ज्ञान प्रकाश की किताब आपातकाल आख्यान: इन्दिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा का एक अंश, अनुवादक मिहिर पंड्या, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
दिल्ली में 19 अप्रैल, 1976 के दिन परकोटे के भीतर विद्रोह भड़क उठा। इसकी शुरुआत सुबह 8:30 पर ‘दुजाना हाउस’ के पास भीड़ इकट्ठा होने से हुई। दिल्ली की मशहूर जामा मस्जिद से कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित ‘दुजाना हाउस’ आवासीय घरों की इमारत था जिसके आगे बड़ा अहाता था। इसी अहाते के सिरे पर एसबेस्टस शीट की छत वाला एक छोटा सा ढाँचा खड़ा था, जिसके ऊपर लिखा था ‘परिवार नियोजन कैम्प’। मुस्लिम बहुल आबादी वाले इस इलाक़े की इसी इमारत के तहख़ाने में डॉक्टर और नर्स लोगों की नसबन्दी कर रहे थे। जनसंख्या नियंत्रण के लक्ष्य हासिल करने के लिए चलाए जानेवाले इसी नसबन्दी अभियान को आगे जाकर आपातकाल की सबसे कुख्यात पहचान बनना था।
दिल्ली का परकोटे के भीतर का पुराना शहर हमेशा से ऐसा नहीं था। शहंशाह शाहजहाँ द्वारा सत्रहवीं सदी में सल्तनत की राजधानी के तौर पर बसाया गया शाहजहाँनाबाद एक वक़्त मुग़ल साम्राज्य की शान हुआ करता था। यमुना के तीर पर निर्मित प्रभावशाली लाल क़िला अपने शाही दरबार, ख़ूबसूरत महलों और आलीशान ज़नानख़ानों के साथ मुग़लिया शान-ओ-शौकत और संस्कृति का केन्द्रबिन्दु हुआ करता था। लाल क़िले के ठीक सामने चाँदनी चौक था, शहर का सतत चलायमान आर्थिक केन्द्र। और उसके आगे थी लाल पत्थर और सफ़ेद संगमरमर से बनी, अपने नफ़ीस गुम्बद और गगनचुम्बी मीनारों से पहचानी जानेवाली जामा मस्जिद। रिहाइश के लिए यहाँ खुले दालानों वाले हवेलियाँ और प्रासाद थे, जिन तक ख़ूबसूरत मेहराबदार रास्तों से पहुँचा जा सकता था। पूरे शाहजहाँनाबाद को तक़रीबन छह किलोमीटर लम्बाई में चौड़े और ऊँचे पत्थर से चुने परकोटे ने घेरा हुआ था। इस परकोटे में कुल चौदह दरवाज़े थे। परकोटे के भीतर का शहर शाही संरक्षण के अधीन था। मुग़ल इतिहासकारों और उस दौर में आए विदेशी सैलानियों ने शाहजहाँनाबाद की आर्थिक समृद्धि और सुघड़ हस्तकला की ख़ूब प्रशंसा की है। वे शाहजहाँनाबाद के शायरों, संगीतज्ञों और चित्रकारों को दिल देते रहे और उनके बयान में एक ज़िन्दा धड़कते शहर का पता मिलता रहा।
लेकिन इतिहास ने इसकी क़ीमत वसूली। अगर आप इसके तीन शताब्दी बाद 1970 के दशक में शाहजहाँनाबाद से कुछ दक्षिण का रुख़ करें तो आपको चौड़े राजमार्ग मिलेंगे, जिनके किनारे जामुन और नीम के पेड़ों की व्यवस्थित छाँवदार क़तार लगी होगी। इन्ही राजमार्गों के किनारे बने शानदार बँगलों में उस समय के सत्ता अधिकारी रहते थे। यह थी ‘नई दिल्ली’ – एडविन लुटियंस की रची ब्रिटिश सल्तनत की राजधानी दिल्ली, जहाँ से अब उत्तर औपनिवेशिक सरकार का सिक्का चलता था। यहाँ सड़कें साफ़-सुथरी थीं और हवा स्वच्छ। यहाँ से होकर परकोटे वाले शहर में घुसना कुछ ऐसा था जैसे राजसी आधुनिकता के राजमार्ग से निकलकर कोई आधुनिकता पूर्व के मुग़लिया सल्तनत के किसी शहर में आ पहुँचा हो। एक ही शहर की बनावट में ऐसे मूलभूत अन्तर यूरोपियन उपनिवेशों के कई और शहरों में भी देखे जा सकते थे। उदाहरण के लिए अल्ज़ीरियर्स जिसमें फ़्रांसीसी नौसेना भवनों के चौड़े रास्तों के बरअक्स अल्ज़ीरियन क़स्बे की भूलभुलैया गलियाँ थीं।
