श्यौराज सिंह बेचैन के किताब ज़िन्दगी को ढूँढ़ते हुए : आत्मकथा-2 का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


लम्बा समय गुज़र गया। इस बीच एक पीढ़ी जन्मी और जवान हो गयी, परन्तु एक ब्राह्मण की रसोई का स्वाद है कि मुझे आज भी ऐसा लगता है, जैसे अभी-अभी चखा है। आप जानना चाहेंगे कि वह स्वाद कैसा था?

वाक़या सन् 1986-87 का है। उन दिनों मेरा एक नया-नया मित्र बना था विनोद गोस्वामी। विनोद मेरे कवि रूप का प्रशंसक था और मेरा वही गुण उसके लिए मेरे प्रति आकर्षण और लगाव का कारण था। कविता प्रतियोगिता में विनोद ने भी अपनी एक मौलिक कविता प्रस्तुत की थी। विनोद का सम्बन्ध पाली मुकीमपुर (अतरौली) से भी था। वहाँ उसके बुआ-फूफा थे। मैं माँ के पुनर्विवाह के बाद पाली गया था। मेरे सौतेले पिता और भाई की विनोद से अच्छी जान-पहचान थी। विनोद की अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छी पकड़ थी। तेजसिंह को उसने कुछ दिन ट्यूशन पढ़ाया था।

विनोद एम.एससी. कर रहा था। उसकी माली हालत अच्छी थी। पिता 'नरसैना' गाँव के प्रधान थे। साठ-सत्तर बीघा उपजाऊ ज़मीन वाले विनोद ने मुझसे कहा था, “कोई छोटा-सस्ता कमरा तुम्हारे आसपास मिले तो बताना। मैं तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ। पिताजी अधिक दे सकते हैं। पर मैं माँग नहीं सकता।”

“तब तो कमरा बनियों, ब्राह्मणों में नहीं, भंगी-चमारों, धोबी-कुम्हारों में मिलेगा। अगर तुम अछूतों में रह सको तो मेरे पास आ जाना। संजय वाल्मीकि बस्ती या चुन्नी मोहल्ले में।” वह तो उठा और मेरे साथ ही चला आया। मैंने उसे छोटे-छोटे दो-तीन कमरे दिखाये। मैं सोच रहा था, यह ब्राह्मण-सुत दलित बस्ती में आकर क्यों रहेगा? परन्तु वह तो रिक्शे पर सामान भरकर चुन्नी मोहल्ले में मेरे पास तीसरे दिन ही आ धमका।

मैंने रिक्शे से उसका सामान उतरवाया। शिवचरन का ऊपरी तल का छोटा-सा कमरा ख़ाली था। नीचे जूतों की कारीगरी का काम चलता था। मैंने उनसे कहा, “तुम इस लड़के को अपना कमरा दे दो। किराया बताओ और इसका सामान अन्दर रखवाओ। एक चारपाई ऊपर पड़ी होगी, वह इसे इस्तेमाल करने के लिए दे देना।”

“कितना किराया दे देगा?”

“जो चल रहा हो अपनी बस्ती में, उससे कम नहीं देगा।”

“चालीस रुपये महीने?”

“क्यों नहीं, पूरे चालीस लो।”

“पर एक बात तो बताओ श्यौराज, लड़के का चाल-चलन कैसा है?”

“एकदम शिष्ट सदाचारी, कोई शक नहीं। कोई शिकायत का मौका नहीं देगा।”

“है तो अपनी ही बिरादरी का?”

