन्ध में उन्हें अब तक बात करने का मौका ही नहीं मिल पाया था। हिमवंत आश्रम में इन्होंने अपने भविष्य की जिन भी सम्भावनाओं की कल्पना की थी इस समय वे उससे बिलकुल अलग स्थिति में थे। प्रश्न कोई करता उत्तर दोनों ही ढूँढ़ते, उत्तर कोई देता, पूछा गया प्रश्न दोनों के जेहन में होता। वह इस वार्तालाप के माध्यम से वस्तुत: संग जिये जानेवाले जीवन के मार्ग को तलाश रहे थे जिस पर अब तक के जीवन की परछाई दूर तक पहुँच रही थी—

“देवी सुप्रभा, मुझे क्षमा करना, मैं आपका अपने जीवन में उस तरह का स्वागत नहीं कर पाया जिस तरह की अपेक्षा आपने मुझसे की होगी।”

“यह कहकर मुझे अपनी दृष्टि में लघुता का अनुभव मत कराइये युवराज, आज मेरे कारण आपको इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है, आज मेरे कारण ही आप इस स्थिति में हैं, जिस राज्य के आप सम्राट होनेवाले थे उसी राज्य की एक कुटिया में आपको शरण लेनी पड़ रही है।”

“देवी सुप्रभा, आपसे एक अनुरोध है, अब मैं युवराज नहीं रहा, इसलिए मुझे इस नाम से अब मत पुकारिये और आपने यह कैसे सोच लिया कि यह जो कुछ भी हो रहा है उसका कारण आप हैं, बिलकुल नहीं। हमने तो केवल एक दूसरे से प्रेम किया है, एक दूसरे के जीवन साथी बने हैं, आज हम इस स्थिति में इसलिए हैं क्योंकि यह युग धर्म और परम्परा के नाम पर मानवता की बलि लेने के लिए तैयार बैठा है। यह आज की परिस्थिति में हमारे ऊपर बीत रहा है किन्तु यह तो अनेक लोगों के साथ इससे पहले भी होता रहा होगा और यदि इसे रोका नहीं गया तो आनेवाले कल में न जाने कितनों के साथ यह होता रहेगा। इसलिए इन परिस्थितियों के लिए स्वयं को उत्तरदायी ठहराने की बात आप अपने मन मस्तिष्क में बिलकुल न लाएँ देवी सुप्रभा।”

“मैंने आपको युवराज के रूप में अब तक पुकारा है और आगे भी मैं इसी तरह पुकारूँगी, बाकी संसार को आप भले रोक दें किन्तु मुझे इसके लिए विवश न करें। मैं तो आपको युवराज के अलावा केवल महाराज कहकर पुकार सकती हूँ और पुकारूँगी जब आप इस राज्य के सम्राट बनेंगे।”

“नहीं देवी सुप्रभा, मैंने प्रण किया है, मैं अब इस जीवन में न क्षत्रिय जीवन जीयूँगा और न ही कभी सम्राट बनूँगा, मैंने वैश्य जीवन जीने का निर्णय कर लिया है। हाँ आप चाहे मुझे जिस नाम से पुकारें यह आपका अधिकार है, मैं आपको रोकूँगा नहीं।”

“मुझे यह अधिकार देने के लिए आपका हृदय से आभार युवराज। किन्तु आपने जो यह वैश्य जीवन जीने का निर्णय किया है क्या इसमें कोई बदलाव सम्भव नहीं, माना कि अभी आप सम्राट बनने को तैयार नहीं किन्तु वैश्य का जीवन जीना क्यों जरूरी है?”