शाहजहाँनाबाद के चेहरे पर वक़्त के थपेड़ों के निशान साफ़ नज़र आते थे। कभी शान-ओ-शौक़त से रही हवेलियों को अब रिहाइशी मंज़िलों में बाँट दिया गया था, जिनमें ग़रीब-गुरबा आबादी भरी थी। दीवारों से पलस्तर झड़ रहा था, अहातों में झाड़-झंखाड़ उग आए थे और उनमें बेकार का कबाड़ इकट्ठा हो रहा था। बढ़ती आबादी के दबाव के चलते पुरानी नफ़ीस इमारतों में यहाँ-वहाँ पैवन्द सी दिखती चिपकाई हुई मंज़िलें और अतिरिक्त कमरे जोड़ दिये गए थे, जिसने एक दौर में रची गई नायाब मुग़लिया वास्तुकला का हुलिया बिगाड़ दिया था। इन्हीं ध्वस्त होते गलियारों और टूटती छज्जे की दीवारों के बीच ढेर सारे ज़हरीला धुआँ उगलते जुगाड़ू कारख़ाने भी काम कर रहे थे। पूरे शाहजहाँनाबाद में झुंड के झुंड गाड़ियों के कलपुर्जे बेचने वाली दुकानें और मालगोदाम, प्राय: जिनकी ज़ंग लगी टीन की छत होती और आगे लोहे का शटर गिरा होता, ऐसे बिखरे थे जैसे किसी नज़ाकत से भरे मुग़लिया मोहल्ले में कोई बदतमीज़ आधुनिकता का सिपाही डंडा लेकर घुस आया हो। गली-कूचे सदा रेहड़ीवालों, छोटे दुकानदारों, रिक्शे और ठेलेवालों की रेलमपेल से पटे रहते और उनमें चार क़दम चलना तक असम्भव हुआ जाता। पूरा इलाक़ा जैसे दमघोंटू भीड़ में गले तक डूबा हुआ था। पर इतना सब होते हुए भी हमें यह नहीं समझना चाहिए कि परकोटे के भीतर का शहर एक उदास जगह था। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि आज़ादी के बाद के उस दौर के निवासियों के लिए निजता का हनन या भीड़भाड़ ख़ुश न रहने के पैमाने नहीं थे। “ग़म की बात तो तब होती, जब किसी को शहर की सरहद से बेदख़ल किया जाता। उन्हें जाना नहीं था शहर छोड़, उसके उपनगर भी नहीं।” यह थी सत्तर के दशक की परकोटे के भीतर की पुरानी दिल्ली – जिसमें भले ही कितनी भी भीड़भाड़ हो और नागरिक सुविधाओं की अनुपस्थिति हो, एक ज़िन्दा धड़कता शहर जिसमें बड़ी संख्या में मुस्लिम (पर सिर्फ़ मुस्लिम नहीं) निवासियों की रिहाइश थी और गुरबत का साया नज़दीक होते हुए भी ज़िन्दगी के लिए मुसलसल संघर्ष था।
इसी ज़िन्दा धड़कते शहर के बीचोबीच बसा था ‘दुजाना हाउस’ का वो अहाता जिसमें स्थित ‘परिवार नियोजन कैम्प’ नई दिल्ली के सत्तातंत्र के नुमाइन्दे की तरह खड़ा था। इस कैम्प को चला रही थीं रुख़साना सुल्ताना। वे वहाँ की स्थानीय निवासी नहीं थीं, बल्कि उनका निवास तो दक्षिण दिल्ली में था। उन्हें संजय गांधी ने पुरानी दिल्ली भेजा था। बताया जाता है कि आपातकाल की घोषणा के बाद ख़ुद रुख़साना ने आगे बढ़कर संजय गांधी से बात की थी और उन्हें अपनी सेवाएँ पेश की थीं। फिर एक बार साम्राज्यवाद के समय की कथा दोहराई जा रही थी। शहर के ‘मूल निवासियों’ वाले हिस्से को फिर एक बार ‘गोरों के हिस्से’ वाले शहर द्वारा नियंत्रित किया जा रहा था, सताया जा रहा था। अब उसी लुटियंस दिल्ली में उत्तर औपनिवेशिक दौर के नियंता का निवास था और उसने तय किया कि पुरानी दिल्ली की मुस्लिम महिलाओं को बुर्का हटाने और अपने पतियों को नसबन्दी के लिए मनाने वाला रास्ता दिखाने के लिए रुख़साना सुल्ताना सही इनसान रहेंगी, क्योंकि एक तो वे महिला हैं और दूसरा कि वे ख़ुद