“नहीं, ब्राह्मण है। पर तुम इसे श्यौराज समझो। इसने जाति की ऊँच-नीच छोड़ रखी है। आप इसे अपनी जाति का मान कर कमरा दो।”

“अरे! श्यौराज तुम भी कैसा मज़ाक़ करते हो? कोई ब्राह्मण-बनिया चमारों के मोहल्ले में आकर रहेगा? और आ भी गया तो यह बहू-बेटियों का घर है। ग़ैर-जाति का विश्वास नहीं और फिर ब्राह्मण तो...।”

“कोई शंका मत करो। मैं गारंटी लेता हूँ। दो-तीन महीने रहेगा, इम्तहान के बाद चला जायेगा। मैं यहाँ रोज सुबह-शाम आऊँगा, तुम्हें कुछ ग़लत लगे तो मुझे बता देना।”

मैं उन्हें आश्वस्त कर चला गया। यूँ विनोद मेरे वैज्ञानिक और तार्किक विचारों से सम्पर्क में आया, जिस प्रकार नया मुल्ला अल्लाह- अल्लाह अधिक करता है। वह भी चुटकी बजाते ही जाति मुक्त चमत्कार कर देना चाहता था। “ले, अब मैं डी-क्लास के साथ-साथ डी-कास्ट भी हो गया हूँ। हम तुम एक ही बर्तन में खाते हैं। अब भी अस्पृश्यता भूतनी बचेगी क्या?”

एक दिन विनोद के पिता पूरनपुरी आ धमके। वे बस्ती में घुसते ही परेशान हो उठे। छोटे-छोटे दड़बेनुमा घर, औरतें, बच्चे सब जूते-चप्पलों की कारीगरी में लगे थे। बच्चे स्कूल नहीं जाते, चूल्हे के लिए लकड़ी, कोयला, कैरोसीन नहीं, औरतें रबर जलाकर खाना बनाती थीं, धुएँ और प्रदूषण की वजह से बीमार रहती थीं। इनके घरों में शौचालय नहीं, शिक्षा-सफ़ाई नहीं, माली हालत गुलामों से भी बदतर। ऐसी हालत तो कदाचित् परतन्त्र देश में अंग्रेज़ों ने ब्राह्मण-बनियों की क्या अपने क़ैदियों की भी नहीं की होगी, जैसी दलितों की दुर्दशा आज़ाद देश की सरकारों और 'वर्ण बौद्धिकों' ने कर रखी थी।

ब्राह्मण पिता ने बेटे को ऐसी बस्ती में रहते देखा, तो वे व्यग्र हो उठे।” चाँद-सी सुन्दर कहलाने वाली चन्दौसी में तुम्हें यह चमारों का नर्क मिला? क्या ऊँची जाति की बस्ती में नहीं रह सकते थे? तुम्हारे लिए किराया तो क्या मैं मकान भी ख़रीद कर दे सकता हूँ और तुम इन... इन चमारों की बस्ती में? यह कोई बस्ती है। यह तो चलती-फिरती लाशों का श्मशान है। यहाँ तो कीड़े-मकोड़ों की तरह ये ज़िन्दा लाशे रेंगती हैं। इनके बीच एक ब्राह्मण का बेटा? कोई सुनेगा, तो हमें जाति बहिष्कृत नहीं करेगा तो क्या करेगा?”

वे तैश में थे-“तुरन्त ख़ाली करो, मैं तो ऐसी बस्ती से होकर गुज़र भी नहीं सकता और तुम यहाँ प्रवास कर रहे हो? क्या तुम ब्राह्मण नहीं हो? इनके और हमारे रहन-सहन का फर्क नहीं जानते हो?”

विनोद ने बताया, “मुझे तुरन्त कमरा ख़ाली कर पिताजी के साथ जाना है। शहर में कहाँ रहूँगा, बाद में बताऊँगा। यह ले किराया पूरे महीने का, मकान मालिक को दे देना।”

दो रिक्शों पर सामान और वे दोनों मुझे जाते हुए दिखाई दिये। मैं दूर खड़ा देखता रहा। क्रोध में होंगे, यह सोचकर मैं अभिवादन करने भी नहीं गया। चार-पाँच दिन बाद विनोद एक लड़की को बग़ल में बैठाये रोडवेज की ओर रिक्शे में जाता हुआ दिखा। वे आपस में एक-दूसरे का हाथ थामे हुए थे। दो-ढाई बजे जब मैं कॉलेज से बाहर आ रहा था, अचानक रिक्शा पीछे मेरे पास आकर रुका और विनोद मुझे रिक्शे की ओर खींचता हुआ बोला,”चल, मेरे कमरे पर चल, मैं वहीं सब बताऊँगा।”

