सिमोन द बोव्आर की किताब द सेकेंड सेक्स का एक अंश, मोनिका सिंह द्वारा फ्रांसीसी मूल ले ड्यूक्सिएम सेक्स से अनुवादित, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

इतिहास गवाह है कि पुरुष के पास हमेशा से सभी वास्तविक शक्तियाँ रही हैं; पितृसत्ता के शुरुआती दिनों से ही उन्होंने स्त्रियों को निर्भरता की स्थिति में रखना फ़ायदेमन्द समझा है; उनकी आचार संहिताएँ औरतों के विरुद्ध स्थापित की गयीं; वह इस प्रकार ठोस रूप से अन्य के रूप में स्थापित हो गयी थी। इस स्थिति ने पुरुषों के आर्थिक हितों को साधा; लेकिन यह उनके सत्तामूलक और नैतिक ढोंग के अनुकूल भी था। जैसे ही कर्ता स्वयं की पुष्टि करने की कोशिश करता है, तब अन्य उसे सीमित करता है, उसे नकारता है और तब भी यह अन्य उसके लिए अनिवार्य होता है : कर्ता अपनी पूर्णता इसी अन्य के माध्यम से प्राप्त करता है जो वह स्वयं नहीं है। यही कारण है कि पुरुष के जीवन में कभी भी बाहुल्य नहीं है, ठहराव नहीं है, उसमें अभाव और गति है, उसमें संघर्ष है। स्वयं का सामना करते हुए, मनुष्य का सामना प्रकृति से होता है; उस पर उसकी पकड़ है, वह इसे अपने अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। लेकिन प्रकृति उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पायी। या तो वह स्वयं को विशुद्ध रूप से अमूर्त विरोध के रूप में प्रस्तुत करती है, वह एक बाधा है और अजनबी रही है; या फिर वह निष्क्रिय रूप से मनुष्य की इच्छा के अधीन हो जाती है और स्वयं उसके द्वारा समांगीकृत करने की अनुमति देती है; वह उसका उपभोग करके, अर्थात उसका विनाश करके ही उस पर आधिपत्य जमा पाता है। दोनों ही अवस्थाओं में वह एकाकी रहता है; पाषाण युग में भी वह एकाकी था और उस युग में भी, जब वह कन्दराओं में वास करता था और कन्द, मूल, फल के सहारे जीवनयापन करता था। अन्य की उपस्थिति केवल तभी होती है जब अन्य स्वयं अपने लिए उपस्थित होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तविक अन्यता मेरे स्वयं से भिन्न और उसके समरूप चेतना है। यह अन्य मनुष्यों का अस्तित्व है जो प्रत्येक मनुष्य को उसकी सर्वव्यापकता से अलग करता है और जो उसे अपने होने की सच्चाई को पूरा करने, अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त करने में समर्थ बनाता है, स्व का अतिक्रमण करके, वस्तु की ओर पलायन करके, एक परियोजना बना कर वह स्वयं को पूर्ण करता है।

लेकिन यह परायी स्वतन्त्रता, जो मेरी स्वतन्त्रता की पुष्टि करती है, इसके साथ टकराने लगती है। यह दुखी अन्तःकरण की त्रासदी है; प्रत्येक चेतना स्वयं को एक सम्प्रभु कर्ता के रूप में अकेले प्रस्तुत करने का दावा करती है। प्रत्येक दूसरे को ग़ुलाम बनाकर अपने-आपको पूर्ण करने की कोशिश करता है। लेकिन काम और भय में ग़ुलाम भी ख़ुद को आवश्यक अनुभव करता है और, एक द्वन्द्वात्मक उलटफेर से, यह मालिक ही है जो अनावश्यक के रूप में प्रकट होता है। अन्य में प्रत्येक व्यक्ति की मुक्त पहचान से, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को और अन्य को वस्तु के रूप में और पारस्परिक समझौते से कर्ता के रूप में प्रस्तुत करे तो इस चक्र से उबरा जा सकता है। लेकिन मित्रता और उदारता, जो स्वतन्त्रता की इस मान्यता को ठोस रूप से पूरा करती है, सहज प्राप्य गुण नहीं हैं; वे निस्सन्देह मनुष्य की सर्वोच्च उपलब्धि हैं; इसके माध्यम से वह अपने आपको अपने सत्य में पाता है। लेकिन यह सत्य उस संघर्ष का है जिसे लगातार शुरू किया जाता है, लगातार समाप्त कर दिया जाता है; यह माँग करता है कि मनुष्य हर क्षण स्वयं पर विजय प्राप्त करे, अपने अहं-भाव को तिरोहित करे। दूसरे शब्दों में कहें तो इस नैतिक दृष्टिकोण को अपनाने के लिए व्यक्ति को अपने अस्तित्व को भुला देना पड़ता है, स्वामित्व की भावना त्यागनी पड़ती है; इस रूपान्तरण के माध्यम से, वह अपने सारे अधिकार भी त्याग देता है, क्योंकि आधिपत्य जमाना अस्तित्व की खोज का एक तरीक़ा है; लेकिन जिस रूपान्तरण से वह सच्चा ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी समाप्त नहीं होता है, इसे निरन्तर करना पड़ता है, इसके लिए निरन्तर तनाव की आवश्यकता होती है। एकान्त में मनुष्य अपने आप को पूर्ण करने में असमर्थ होता है किन्तु अपने सदृश अन्य मनुष्यों के साथ भी उसके सम्बन्ध निरन्तर संकट में होते हैं। उसका जीवन एक कठिन उद्यम है जिसकी सफलता कभी सुनिश्चित नहीं होती है।

