अरुण सिंह के किताब पटना : भूले हुए क़िस्से का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
‘मेरे बचपन में रोजाना शाम के वक़्त एक लहकती हुई तान दूर फिज़ा में बुलंद होती। मैं तो खैर कमसिन था मगर दूसरे लोग चौंक उठते। आवाज करीब आती जाती और साथ ही साथ यह महसूस होने लगता कि सारी फिज़ा उसकी दिलकश तान से मस्त होती जा रही है। कुछ देर के बाद एक अधेड़ उम्र की औरत नीमवार फ़तगी में आहिस्ता-आहिस्ता कश्मीरी कोठी की तरफ से मेरे मुहल्ले यानी सदर गली के जानिब चलती हुई नजर आती। दस कदम चलती और रुक जाती। रुक जाती तो फिर ऐसी पाटदार आवाज आती जो सुनने वाले को मस्त कर दे फिर अपना राग छेड़ती। दुकानदार अपना काम छोड़ देते और राहगीर रुक कर उसका गाना सुनने लगते। यूं ही गाती हुई वह मेरे मोहल्ले से गुजरती और शाहदरा तक पहुंचती। वहां तक पहुंचने के बाद उसका गाना खत्म हो जाता। आगे बढ़कर न जाने कहां चली जाती।’
— सैयद बदरुद्दीन अहमद, हकीकत भी कहानी भी
यह बड़ी कनीज़ थी। अज़ीमाबाद की तवायफ़, मशहूर गायिका। जोहरा बाई की टक्कर की गायिका बड़ी कनीज़ अपने ज़माने की अज़ीम हस्ती थी। महफ़िलों में उसकी मांग जोहरा से ज्यादा थी। क्योंकि बड़ी कनीज़ बहुत हसीन थी। अपनी कला और अपने सौंदर्य की बदौलत उसने बेशुमार दौलत हासिल की। बड़ी कनीज़ को शराब का चस्का लगा। वह दिन-रात शराब में गर्क रहने लगी। शराबखोरी ने उसके पेशे पर भी बुरा असर डाला। आमदनी कम हुई तो देसी शराब पीने लगी। पीने पर कोई नियंत्रण न था। आखिरकार वह विक्षिप्त हो गई। बड़ी कनीज़ से वह बौराही कनीज़ बन गई। आख़िर में तो यह हालत थी कि जब वह गाती हुई गुज़रती तो उसकी हालत जानने वाले रूपये-पैसे स्वयं दे देते। पर उसकी खुद्दारी ऐसी थी कि मुफ़लिसी की हालत में भी उसने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया।
एक वक़्त में अपने एक-से-बढ़कर-एक फनकारों की वजह से गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर अज़ीमाबाद (औरंगजेब के पोते शहजादा अज़ीम-उश-शान का पटना को दिया नाम) मौसिकी-ओ-अदबो- तहज़ीब का भी केंद्र माना जाता था। 1697 में जब अज़ीम-उश-शान बंगाल, बिहार और उड़ीसा का गवर्नर बना तो उसने पटना को दिल्ली की तरह बनाना चाहा। करोड़ों खर्च किए। उसके बाद पटना के सौंदर्य, यहां मिलने वाली सुविधाएं, यहां के रईसों, नवाबों की चर्चा हिंदुस्तान के अनेक रियासतों में होने लगी। जिसकी वज़ह से एक-से-एक नामी गायक-वादक, तवायफ़ें और विद्वान अज़ीमाबाद का रुख करने लगे। हिन्दू और मुसलमानों की मिश्रित आबादी वाले अज़ीमाबाद की शोहरत और रौनक उन दिनों इतनी बढ़ गयी थी कि यह पूरे हिंदुस्तान का अज़ीज़ बन गया था।