कायस्थान मोहल्ले का यह कमरा काफ़ी भव्य और विशाल था। मैं दलितों की बस्तियों से मन ही मन तुलना कर रहा था। दलितों के घरों से बेहतर तो ग़ैर-दलितों के किचिन-बाथरूम, कुत्ते-बिल्लियों और पशुओं के बसेरे होते हैं? इधर घर में किचिन और बाथरूम अटैच्ड थे। आँगन हवा और सूरज की रोशनी के लिए खुला था। किताबों के लिए दो बड़ी-बड़ी अलमीरा खड़ी थीं, परन्तु विनोद का बिस्तर ज़मीन पर था। उसने चारपाई नहीं ख़रीदी थी। सो, हम कमरे में घुसे और बिस्तर पर पैर पसारकर बैठ गये।

“सुबह रिक्शे में तेरे साथ कोई रिलेटिव थी क्या...” मैंने पूछा।

“हाँ, ऐसा ही मान ले। वह उमा शर्मा थी, मैं उसी के बारे में तुझे बताना चाह रहा था।”

"तेरे निजी मामलों से मेरा क्या लेना-देना?”

“तेरा नहीं, मेरा तो है। मुझे अपने लिए बात करनी है।”

“खुलकर बोल तेरा मसला क्या है?”

मैंने पूछा तो वह बताने लगा, “मेरे पिता ने मेरी शादी बचपन में ही तय कर दी थी, मैं आठवीं में पढ़ता था और वह पाँचवीं में। वह न मेरे मन की और न मेल की। इसलिए मैं उससे शादी नहीं कर सकता।”

"तो फिर किससे करेगा?”

“जिसे तूने मेरे रिक्शे में मेरे साथ देखा।”

“क्या करती है?”

"वह बी.एड. कर रही है।”

“जान-पहचान कैसे हुई?”

“इसके पिताजी ही इसे अपने साथ लेकर आये थे। यह भी 'गँवा' की ही है, बल्कि उसी बस्ती की है। यह भी मुझे चाहती है, परन्तु इनकी माली हालत मेरे कथित ससुर की तुलना में काफ़ी ख़राब है और दूसरे, मेरा रिश्ता पहले ही पक्का हो चुका है।”

“तो इस बारे में तुम अपनी माँ से कहो, वह तुम्हारे पिता को समझा सकती हैं।”

“पिता जी माँ की तो एक नहीं सुनेंगे। हाँ, बुआ की कुछ बात मान लेते हैं।”

“तो चलो बुआ से ही कहते हैं, वे तुम्हारा मसला हल करा देंगी।” और हम चल पड़े बुआ जी के गाँव। जाते समय मैंने मैक्सिम गोर्की की दो-तीन किताबें 'जीवन की राहों पर', 'मेरा बचपन', 'मेरे विश्वविद्यालय', पैंट-शर्ट रखे और पहुँच गये उनके घर| बुआ रामवती आँवला के पास कटसारी गाँव में ब्याही थीं। उनके ‘बबलू' और 'गोपाल' दो बेटे थे। वे काफ़ी समृद्ध परिवार में थीं। बदकिस्मती से वे दो बच्चों के बाद ही विधवा हो गयी थीं। एक सजातीय विधुर के साथ पुनर्विवाह करने का मन बनाया था, परन्तु भाभी की मार्फत भाई का इरादा भाँप कर पाँव पीछे खींच लिया था। विनोद ने मेरा परिचय कराया। वे मुझे अप्रत्याशित ढंग से सुलझी हुई महिला लगीं। जान लेने के बाद भी वे मेरी जाति को लेकर असहज नहीं थीं।

विनोद ने कहा, “बुआ जी, मैं भगवानवती से शादी नहीं करूँगा।”

“तो तुम्हारा आकर्षण उमा के प्रति है। बात कहाँ तक बढ़ी है?” बुआ ने पूछा।

“हम साथ कैसे रहें, केवल इतनी बात हुई है, परन्तु उसके पिता तो मुझे भावी दामाद मान बैठे हैं।" “तुम क्या सोचते हो?” बुआ ने बीच में बात काटी।

“मैं तो उमा से शादी करना चाहता

“श्यौराज, तुम भी कुछ सोच कर बताओ।”

“तुम भगवानवती के घर 'गँवा' जाकर उसके माता-पिता से मिलो और मेरा फ़ैसला सुना आ।”

“मेरा फ़ोटो ले जा और कहना कि विनोद का दोस्त हूँ।”

“अगर उन्होंने कहा कि विनोद से कहलवाओ तो?”

