शिरीष खरे की किताब एक देश, बारह दुनिया का एक अंश, राजपाल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
‘‘तुम भटकते यहां पहुंचे हो तो लौटने के लिए तुम्हारे दिमाग में कोई घर घूम रहा है! हमारे दिमाग में कोई घर नहीं घूमा करता था।’’ समझ नहीं आया कि यह बात कहते हुए भूरा गायकवाड़ ने मुझसे पूछा था, या फिर वे अपनी धुन में थे।
सर्द हवा और दुर्गम पगडंडियों से होकर मैं एक मोहल्ले पहुंचा था, जिसकी मुझे मुंबई से तलाश थी, जिसे न तो कभी देखा था और जिसके बारे में न ही पहले कभी सुना था। वहां जगह का नाम बताने वाला कोई बोर्ड तो लगा नहीं था, फिर भी एक घुमावदार मोड़ के बाद सतीश ने गाड़ी रोककर ज्यों ही कहा, ‘उतरो’ तो बस्ती देखकर ही समझ गया। और समय के दस-बारह साल आगे तक वहां बिताएं कई घंटे कई दिन बन मेरी स्मृतियों के जमघट में ठहरे हुए हैं, एक कहानी की तरह...
...और फिर पलक झपकते ही लगा गिरे धड़ाम से!
नहीं, हम नहीं हमसे कुछ कदम आगे एक गड्ढे के पास साइकिल पर सवार दो बच्चे औंधे मुंह गिरे। यह देख सतीश ने तुरंत पूरी ताकत से ब्रेक पर पैर दबा दिया। एक जोरदार झटके के बाद मोटर-साइकिल रुकी। मैं उतरकर तब तक उन बच्चों के नजदीक पहुंचता, वे झटपट कपड़ों से धूल साफ करते हुए खड़े हो गए। दोनों के खिलखिलाकर उठ जाने से लगा शायद उन्हें ज्यादा चोट नहीं लगी है! एक ने साइकिल उठाई और दूसरे ने पेड़ के पास गिरा बड़ा-सा गंज। वे फटाक से साइकिल पर बैठे तो मैंने पीछे से साइकिल को धक्का दे दिया।
बच्चे मुस्कुराते अपने-अपने हाथ हिलाते बेधड़क चल पड़े। इस बीच भड, भड, भड, भड की तेज आवाज करती एक बुलेट गड्ढे के बाजू से यूं गुजरी जैसे यह भी बस गिरी ही। फिर हमारी मोटर-साइकिल उन बच्चों की साइकिल से कुछ आगे बढ़ी और मैंने पीछे मुड़कर दोनों बच्चों की मुस्कराहटों का जवाब अपनी मुस्कराहट से दिया। दूरी को कोई मोटर-साइकिल तो कोई साइकिल से पाट रहा होता है। लेकिन, कई बार अच्छा लगता है ऐसी पगडंडियों पर मिले और साथ चल रहे लोगों की मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से देने में। और मुझे ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जो पगडंडियों से हाथ हिलाते हुए दिलों में उतर जाते हैं। इन्हीं के सहारे ही तो मैंने वर्तमान से अतीत और अतीत से वर्तमान की न जाने कितनी पगडंडियों पर सवारी की है।
आज चार फरवरी दो हजार दस को हमारी सवारी जा रही है कनाडी बुडरुक गांव की ओर। यह गांव महाराष्ट्र में बीड़ जिले के कलेक्टर कार्यालय से कोई सवा सौ किलोमीटर दूर है। लेकिन, हम कोई सवा सौ किलोमीटर दूर सीधे बीड़ शहर से नहीं आ रहे हैं। हमने तो कोई पच्चीस किलोमीटर का फासला तय करने के इरादे से एक ठंडी सुबह आठ बजे ही वडा पाव खाकर आष्टी कस्बा छोड़ा है। फिर भी पच्चीस किलोमीटर की दूरी सौ किलोमीटर की दूरी पर कही भारी पड़ गई है। कैसे?
ले-देकर कोलतार की एक नाममात्र की सड़क और उसने भी आधे रास्ते साथ छोड़ दिया। फिर लोग अपनी सहूलियत से एक के बाद एक उबड़-खाबड़ और आड़ी-तिरछी पगडंडियां पकड़ बढ़ रहे हैं। ऊंचे-नीचे खेतों से होकर हमारी मोटर-साइकिल एक साइकिल की सी गति से यूं हिचकोले खाने लगी मानो अब गिरी कि तब गिरी। बहकी-बहकी मोटर-साइकिल चला रहे सतीश ने मुझे आगाह किया, ‘‘आराम से बैठना भाऊ!’’