मुस्लिम हैं। पर सच्चाई ये थी कि रुख़साना मुसलमान बाद में बनी थीं। हिन्दू पिता और मुस्लिम माँ की सन्तान रुख़साना का तरुणाई के दिनों में नाम मीनू बिम्बेट था। जब उनके माता-पिता की शादी टूटी, उनकी माँ वापस अपने पीहर लौट आईं जहाँ ‘मीनू’ को ‘रुख़साना’ की नई पहचान मिली और साथ ही अपने नाना की बड़ी जायदाद में हिस्सा भी। रुख़साना ने एक सिख फ़ौजी अफ़सर से शादी की। दिल्ली के चर्चित ठेकेदार सर शोभा सिंह उनके पति के दादा थे। जब रुख़साना की शादी टूटी तो उन्होंने गहनों और जवाहरातों का बुटीक शुरू किया और एक उच्चवर्गीय सोशलाइट के तौर पर जानी जाने लगीं। हमेशा शिफ़ॉन साड़ी में सजी-धजी, नाक की नथ पर जड़ा झिलमिलाता हीरा, गले में मोतियों का हार और आँखों पर बड़ा स्टाइलिश चश्मा, ख़ुशबू से महकती सम्मोहक रुख़साना उस पारम्परिक मुस्लिम रिहाइश के बीच बिलकुल भिन्न नज़र आतीं। लेकिन उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था।
अपने अभियान पर फ़ौरन जुटते हुए रुख़साना 1975 के आख़िरी दिनों में ही परकोटे के भीतर की पुरानी दिल्ली के चक्कर लगाने लगी थीं। उनके साथ पुलिस होती और युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता होते। इस लवाज़में के साथ वे पुरानी दिल्ली के गली-कूचों में घूमतीं और संजय की योजनाओं का प्रचार करतीं। जल्द ही उनकी छवि एक ‘पहुँच वाली महिला’ की बन गई थी। पुरानी दिल्ली के वृद्ध निवासी भी तीस की उम्र से कुछ बड़ी इस रसूख़दार महिला से अपनी गुहार लगाया करते, जिससे वो सत्ता प्रतिष्ठान से उनके अटके काम निकलवा दे। लेकिन रुख़साना का ध्यान तो अपने उस्ताद के जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के प्रचार में अटका था। जो भी उनके पास मदद माँगने के लिए आते, वे उनसे बदले में नसबन्दी अभियान में भागीदारी करने के लिए कहतीं। संजय के नसबन्दी अभियान का रुख़साना द्वारा ऐसा पुरज़ोर प्रचार जामा मस्जिद के इमाम मौलाना सैयद अहमद बुख़ारी को रास नहीं आया और उन्होंने अपने प्रवचनों में रुख़साना को कोसना शुरू कर दिया। रुख़साना भी कहाँ चुप बैठने वाली थीं। उन्होंने 15 अप्रैल, 1976 को ‘दुजाना हाउस’ में ‘परिवार नियोजन कैम्प’ का आरम्भ करवा दिया, जिसका उद्घाटन दिल्ली के उप-राज्यपाल कृष्ण चन्द ने किया और जिसके सबसे ख़ास मेहमान ख़ुद संजय गांधी थे। पुलिस और प्रशासन रुख़साना की मुट्ठी में था और ‘दुजाना हाउस’ के इस कैम्प से महिलाओं और पुरुषों की नसबन्दी अंजाम दी जाने लगी। अपमान के दरिया का बाँध टूटने लगा।
19 अप्रैल की सुबह बहुत सारी बुर्केवाली महिलाओं की भीड़ ‘दुजाना हाउस’ के आगे इकट्ठा होने लगी। वे नसबन्दी अभियान के ख़िलाफ़ नारे लगा रही थीं। इससे पहले इमाम बुख़ारी भी जामा मस्जिद से प्रसारित अपने सार्वजनिक प्रवचन में नसबन्दी अभियान की कड़ी आलोचना कर चुके थे और उम्मीद की जा रही थी कि वे भी ‘दुजाना हाउस’ के बाहर आकार ले रहे इस विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बनेंगे। नसबन्दी के लिए ले जाए जा रहे पुरुषों से भरी एक वैन को तभी कुछ महिलाओं ने घेर लिया। उधर पुलिसवाले हड़बड़ी में महिलाओं के उस समूह को गाड़ी से परे ठेलने की कोशिश कर रहे थे, इधर जबरन नसबन्दी के लिए ले जाए जा