“तुम उन्हें 'गँवा' (क़स्बा) से बाहर बुला लाना, मैं यहीं नदी किनारे बैठा मिलूँगा।”

मैं मानो कृष्ण का सन्देश वाहक 'उद्धव' गोपी को योग सिखाने जा रहा था। विनोद नदी किनारे बैठ गया। मैं उसकी ससुराल पहुँचा। 'मैं विनोद का दोस्त हूँ, तो उन्होंने चारपाई पर बैठा लिया। जाति उन्होंने पूछी नहीं, मैंने बतायी नहीं। वार्तालाप जारी था- "विनोद से आप अपनी बेटी की शादी करने का विचार छोड़ दें। वह अपने मेल की अन्य लड़की को पसन्द करता है।”

“तो विनोद ख़ुद क्यों नहीं आये यह शुभ समाचार सुनाने? 15 साल से हमारी बेटी उनकी पूजाकर रही है। हम हर त्योहार पर दाल, चावल, घी, कपड़े पहुँचा रहे हैं। सारी जाति-बिरादरी जानती है कि मँगनी हो चुकी है।” इतना बोलकर वे चूल्हे में आग फूँकने लगीं।

पण्डित जी डाँटते हुए बोले, “बन्द कर यह खाना पकाना। यह श्रीमान जी हमें बुरी ख़बर दे रहे हैं और तुम इनके लिए खाना बना रही हो!”

“अरे ठीक है, हैं तो यह भी मेहमान ही।” कहते हुए वे उठीं, रसोई से गिलास में दूध लेकर मेरी ओर बढ़ीं, तो उन्होंने गिलास उनके हाथ से छीनकर कहा- “तो ठीक है, हम प्रधान जी से बात करेंगे। आप जा सकते हैं।”

दूध और भोजन तो दूर मैं बिना पानी पिये वहाँ से उठ आया और नदी किनारे पेड़ के नीचे बैठे विनोद को आकर सारा वार्तालाप बताया। परीक्षाएँ पूरी हो गयी थीं, कॉलेज की छुट्टी हो गयी। कई महीने विनोद से मुलाक़ात भी नहीं हुई। फ़रवरी 1988 को विनोद आया। हाल-चाल पूछने पर बताने लगा,

“यार, मेरी शादी तय हो गयी।”

“तुम्हारे पिताजी मान गये?”

“नहीं वे तो नहीं माने, मैं ही मान गया।” कहते हुए उसने शादी का क़ीमती निमन्त्रण कार्ड मेरे हाथों पर रख दिया। “तुम्हें शादी में हर हाल में आना है।”

'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' की तर्ज़ पर मैं अतिरिक्त उत्साहित हुआ। बारात हरी बाबा इंटर कॉलेज में ठहरी थी। कुछ दिन पहले इसी कॉलेज में ज़िला किसान सभा की कार्यशाला आयोजित हुई थी। मैंने उसमें शिरकत की थी। पण्डित की व्यवस्था के अनुसार सुबह चार बजे सप्तपदी (फेरे) थी। विनोद ने मुझे जगाया, “उठ फेरों के लिए जाना है।”

“तो तू जा।”

“नहीं, तू भी मेरे साथ चल।” उसने आग्रह किया और मैं चला गया।

वह विवाह मण्डप में बैठा था और मैं उसके पास दरी पर| दुल्हन ने मुझे खलनायक की तरह पहचाना| सुबह जल्दी उठकर स्नान के लिए हम में से कुछ लोग हरी बाबा गंगा बाँध की ओर दौड़े। तुरन्त नाश्ता देकर दुल्हन विदा की गयी। बारात जब मेरे गाँव के करीब 'सेंजना' पहुँची। तब मैंने बैलगाड़ी रुकवाई और उतर गया।