ऐसा नहीं था कि पटना में तवायफ़ों का अस्तित्व कोई नई बात थी। गणिकाएं, जिन्हें आज हम तवायफ़ कहते हैं, विकसित शहरी समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं। प्राचीन पाटलिपुत्र में भी नृत्य-संगीत में पारंगत कई गणिकाओं का उल्लेख मिलता है। कोशा, सालवती और चिंतामणि-मौर्य काल की महत्वपूर्ण गणिकाएं रही हैं। तब की राज-नर्तकी सिर्फ नर्तकी ही नहीं होती थी, वरन् तत्कालीन भारतीय समाज में उसकी अपनी प्रतिष्ठा थी, मर्यादा थी। राज्य के महत्वपूर्ण समारोहों में राज महिषी के सामानांतर उसके रथ चलते थे। एक ओर जहाँ वह रसिकों के आकर्षण का केंद्र होती थी वहीं दूसरी ओर अभिजात कुलों के लड़कों की आचार्य भी-क्योंकि वे सभी अनिवार्यतः विदुषी भी होती थीं। उस काल में वे राज्य के लिए आय का जरिया भी बन गई थीं। वे नियमित रूप से सम्राट को करों का भुगतान करती थीं।
गुप्त काल में, जिसे सही अर्थों में भारतीय संस्कृति का स्वर्ण युग कहा गया है, गणिकाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उस काल के नाट्य साहित्य में उनके आवास, विलासपूर्ण जीवन शैली, उनके प्रेमी, उनके यहां आने वाले ग्राहक, विभिन्न कलाओं में उनकी योग्यता, उनके रहने का स्थान, और वे जहाँ से आई हैं, उन्हें राज्य या वहां के रईसों से मिलने वाला संरक्षण, सबों का वर्णन है।
मुग़लकाल में अज़ीमाबाद यानि पटना के जमींदारों, रईसों और नवाबों की छत्रछाया में कला और संस्कृति फलती-फूलती रही। यह पटना के अमन-चैन और तरक्की का दौर था। अज़ीमाबाद न केवल राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था बल्कि व्यापार और कला कौशल में भी अग्रणी था। यह एक लंबे समय तक सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना रहा।
फ्रांसिस बुकानन 19वीं सदी के शुरू के दिनों में पटना आया था। उसने अपनी रिपोर्ट में पटना की तवायफ़ों का जिक्र करते हुए लिखा है, 'पटना में पांच नाचने-गाने वालियों का समूह है। एक समूह में 5-6 लड़कियां होती हैं। इनमें दो हिन्दू हैं, तीन मुसलमान। ये बाई कहलाती हैं। ये सुशिक्षित और नाच-गाने में निपुण होती हैं। इन गाने आमतौर पर प्रेम और श्रृंगार रस के होते हैं। इस वक़्त महताब की बड़ी पूछ है। दुर्गा पूजा के मौके पर उसे कलकत्ता से बुलावा आता है। 15 वर्ष की उम्र में उसे तीन रातों के प्रदर्शन के लिए 1000 रुपये दिए जाते थे।'
बुकानन जब पटना आया था तब महताब 36 वर्ष की थी। उस वक़्त भी रात भर के मुजरे के लिए उसकी फीस 700 रुपये थी। जबकि अन्य दूसरी गायिकाओं की फीस केवल 15 रुपये थी। जितनी अच्छी उसकी गायिकी थी, उतनी खूबसूरत भी थी।
पटना में गानेवालियों की एक लंबी फ़ेहरिस्त रही है जिनमें बड़ी कनीज़, छोटी कनीज़, मोहम्मद बांदी, अल्लाजिलाई, बी रमजू, बी छुट्टन, फ़ैजी, चन्दर, मुंदर, गंगाधरी, विद्याधरी बाई, रामदासी, हैदरजान, तन्नो बाई, फैज़ी और जोहरा बाई जैसी फ़नकारा अपने इल्मोहुनर में बेमिसाल थीं। इनके जलसों में बनारस, इलाहाबाद और आगरे की तवायफ़े अक़सर शामिल होती थीं।
शेर-गो तवायफ़ो में बांदी जान 'नाज', अमीरज़ान 'अमीर', जिया अज़ीमाबादी, अमीरुल निशा और साहिबजान का नाम उल्लेखनीय है। जोहरा बाई भी अच्छी गज़लगो थी। वैसे ठुमरी गाने में वह अव्वल थीं। पटना की रमजो, बी छुट्टन और मोहम्मद बांदी कुशल फनकार थीं। मोहम्मद बांदी संभवत: पटना की पहली तवायफ थीं जिनका ग्रामोफोन रिकॉर्ड बना। उन्हें न केवल टप्पा, ठुमरी, दादरा गाने में महारत हासिल थी, बल्कि वह होरी, चैती और कजरी में भी उतनी ही प्रवीणता से गाती थीं।