लेकिन मनुष्य स्वभाव से कठिनाइयों से भागता है; वह ख़तरे से घबराता है। वह विरोधाभासी रूप से जीवन और विश्राम, अपने अस्तित्व और उसकी नगण्यता दोनों की आकांक्षा एक साथ करता है; वह अच्छी तरह जानता है कि ‘मन की बेचैनी’ उसके विकास का उधार मूल्य है, वस्तु से उसकी दूरी उसकी आत्म-उपस्थिति की क़ीमत है; लेकिन वह चिन्ता में शान्ति और एक अपारदर्शी परिपूर्णता का सपना देखता है जिसमें चेतना फिर भी स्थित रहेगी। इस स्वप्न का साकार रूप ही स्त्री है; वह पुरुष के लिए अपरिचित प्रकृति के बीच वांछित मध्यस्थ है और जो बहुत-कुछ उसके जैसी है। वह न तो प्रकृति की तरह पुरुष का मौन प्रतिरोध करती है न ही पारस्परिक मान्यता की कठोर माँग रखती है; एक अद्वितीय विशेषाधिकार से वह एक चेतना है, और फिर भी उसकी देह पर अधिकार जमाना पुरुष के लिए सम्भव लगता है। उसकी बदौलत, स्वामी और दास की अटूट द्वन्द्वात्मकता से बचने का एक तरीक़ा मिल जाता है जिसका स्रोत स्वतन्त्रता की पारस्परिकता है।

हमने देखा है कि शुरू में ऐसी कोई मुक्त स्त्रियाँ नहीं थीं जिन्हें पुरुष ग़ुलाम बनाते और लिंग विभाजन ने कभी भी जातियों में विभाजन की स्थापना नहीं की। स्त्री को दासी की संज्ञा देना नितांत भूल है; ग़ुलामों के बीच औरतें थीं, लेकिन स्वतन्त्र स्त्रियाँ भी हमेशा मौजूद रही हैं यानी जिनकी सामाजिक और धार्मिक प्रतिष्ठा थी। वे पुरुष की सम्प्रभुता को स्वीकार करती थीं, पुरुष को उनसे विद्रोह का कोई ख़तरा महसूस नहीं हुआ और वह बदले में औरत को एक वस्तु में बदलने में सक्षम रहा। इस प्रकार औरत अनावश्यक प्रतीत हुई, जो बिना किसी पारस्परिकता के, पूर्णतया अन्य के रूप में, कभी भी आवश्यक की ओर नहीं लौटती। सृष्टि के सभी मिथक इस दृढ़ विश्वास को व्यक्त करते हैं जो पुरुष के लिए अनमोल है, उदाहरण के लिए, उत्पत्ति की किंवदन्ती, जो ईसाई धर्म के माध्यम से पाश्चात्य सभ्यता में क़ायम रहा। हव्वा का सृजन आदम के साथ-साथ नहीं हुआ था; वह न तो किसी भिन्न पदार्थ से बनी थी, न ही उसी मिट्टी से जिसका उपयोग आदम को बनाने के लिए किया गया था। प्रथम नर के पार्श्व को लेकर उसकी रचना की गयी थी। उसका जन्म तक स्वायत्त नहीं था; परमेश्वर ने उसे अनायास ही उसके ख़ुद के लिए उसे नहीं रचा, और बदले में सीधे तौर पर उसका आराध्य बनना नहीं चुना। उसने इसे पुरुष के लिए गढ़ा; आदम के एकाकीपन को दूर करने के लिए ईश्वर ने हव्वा को उसके हवाले कर दिया, वह उसकी पूरक है, फिर भी गौण है। इस तरह से वह पुरुष की इच्छा का शिकार प्रतीत होती है, वह शिकार जिसे विशेषाधिकार प्राप्त है। वह चेतना की पारभासकता के लिए उन्नत प्रकृति है, यह स्वाभाविक रूप से विनम्र चेतना है। और यह वह अद्भुत आशा है जो पुरुष ने प्राय: स्त्री में निहित रखी है, वह स्वयं को सत्ता के रूप में पूर्ण करने की आशा रखता है। कोई भी पुरुष स्त्री होने के लिए सहमत नहीं होगा, लेकिन सभी चाहते हैं कि स्त्रियाँ हों। “औरत बनाने के लिए भगवान का शुक्र है।”