चार क़दम ही चला था कि विनोद ने आकर मेरी कौली भर ली। “यार मुझे तेरे बग़ैर अच्छा नहीं लग रहा, तू घर तक चल। कल मैं तुझे बस में बैठवा दूँगा। वैसे भी कल कई मेहमान लौटेंगे, किसी के साथ वापस आना। पर आज मैं तुझे नहीं जाने दूँगा। “सारी बारात देख रही थी| मैं विनोद को मना कर रहा था और वह मुझे बैलगाड़ी की ओर खींचे ले जा रहा था। “तुझे मेरी दोस्ती की क़सम! मेरे साथ चलेगा।” सो, मैं बैलगाड़ी में और विनोद सुसज्जित 'फिरक-गाड़ी' में दुल्हन के साथ बैठ गया।

विनोद का गाँव आम सड़क से कटा हुआ था, क़रीब तीन-चार किमी कच्चा रास्ता था। इलाक़ा गंगा की तलहटी का होने के कारण पानी के बहाव से मिट्टी कट गयी थी और रास्ता गहरे नाले जैसा हो गया था। इसे पार करते हुए लग रहा था कि हम किसी सुरंग से गुज़र रहे हैं। आसपास झाड़-झंखाड़, पेड़-पौधे खड़े थे। उनसे ढक जाने के कारण सई-साँझ ही अँधेरा-सा लग रहा था। लड़के नौजवान यहाँ से थोड़ा पैदल चलेंगे तो बैलों को आराम मिलेगा, कच्चे रास्ते में पहिए मिट्टी में धँस रहे थे। मैं पहले कूदकर गाड़ी से बाहर आ गया था। गाँव वालों से बात की, दूर सूअर चरते दिखे। अन्दाज़ा हो गया, यह दलितों की बस्ती है।

कुम्हार तो बायें हाथ पर कच्चे बर्तनों के साथ दिख रहे थे। राह चलते युवक से। यूँ ही पूछ लिया, “कौन-कौन जात हैं इस गाँव में?” “ज़्यादातर तो यादव हैं, वैसे सातों जात हैं- कुम्हार, धोबी, बढ़ई, बामन, बनिया, वाल्मीकि और जाटव तो हमीं हैं। यह बाहरी बस्ती सब जाटवों की ही है।” ये दो क़ौमें जुड़वाँ बहनों की तरह प्रत्येक गाँव के बाहर हाशिये पर बसायी जाती हैं। वह युवक कुछ दूर साथ चलते-चलते बतियाता गया।

“हाँ, ख़बर है 'नरसैना' के प्रधान के बेटे का ब्याह हुआ है, पण्डित लोग हैं। सब मालूम है। उनके छप्पर छाने गये थे हम लोग। हमारे गाँव के दुए पण्डित बरात में गये।” सूरज डूबने के साथ बारात गाँव में लौटी। बाराती अपने-अपने घर जाने लगे। मेहमान हाथ-मुँह धोकर बैठक में पड़ी चारपाइयों पर बैठ गये। बच्चे पानी-शरबत पिलाने और हुक़्क़ों की चिलम भरने लगे। मैं दालान के बाहर बच्चों से बतियाने लगा। उनमें विनोद की छह में से चार बहनें थीं। ख़ुशी का माहौल था।

बहन खाने के लिए बुलाने आ गयी। हम उठे और बहन के पीछे-पीछे चल पड़े। रसोई में सभी मेहमानों को फूल (धातु) की थालियों में खाना परोसा गया। दो-तीन सब्ज़ियाँ बनी थीं। मीठे में खीर थी। पूड़ियाँ देसी घी में तली थीं। “एक पूड़ी और लीजिए-और लीजिए...।” भरपूर आदर और आग्रह के साथ दिल खोलकर मेहमाननवाज़ी की गयी।

“थालियाँ छोड़ दीजिए धुल जायेंगी।”