पटना लगातार दूसरे शहरों के नामी गायक-गायिकाओं, वादकों और तवायफ़ों को आकर्षित कर रहा था। सैयद बदरुद्दीन अहमद ने अपनी किताब में लिखा है, 'खुदा जाने पटना की रंगीन मिज़ाजों में कौन सी कशिश और यहां की कैसी हुस्नपरस्ती थी जो हुस्न वालों को दूसरी जगह से यहां खेंच लाती थी।'
इलाहाबाद से पटना आ बसी अल्लाजिलाई के बारे में उन्होंने लिखा है, 'अभी 1902 का आगाज़ हुआ था कि एक क़ेताला आल्मे हसीना इलाहाबाद से पटना पहुंची और यहां की रंगीन फिज़ां पर सुबह का सितारा बनकर चमक उठी। अल्लाजिलाई का हुस्न हकीकत में जुनूनअंगेज था। कितने होश वाले हवास खो बैठे। इसका गाना भी गज़ब था। वो हुस्न और मौसिकी दोनों की मलिका थी। आते ही पटना पर छा गई।'
अशोक राजपथ पर चौहट्टा से लेकर पटना सिटी चौक तक के इलाकों में तवायफों के कई कोठे बस गए थे। जोहरा बाई का मच्छरहट्टा में तो अल्लाजिलाई का चौक पर शानदार कोठा था। सैयद बदरुद्दीन अहमद लिखते हैं, 'अल्लाजिलाई ख़ूबसूरत मकान का बालाखाना रानियों और शहजदियों की इशरतगाहों से कम सजा हुआ न था। बेल्जियम कट ग्लास के बने पांच सौ कैंडल पावर वाले रंगबिरंगे झाड़-फानूस, चांदी और हाथी दांतों की बनी दीवारगीरें, सुनहरे और रुपहले फूल पत्तियों से बनी छत, चांदी के फ्रेम में मढ़े बड़े-बड़े आईने, चांदी के गमले और गुलदान, संगमरमर की मेजें और उन पर जरी की कामदार मेज़पोशें, रूमी और ईरानी कालीनें, काशानी मख़मल और जर-निगार पर्दे-ये सभी बेशकीमती चीजें उसने गुज़री के नवाब से हासिल किये थे। अपने कमरे में खूबसूरत तकिये से लगी बैठी हुई अल्लाजिलाई क्लियोपेट्रा की तस्वीर नजर आती थी। '
अल्लाजिलाई बेहद खूबसूरत ही नहीं ठुमरी और दादरा की बेहतरीन अदाकारा भी थी। पटना सिटी के पुराने रसिक 90 वर्षीय विश्वनाथ शुक्ल चंचल (पिछले वर्ष इनका निधन हो गया है) ने एक बातचीत बताया था, 'उसके देह का रंग ऐसा गोरा और अंग-प्रत्यंग इतना कोमल था कि जब वह पान की गिलौरी मुंह में दबाकर उसका पीक घोंटती तो पारदर्शी शीशे की तरह साफ़ गले से नीचे उतरती हुई दिखाई पड़ती थी। ऐसी हुस्नपरी के गले से जब ठुमरी और दादरा के बोल निकलते तो सुनने वाले उस पर मर मिटने को तत्पर रहते। वह साड़ी और सिर में जड़ीदार टोपी पहनती थी। वह हुक्का पीने की शौक़ीन थी। खुशबूदार तंबाकू के चिलम जब उसके हुक्के पर रखे जाते तो उससे उठनेवाले गमकदार धुएं से महफ़िल गमगमा उठती। पटना की कोई ऐसी महफ़िल न थी जहां इसकी मांग न हो। लोग कहते हैं कि अल्लाजिलाई के बगैर महफ़िल और मुजरे सुनसान मालूम होते।'
अल्लाजिलाई का बहुत कम उम्र में ही निधन हो गया। वह 17 वर्ष की उम्र में इलाहाबाद से पटना आई। 20 की होते-होते वह पटना पर छा गई थी और 24 वर्ष की उम्र में उसका निधन हो गया। उसकी मौत से शहर के रसिक और कलाप्रेमी बहुत मर्माहत हुए थे। बदरुद्दीन अहमद ने लिखा है, 'ये मेरे बचपन का जमाना था। लेकिन मुझे याद है कि किस तरह पटना के लोग इसकी मौत से मुतासिर हुए थे। उस वक़्त तो मुझे ताज्जुब होता था कि तवायफ़ की मौत का इस कदर चर्चा कैसा! मगर बाद में यह बात समझ में आई कि उस वक़्त लोगों में इस तरह की बात का चर्चा होना इनके मिज़ाजे-तबियत के मुआफ़िक था। क्योंकि हुस्नपरस्ती का शौक उस वक़्त तक आमतौर पर बुरी निगाहों से नहीं देखा जाता था।'