भूरा गायकवाड़ कुछ-कुछ बता रहे थे जिसे मैंने आडियो में रिकार्ड किया-
‘‘भाऊ, दादा बोल रहे हैं पहले हमारी जिंदगी एक तमाशे से ज्यादा कुछ न थी!’’ और फिर सतीश भूरा गायकवाड़ के बताए एक-एक शब्द का मर्म दोहराने लगा। वह दोहराता है कि पहले कैसे ये नंदी बैल का खेल दिखाकर लोगों का दिल बहलाते थे, बदले में खुशी से जिसने जितने पैसे फेंके उन्हें उठाते और उनसे अपने बाल-बच्चों का पेट पालते, लेकिन इससे ये बामुश्किल अपनी भूख ही मिटा पाते थे। नंदी बैल पर महादेव शंकर की मूर्ति लेकर गांव-गांव और शहर-शहर घूमते थे। घर, दुकान, गली-गली भटकते थे। फिर भी न खाने का कोई ठौर था, न पीने के पानी का ठिकाना। इन्हें तो बस्ती वाले किसी एक जगह ज्यादा दिन ठहरने भी न देते थे, इसलिए इनके घर न थे, ये एक जगह रुके ही नहीं तो स्कूल का मुंह कैसे देखते, इसलिए न ये पढ़ सके और न इनके बड़े-बूढ़े पढ़ सके।
भूरा गायकवाड़ दो दशक पुरानी संघर्ष की इस कहानी के प्रमुख सूत्रधार हैं और सतीश को तो इनके सुख-दुख के हर किस्से मुंहजुबानी याद हैं। हो भी क्यों न, क्योंकि कोर्ट-कचहरी में जब जरुरत पड़ी तो सतीश ने हमेशा इनके अधिकारों के लिए पैरवी की। सतीश का पूरा नाम एडवोकेट सतीश गायकवाड़ है। मेरा हमउम्र सतीश इस इलाके में वंचित समुदायों के हक-हकूक के लिए आवाज बुलंद करने वाले वाल्मीक निकालजे की संगठन ‘राजर्षि शाहू ग्रामीण विकास प्रकल्प’ का कार्यकर्ता है।
सदियों से नंदी बैल तिरमली घुमन्तू जनजाति के जीने का आधार रहा है। ये बैल लेकर जहां-तहां घूमते रहते हैं, इसलिए घुमन्तू जनजाति के तिरमली को आमतौर पर लोग बंजारा भी कह देते हैं। इसीलिए जाति की सूची में ‘घुमन्तू’ और ‘बंजारा’ दो अलग-अलग श्रेणियां होने के बावजूद मैं तिरमली को कहीं-कहीं बंजारा कह रहा हूं। खैर, भारत की जाति-व्यवस्था में तिरमली की तरह कई घुमन्तू समुदाय हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी दूसरों का मनोरंजन करते रहे हैं। बदले में इनके सामने कुछ सिक्के फेंक दिए जाते हैं।
जाहिर है कि इस व्यवस्था में इन्हें मजदूरी के लिए भी जगह नहीं। कहा जाता है कि तिरमली बंजारों ने कोई आठ सौ साल पहले आंध्रप्रदेश से महाराष्ट्र के पुणे, सतारा, सांगली, कोल्हापुर, जलगांव, औरंगाबाद और बीड़ जैसे शहरों की ओर पलायन किया था। नंदी बैल पर गृहस्थी लटकाना और गाना-बजाना तिरमली बंजारों की पहचान रही है। इसके अलावा, तिरमली महिलाएं चूड़ियां और जड़ी-बूटियां बेचती आई हैं। लेकिन, इनका यही अतीत इनके वर्तमान के सामने पहाड़-सा आकर रास्ता रोक रहा है।
वजह, आज के बदलते दौर में एंड्रॉइड मोबाइल, एलसीडी टीवी और एफएम रेडियो ने जब मनोरंजन के परंपरागत साधनों की जगह ले ली है तो तिरमली बंजारों को अब कौन पूछे! ऐसे में इनके लिए स्थायी आवास की सबसे ज्यादा जरुरत है, पर बंजारे अपने ही देश में परदेसी की तरह रह रहे हैं, जिन्हें समाज ने आज तक न सही स्थान दिया है और न उचित मान-सम्मान। घर, बिजली, पानी, राशन, स्कूल और अस्पताल कौन नहीं चाहता! लेकिन, इनके चाहने भर से ये सब नहीं मिल जाता है।