“बच्चों मेहमानों के हाथ धुलवाओ। नये तौलिये दो और देखो, बैठक में सभी पलंगों पर दड़ियों पर नयी चादरें बिछा दो।”

बैठक में पेट्रोमेक्स जला दिया गया। कैसी बारात रही? बतियाते-बतियाते जाने कैसे विनोद के फूफा श्रीनिवास गोस्वामी बैठक से उठे और विनोद के घर गये। विनोद घर से बाहर आया और मुझे बैठक से उठाकर गली में दूर ले गया।

"क्यों, कहाँ ले जा रहो इस अँधेरे में?” मैंने जानना चाहा। वह मेरे गले से लिपट कर बच्चे की तरह रोने लगा। मुझे लगा, शायद इसकी पसन्द की लड़की से शादी नहीं हो पायी, इसलिए रो रहा है। यदि ऐसा है तो यह जीवन भर का रोना हो गया।

“अब जो होना था, सो हो गया। निभाओ और पढ़ाने-बढ़ाने की कोशिश करो।”

मैं उसे समझाने का प्रयास कर रहा था, परन्तु उसने सुबकते-सुबकते कहा, “यार, मुझे माफ़ कर दे।”

तो मैं चौंका, “किस बात की माफ़ी? कितने प्यार और लगाव के साथ तू मुझे अपने घर लेकर आया है। चौका में बिठाकर खाना खिलाया है। इसमें माफ़ी की क्या बात है?”

“बात है, बड़ी बात है।”

“ऐसी कैसी बात है, जो तुम्हें रुला रही है?” मैंने पूछा तो उसने कहा, “मेरे फूफा ने घर में तूफ़ान उठा रखा है। सारे बर्तन चौके से बाहर फेंक दिये हैं। तूने जिस जगह बैठकर खाना खाया था, उस जगह पर कोयले से गोला खींच दिया है। कह रहे हैं कि यह जगह अपवित्र हो गयी। इस चौके में बैठकर एक अछूत ने खाना खाया है। वह किसी क़ीमत पर क्षम्य नहीं है।”

“लेकिन तुम्हारे फूफा तो वेशभूषा से देखने में बड़े आधुनिक और सभ्य व्यक्ति लगते हैं?”

“हाँ, लगते तो हैं। मुम्बई में भी रह आये हैं, पर अन्दर से हैं बड़े कट्टर। कह रहे हैं कि इस चौके को ही छोड़ दो। दूसरे घर में खाना बनाओ। इस जगह को पहले गंगा जल से धुलवाना है। फिर गोमूत्र छिड़ककर पवित्र करना है। उसके बाद यहाँ अखण्ड पाठ करना है, वग़ैरह-वग़ैरह।”

“तो तुमको क्या लग रहा है?”

"मुझे अच्छा नहीं लग रहा। फूफा कह रहे हैं कि उस अछूत को पकड़कर लाओ और जाति छिपाकर ब्राह्मण के चौके में खाना खाने के दण्ड स्वरूप उसे सभी पाँच-पाँच जूते लगाओ।”

“पर तुम तो मेरी जाति जानते हो। मैंने छिपाई नहीं।”

“वे कह रहे हैं ऋषियों की सन्तान परशुराम के वंशज हैं हम, जिन्होंने 21 बार पृथ्वी क्षत्रियविहीन की थी। यह अस्पृश्य किस खेत की मूली है?”

“तो तुम्हें क्या लगता है? क्या मैं हाथ-पाँव से अपाहिज हूँ? मैं कुछ नहीं करूँगा? तुम एक लाठी मेरे हाथ में दे दो, खुद निपट लूँगा, हिंसक जानवरों से।” मैंने कहा।

तो विनोद बोला, “तेरा तो मर्डर ही हो जायेगा। पिताजी ने बन्दूक लोड कर ली है। यहाँ फूफाजी के अलावा चार बन्दूकें टँगी हैं बैठक में।”

मैंने पेशवाई के बारे में पढ़ा था। पेशवा ब्राह्मण थे। उनके राज में अस्पृश्य बनाये गये लोगों को थूकने के लिए अपने गले में मटकी और कमर में झाडू बाँधनी पड़ती थी। वह व्यवस्था ब्राह्मणों के विधि-विधान के अनुरूप थी और मेरे सामने क्षत्रिय विनाशक ब्राह्मण के वंशज थे। देवों ने समुद्र मन्थन से निकले अमृत को छिप कर पीने वाले दैत्य का क्या हश्र किया था?