यह सच था। उन दिनों कुलीन वर्ग अपने बच्चों को शिष्टाचार की तालीम के लिए तवायफ़ों के पास भेजते थे। कोठे अदब और सलीके के मदरसे हुआ करते थे। यहां के सलाम करने, बातचीत करने, बैठने-बिठाने, आवभगत करने, रुखसत करने के तौर तरीके सीखने लायक और अनुकरणीय थे।
अल्लाजिलाई को पटना से पांच मील दूर गंगा नदी के किनारे दफ़नाया गया। पक्की दरगाह के घिरे हुए अहाते के दरवाजे के सामने की ओर अन्य कब्रों से अलग
पत्थरों से बनी हुई ऊंची कुर्सी पर अल्लाजिलाई की मज़ार है। आसपास के लोग बताते हैं कि कभी यह बहुत खूबसूरत हुआ करता था। कब्र के चारो तरफ पत्थर के बेहतरीन जालीदार कठघरे लगे हुए थे। सिरहाने संगमरमर का शमादान भी था। अब ये सब मौजूद नहीं हैं लेकिन मज़ार पर खूबसूरत अक्षरों में लिखा एक कता (Epitaph) अभी भी है।
जोहरा बाई की ठुमरी के बारे में कलामर्मज्ञ गजेंद्र नारायण सिंह अपनी किताब ‘बिहार की संगीत परंपरा' में लिखते हैं, 'ठुमरी गाने में जोहरा अव्वल थी। ‘कहन’ ऐसी दिलकश कि उनकी एक 'बोल' पर ठुमरी के उस्ताद तथा विख्यात हारमोनियम वादक भैया साहब गणपतराव ऐसे लट्टू हुए कि गंडा बंधवाने के लिए अपनी कलाई तक बढ़ा दी। मियां अलीकदर के तबले की ठमक और बहादुर खां की सारंगी की खनक से उनकी ठुमरियों में चार चाँद लग जाते थे।'
मोहम्मद बाँदी के ठुमरी-दादरे का पहला ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड 1902 में बना। 'मोहम्मद बाँदी न केवल ठुमरी और दादरा गाने में माहिर थी बल्कि होरी, चैती, कजरी में भी दखल रखती थीं। भैरवी उनका पसंदीदा राग था। उन दिनों 'भैरवी की महफ़िलें' अलग से हुआ करती थीं जिसमें मोहम्मद बाँदी अपना सिक्का जमाने से नहीं चूकती थीं। उनके बोलो की 'कहन' और 'पुकार' में खिंचाव होता था। अपन ठुमरियों को वह छोटी-छोटी तानों से विशेषकर टप्पे की तानों से सजाती थीं।' गजेंद्र नारायण सिंह लिखते हैं।
'अब न वे दिन रहे न लोग! रईसी गई, तवायफ़्रें भी गईं।' विश्वनाथ शुक्ल चंचल ने आह भरते हुए कहा था। 'अब न कला के कद्रदान रहे न वे कलाकार! अब तो लोगों को यह पता भी नहीं कि शाम ढलते ही कभी चौक का इलाका झाड़-फानूस से जगमगा उठते थे! मोगरे और बेला-चमेली के गजरे और हिना, गुलाब और केवड़े के इत्र की खुशबू से फिज़ां तर हो जाती थी। संगीत की गूंज और घुंघरूओं की रुनझुन से पूरा वातावरण थिरकने लगता था। संगीत के रसिया रईसों और जमींदारों की सजी-संवरी फिटिन और बघ्घियों का ताँता लग जाता था। आज़ादी के बाद जमींदारी ख़त्म हुई और उसके साथ ही संगीत का यह नायाब हुस्न भी जाता रहा। कोठे उजड़ गए। तवायफ़्रें गुमनामी में चली गईं। अब सिर्फ उनके क़िस्से-कहानियां ही बची रह गईं हैं।'