“देवी सुप्रभा, यह भी मेरे प्रण का अंश है इसलिए मुझे यही जीवन जीना है।”

“युवराज, आप राजमहलों में रहे हैं, आपने वह जीवन जीया है, एक वैश्य का जीवन बहुत कठिन होता है, वाणिज्यग्राम नगर में तो अब आप रहेंगे नहीं अतः कोई व्यवसाय तो आप कर नहीं सकते। अन्ततः विकल्प केवल कृषक के जीवन का है, और इस धरती पर कृषक से कठिन जीवन किसी का नहीं है।”

“आपके रहते अब कोई कठिनाई मुझे कठिनाई प्रतीत ही नहीं होगी देवी सुप्रभा। आप साथ हैं तो हर कठिनाइयों का सामना मैं हँसते-हँसते कर लूँगा।”

“मैं तो जीवन पर्यन्त आपके साथ रहूँगी युवराज। क्या आपको ज्ञात है कि हमारे विरुद्ध किस तरह का षड् यंत्र रचा गया है?”

“षड् यंत्र, कैसा षड् यंत्र देवी?”

“षड् यंत्र के छोर तो मुझे अभी ज्ञात नहीं किन्तु कुछ बातें हैं जो आपको जाननी चाहिए।”

“क्या बात है देवी सुप्रभा, मुझे बताइए?”

“आपने जब मेरे पिताश्री से मेरे सम्बन्ध में बात की थी उसके ठीक पहले की रात नगर का एक श्रेष्ठी राधगुप्त मेरे पिताश्री से मिला था और उसने आपके द्वारा दिए जानेवाले प्रस्ताव की बात पहले ही बता दी थी। और बहुत सारी अनर्गल बातें कहकर मेरे पिताश्री को हमारे सम्बन्ध के विरुद्ध भड़का दिया था, यही कारण है कि उन्हें यह रिश्ता स्वीकार नहीं है।”

“किन्तु श्रेष्ठी राधगुप्त को इस बात की जानकारी कैसे हुई? इस सम्बन्ध में तो मेरे अलावा केवल वसुरथ को ज्ञात था।”

“तब तो उन्होंने ही श्रेष्ठी को भेजा होगा।”

“किन्तु वसुरथ ऐसा क्यों करेगा देवी सुप्रभा?”

“यह तो मैं नहीं जानती। मुझे बताइए आपके अस्वीकार करने के बाद महाराज के पास वज्जि साम्राज्य के सम्राट हेतु विकल्प क्या है, किसे यह पद प्राप्त होगा?”

“स्वाभाविक रूप से इस स्थिति में यह केवल वसुरथ को प्राप्त होगा, अर्थात देवी आपको लगता है कि यह सब वसुरथ ने किया है?”

“मुझे ऐसा प्रतीत ही नहीं होता बल्कि यही सत्य भी है, इस षड् यंत्र के सूत्रधार वही हैं, उन्होंने अपने स्वार्थ में आपके साथ इतना बड़ा विश्वासघात किया है।”

“मुझे अब भी विश्वास नहीं देवी, किन्तु यदि उसने ऐसा किया भी हो तो भी मैं उसे क्षमा करता हूँ। मेरे मन में उसके लिए कोई कटुता नहीं।”

“युवराज आप किस मिट्टी के बने हैं? जिनके कारण आप आज इस स्थिति में हैं, जिन्होंने ऐसा षड् यंत्र रचा उसे आप इतनी आसानी से क्षमा कर रहे हैं?”

“देवी सुप्रभा, मैं इस स्थिति को अपना नियति मानता हूँ और इसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ इसलिए मैं किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रख सकता। हमारे बस में हमारा कर्म है, जय-पराजय, लाभ-हानि तो तय है, कोई इसका माध्यम भर बन सकता है, वह यह निर्धारित नहीं कर सकता। इसलिए मेरे मन में किसी के लिए कोई द्वेष नहीं।”

सुप्रभा अब तक योद्धा युवराज, प्रेमी युवराज को जानती थी, उसके इन बातों को सुनकर उसे पहली बार प्रतीत हुआ कि नाभाग वस्तुतः एक संत हैं और इस बात से उसके हृदय में नाभाग के लिए बसा प्यार छलकने लगा, उमड़ पड़ा।