"तो क्या मैंने वैसा कुछ किया है?”

“बिल्कुल नहीं, मैं तुम्हारे घर-परिवार सबको जानता हूँ पर इन बूढ़ों का क्या करूँ? ये तो घनघोर जात्याभिमान के नशे में डूबे हैं।”

“अब से पहले तुम्हारे फूफा ने कोई ऐतराज क्यों नहीं किया, यह अचानक कैसे आक्रामक हो उठे?”

“वे समझ रहे थे कि यह लड़का कॉलेज का मित्र है तो ब्राह्मण ही होगा। नहीं तो कोई स्पृश्य तो होगा ही, पर अभी जब तू बाहर था उन्होंने मुझसे पूछा-'यह श्यौराज कौन है?' तो मैंने सहजभाव से बता दिया, आपके ही गाँव पाली में भिकारी लाल जाटव के घर में इसकी माँ थी। यह बहुत अच्छा कवि है छात्र नेता है। किसानों-मज़दूरों में भी वर्षों से काम कर रहा है। “वे तो पलंग से ऐसे उछल पड़े जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो।” तो इसका सम्बन्ध पाली के उन ढेड़ों-चमारों से है? जो हमारे मरे मवेशी उठाते हैं, उनका मांस भून- भूनकर खाते हैं। चर्बी निकालकर बेचते हैं। हमारी सेवा-सफ़ाई के काम करते हैं, औरतें-बच्चे अनपढ़-ज़ाहिल नशेड़ी होते हैं। ये गुलामों से बदतर हमारे जानवरों के गोबर से अन्न निकालकर खाने वाले, उनका बेटा एक ब्राह्मण की पवित्र रसोई में बैठकर यजमान की तरह खाना खाता है! यह विनोद चन्दौसी जाकर किस ग़लत सोहबत में पड़ गया है| जाने क्या डी- क्लास और डी-कास्ट कहना सीख गया है। यह नहीं जानता कि कहाँ ज़मीन, कहाँ आसमान! कहाँ अछूत और कहाँ ब्राह्मण! कहाँ नीच असंस्कृत, असभ्य और कहाँ कुलीन सुसंस्कृत! पवित्र पावन विचार और म्लेच्छ, गन्दे आचार-विचार थू-थू-थू। एक अस्पृश्य को यहाँ भूदेव की तरह जिंवाया। बेशर्मो ! लानत है डूब मरो।”

मैं श्रीनिवास को बचपन से ही पहचानता था। उनकी एक आँख पत्थर की थी। उसका इल्म तो था मुझे, पर उनकी सीरत भी पथरीली होगी, सोचा न था। वे पाली में शायद सबसे अमीर दिखने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने बीच गाँव में सबसे पहले पाँच मंज़िला भवन बनाया था। मैं देखता था, यह कहीं शहर से आते बड़ी-सी मोटरसाइकिल थी, जिसे हम फट-फटी कहते थे और उसके सामने माथे पर एक बड़ा-सा शीशा लगा होता था। वे आँखों पर रंगीन चश्मा चढ़ाया करते थे। हम बच्चे पीछे-पीछे दूर तक भागा करते थे। न जाने कब से दलित क़ौमों के प्रति ऐसी घृणा और विद्वेष भरे बैठे थे? मेरा यह पहला अनुभव था। मैं यहाँ किसी अक्षम्य अपराधी-सा ख़ामोश खड़ा था। कुछ देर पहले विनोद की माँ-बहनें, बुआ, फूफियाँ सब मुझे भैया- भैया, बेटा-बेटा कहकर पुकार रही थीं। जाति जानते ही उन सबको भी मानो साँप सूँघ गया।