आमतौर पर सरकार को इनकी नागरिकता का सबूत चाहिए होता है, एक ऐसे कागज के टुकड़े पर जो सिद्ध करता हो कि वे कहां रहते हैं। अपढ़ बंजारे कभी कागजों से नहीं जुड़े, घुमन्तू परिवार कौन-सा कागज लाकर अफसर के सामने सिद्ध करें कि उनका घर यहां हैं! इसलिए, आमतौर पर इनके पास राशन, मतदाता, पेन, आधार जैसे सिविल सोसाइटी की पहचान बताने वाले नंबर या कार्ड नहीं होते।
लिहाजा, अकेले महाराष्ट्र में इनकी कुल आबादी का सही-सही आकड़ा सरकार भी दावे से नहीं कह सकती। सरकार के लिए तो ऐसी खानाबदोश जनजातियां सदा ही अदृश्य रही हैं। ऐसे में मराठवाड़ा के इस अंचल में तिरमली नाम से एक मोहल्ला होना अपनेआप में किसी सुखद समाचार है।
जरुर ही इस मोहल्ले को मेरे आने की इत्तला दी गई होगी, फिर भी आसपास कुछ लोग हैं जो ताज्जुब से मुझ अजनबी को देखे जा रहे हैं। चाय-पानी से फुर्सत होकर जैसे-जैसे तिरमली मोहल्ले में समय बीता और मोहल्ला देखने की जिज्ञासा हुई तो लोगों से मिलने घर-घर जाना हुआ। इस दौरान एक विशेष बात नजर आई। बात यह कि घास-फूस और मिट्टी से बनीं छोटी झोपड़ियों के मुंह यानी मुख्य दरवाजे एक-दूसरे के आमने-सामने।
मैंने देखा कि इनकी ये झोपड़ियां एक-दूसरे के बेहद नजदीक या कह लीजिए कि आपस में सटी हुई हैं। ये तिरमली बंजारों की आपसी सहभागिता की झलक हैं। साथ ही मिलनसार जीवनशैली की सूचक हैं। मोहल्ले की गलियां, संकरी, सपाट और साफ-सुथरी हैं। इसी समय बच्चे हेंडपंप से पानी भरते हुए हंसते नजर आए। लोगों की सादगी ने सुदंरता का रुप धर लिया।
झोपड़ियां के पीछे मुझे कुछ और झोपड़ियां दिखीं, अंदर जाकर देखा तो ये भी हू-ब-हू वैसी ही और उतनी ही बड़ी-बड़ी झोपड़ियां हैं, अंतर है तो बस इतना कि ये गाय, कुत्ते और बकरियों के रहने के लिए हैं। मेरे जैसे आदमी को बड़ी हैरत हुई कि इनके लिए सबका बराबर महत्त्व है। यह मोहल्ला इस बात की मिसाल है कि तिरमली बंजारे इंसानों और पशु-पक्षियों में कोई भेद नहीं रखते।
असल में इनका जीवन समूह का जीवन है। इनकी सामाजिकता किताबों में नहीं मिलेगी, यह तो इनकी दिनचर्या में शामिल है, देखना है तो इनकी झोपड़ियों में बैठकर यहां से देखा जा सकता है।
‘‘यहां पचास से ज्यादा झोपड़ियां हैं, हम कोई साढ़े तीन सौ लोग हैं।’’ यह बात मैंने बाबू फुलमारी से जानी। हम दोपहर के भोजन के समय इन्हीं की झोपड़ी में आ बैठे, जहां विशेष तौर पर बाजरा की भाखरी के साथ बेसन का पेटला हमारे सामने परोसा गया और जिसे चाव से खाते हुए बातों-बातों में मैंने जानना चाहा तो बाबू फुलमारी ने मुझे बताया कि अठारह साल की उम्र के हर आदमी का नाम मतदाता-सूची में शामिल है। नौ पंचों वाली ग्राम-पंचायत में एक पंच इनका है। मोहल्ले सभी बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं।
इन दो दशकों में कुछ ने पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी तक पा ली है। हर परिवार के पास राशन-कार्ड हैं। ये अब अस्पताल सहित कई सरकारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। इनकी माली हालत बहुत अधिक सुधर गई हो तो ऐसा नहीं है। लेकिन, इसमें नया भी कुछ नहीं है। देश के करोड़ों लोगों की तरह यह एक अति सामान्य बात लग सकती है। फिर भी नया तो है ही। नया यह है इनकी दुनिया बेबसी के परंपरागत जाल से मुक्ति पा चुकी है। यह क्या कम असाधारण बात है कि मौजूदा पीढ़ी अब बाकी सामान्य जन की तरह अच्छे भविष्य का सपना संजो रही है!