“प्रकृति अच्छी है क्योंकि उसने पुरुषों को स्त्री सौंपी है।” इन और इसी तरह के अन्य वाक्यांशों में, पुरुष एक बार फिर अहंकारी भोलेपन के साथ दावा करता है कि इस दुनिया में उसकी उपस्थिति एक अपरिहार्य तथ्य है और एक स्त्री पर अधिकार, मात्र एक संयोग है; परन्तु यह एक सुखद संयोग है। अन्य के रूप में प्रकट होने के साथ-साथ स्त्री अस्तित्व की उस शून्यता के विरोध में अस्तित्व की पूर्णता के रूप में प्रकट होती है जिसे पुरुष स्वयं में अनुभव करता है; अन्य, कर्ता की दृष्टि में एक वस्तु के रूप में स्थित होने पर भी, स्वयं में, एक अस्तित्व के रूप में स्थित है। वह कमी जो उसके हृदय में विद्यमान है वह सकारात्मक रूप से स्त्री में सन्निहित है और पुरुष ख़ुद को उसके माध्यम से पाकर स्वयं को साकार करने की आशा करता है।

हालाँकि, पुरुष के लिए वह अन्य के एकमात्र अवतार का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी, और इतिहास के विभिन्न चरणों में स्त्री ने हमेशा समान महत्त्व नहीं रखा। जब शहर या राज्य नागरिक पर पूरी तरह से नियन्त्रण कर लेता है, तो वह अपने व्यक्तिगत भाग्य से निपटने की स्थिति में नहीं रह जाता है। देखभाल करने की सम्भावना नहीं रह जाती है। राज्य के लिए समर्पित होने के कारण, स्पार्टा की औरतों की स्थिति अन्य ग्रीक महिलाओं से बेहतर है। लेकिन वे पुरुष के समान स्तर पर नहीं रहीं। नेता का पन्थ, चाहे नेपोलियन हो, मुसोलिनी हो, हिटलर हो, किसी भी अन्य पन्थ की गुंजाइश नहीं छोड़ता। सैन्य तानाशाही और अधिनायकवादी शासन में, स्त्रियाँ अब एक विशेषाधिकार प्राप्त वस्तु नहीं हैं। यह समझ में आता है कि एक समृद्ध देश में स्त्रियों की पूजा की जाती है, जिनके नागरिक वास्तव में नहीं जानते कि उनके जीवन को क्या अर्थ देना है। अमेरिका में यही हो रहा है। दूसरी ओर, समाजवादी विचारधाराएँ वर्तमान समय से लेकर भविष्य तक, सभी मनुष्यों को समावेशित करने का आह्वान करती हैं, इस धारणा को ख़ारिज करती हैं कि कोई भी मानव वर्ग वस्तु या मूर्ति हो। मार्क्स द्वारा घोषित प्रामाणिक लोकतान्त्रिक समाज में, अन्य के लिए कोई जगह नहीं है। हालाँकि, कुछ ही लोग उस सैनिक या उग्रवादी से एकमत हैं जिसे उन्होंने चुना है; जब तक ये पुरुष व्यक्ति बने रहते हैं, तब तक स्त्री उनकी दृष्टि में एक विलक्षण मूल्य रखती है। मैंने जर्मन सैनिकों द्वारा फ्रांसीसी वेश्याओं को लिखे गये पत्र देखे हैं, जिनसे साबित होता है कि नाज़ीवाद के बावजूद रूमानियत अपनी सरलता में सार्वकालिक है। फ्रांस में आरागॉन, इटली में विटोरिनी जैसे साम्यवादी लेखक अपनी रचनाओं में स्त्री, प्रेमी और माँ को प्रमुख स्थान देते हैं। शायद एक दिन स्त्री का मिथक ख़त्म हो जायेगा। औरतें जितना अधिक ख़ुद को मनुष्य के रूप में स्थापित करती हैं, उतना ही उनके भीतर अन्य की अद्भुत गुणवत्ता मर जाती है। लेकिन यह मिथक आज भी सभी पुरुषों के दिलों में मौजूद है।