रहे मर्द नज़र बचाकर निकल भागे। तमाशबीनों की भीड़ ये नज़ारा देखकर हँसी-ठट्ठा करने लगी। पुलिसवाले ये देखकर भड़क गए और वैन के आगे से हटने से इनकार करने वाली एक महिला को उन्होंने गिरफ़्तार कर लिया। दूसरी महिलाओं ने ऐसा होता देखकर रुख़साना को घेर लिया। बड़ी मुश्किल से उन्हें वहाँ से निकाला गया, वो भी पुलिस की मदद से। जब तक अतिरिक्त पुलिस सैन्य बल पहुँचता, विरोध प्रदर्शन बहुत बढ़ चुका था। स्थानीय निवासी अपनी छतों और चबूतरों पर खड़े होकर प्रदर्शनकारियों का मनोबल बढ़ा रहे थे।
माहौल में ग़ुस्सा था। तभी पास के तुर्कमान गेट से ख़बर आई कि दिल्ली प्रशासन द्वारा जारी अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत वहाँ लोगों के मकान और दुकानें गिराई जा रही हैं और इसके ख़िलाफ़ वहाँ के निवासी प्रशासन का घेराव कर रहे हैं। इस ख़बर ने आग में घी का काम किया। लोग पुरानी दिल्ली की सँकरी गलियों से होते तुर्कमान गेट की ओर भागे। वहाँ पहुँचे तो देखा कि तुर्कमान दरवाज़े पर नीले गुम्बद वाली फ़ैज़-ए-इलाही मस्जिद के पास पाँच सौ के क़रीब लोगों की भीड़ पहले से जमा थी जिसमें पुरुष, महिलाएँ और बच्चे शामिल थे। उनमें से कई ने इस अतिक्रमण हटाओ अभियान के ख़िलाफ़ अपना विरोध प्रदर्शन करने के लिए हाथ पर काले पट्टे भी बाँध रखे थे। प्रदर्शनकारियों की इस भीड़ को हथियारों से लैस विशालकाय पुलिस बल ने चारों ओर से घेर रखा था। ‘दिल्ली विकास प्राधिकरण’ (डीडीए) के बुलडोज़र पुलिस के ट्रकों के साथ नज़दीक ही आसफ़ अली रोड पर लाइन लगाकर खड़े थे। बुलडोज़रों को देखकर वहाँ मौजूद स्थानीय भीड़ में दहशत फैल गई, क्योंकि उस इलाक़े में हाल ही में डीडीए द्वारा एक शरणार्थी शिविर, कुछ दुकानों और घरों को बुलडोज़र से गिराए जाने की घटना हो चुकी थी। 19 अप्रैल की सुबह पुरानी दिल्ली के इस मोहल्ले में इन विध्वंसकारी दानव मशीनों का दोबारा दिखाई देना इस बात का पर्याप्त प्रमाण था कि डीडीए अपना अतिक्रमण हटाओ अभियान रोकने वाली नहीं है। परिवार नियोजन के साथ-साथ शहर को ख़ूबसूरत बनाओ अभियान के तहत झोंपड़पट्टियों का सफ़ाया संजय गांधी के पसन्दीदा कार्यक्रम थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए डीडीए इसे पूरा करने को प्रतिबद्ध थी। पर इधर बस्ती के निवासी भी मन बना चुके थे कि किसी भी क़ीमत पर अपने घरों और दुकानों को गिराने नहीं देंगे और वहाँ मौजूद अधिकारियों से इस बाबत आश्वासन की माँग कर रहे थे। प्रशासन और पुलिस अधिकारी अभी इस परिस्थिति को समझ ही रहे थे कि 1:15 पर प्रदर्शनकारी नमाज़-ए-जुहर अदा करने के लिए इकट्ठा होने लगे।
अप्रैल की चिलचिलाती दोपहर में भीड़ का पारा चढ़ते देर नहीं लगी। एक बग्घी और ठेले पर लादकर प्रदर्शनकारियों को भोजन और पानी पहुँचाया गया। पर भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। प्रशासन ने भीड़ को पब्लिक एड्रेस सिस्टम के ज़रिये सम्बोधित किया और उन्हें जगह ख़ाली करने की चेतावनी दी। बन्दीगृह से लॉरियों को बुलाया गया, जो कि संकेत था कि आदेश नहीं मानने वालों को गिरफ़्तार करके कारागार में डाला जा सकता है, लेकिन इसने भीड़ को और भड़का दिया। हाल ही में गिराए गए अतिक्रमण के मलबे से पत्थर उठा-उठाकर भीड़ ने पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया। हालात काबू से बाहर होते देखकर अतिरिक्त पुलिस बल बुलाया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मौक़े पर पहुँचे। इनमें एक डीआईजी भिंडर भी थे, जिन्हें प्रबीर के अपहरणकर्ता की भूमिका में हम पहले मिल चुके हैं। इसके बावजूद कि उन्हें अपने बवासीर के ऑपरेशन के बाद अस्पताल से अभी छुट्टी मिली थी और कथित रूप से वे अभी भी ‘पट्टियाँ’ करवा रहे थे, भिंडर दोपहर 2 बजे के आसपास घटनास्थल पर आ पहुँचे। हमेशा की तरह चौकस और तैयार, अपने आका का हुक्म बजा लाने के लिए।
घनघोर लड़ाई छिड़ गई। पुलिस आँसू गैस के गोले दाग रही थी और ध्वस्त इमारतों पर जमे प्रदर्शनकारी उन पर पत्थरों की बरसात कर रहे थे। आँसू गैस के गोलों से बचने के लिए कुछ ने फ़ैज़-ए-इलाही मस्जिद में शरण ली। भिंडर पुलिसिया कार्रवाई की अगुआई करने के लिए आगे बढ़े। इस हंगामे के बीच भी भिंडर कार्रवाई का मुख्य उद्देश्य नहीं भूले थे और बताया जाता है कि उन्होंने अपने एक सहकर्मी को बोला कि वे डीडीए के उपाध्यक्ष जगमोहन से अतिरिक्त बुलडोज़र भेजने के लिए बात करेंगे, जिससे यहाँ काम जल्दी निपटाया जा सके। पुलिस ने बाद में दावा किया कि उन्होंने मस्जिद का दरवाज़ा इसलिए तोड़ा था जिससे वो कथित तौर पर भीड़ द्वारा घसीटकर भीतर ले जाए गए अपने एक साथी सिपाही की जान बचा सके। देखते ही देखते मस्जिद का आँगन किसी भयावह फ़िल्म के मंज़र में बदल गया। फ़र्श पर खून बिखरा था, माल-असबाब सब ध्वस्त पड़ा था और फ़िज़ा में आँसू गैस तैर रही थी। उधर बाहर भी घमासान मचा था। इलाक़े से अनजान पुलिस बदहवासी में कहीं भी दरवाज़ा तोड़कर घर में घुस रही थी, किसी को भी गिरफ़्तार कर रही थी। लेकिन प्रदर्शनकारी आँसू गैस के गोलों से कहाँ डरने वाले थे। वे इलाक़े की भूलभुलैया गलियों में जा छिपे और छापामार युद्ध शैली में जब-तब निकलकर जो हाथ में आया—मलबे से निकले पत्थर, लाठी-डंडे और सोडे की बोतलें, उससे पुलिस को मारने लगे। पिस्तौल से दागी गई चेतावनी गोलियों का भी भीड़ के ग़ुस्से पर कोई असर नहीं हुआ।
पुलिस को भय लगा कि एक बार अगर शाम ढलने लगी तो फिर अँधेरे में आदेश की पालना करवाना असम्भव हो जाएगा। इसी के चलते दोपहर बाद 3 से 4 के बीच अधिकारियों ने पब्लिक एड्रेस सिस्टम के ज़रिये इलाक़े में कर्फ़्यू की मुनादी करवा दी और घोषणा की कि अगर आदेश की पालना नहीं हुई तो मजबूरी में पुलिस को गोली चलानी पड़ेगी। हालाँकि सच ये था कि कर्फ़्यू की घोषणा से पहले ही पुलिस गोली चला चुकी थी। और वैसे भी कर्फ़्यू की घोषणा से परिस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। प्रदर्शनकारियों पर न आँसू गैस के गोलों का असर हुआ, न पुलिसिया ज़ाब्ते का और वे वैसे ही पत्थरों की बौछार करते रहे। कुल-मिलाकर पुलिस ने उस दिन चार जगहों पर चौदह राउंड फ़ायरिंग की। इन चार में से एक स्थान पर गोली चलाने का आदेश भिंडर ने दिया था। वे अर्धसैनिक बल सीआरपीएफ़ की एक प्लाटून की अगुआई करते हुए प्रदर्शनकारियों के पीछे एक सँकरी गली में घुस गए। भीतर उन पर पत्थरों की बरसात होने लगी। एक पत्थर सीधा भिंडर को जा लगा। ग़ुस्से में आगबबूला भिंडर ने एक सिपाही की बन्दूक़ छीनकर ख़ुद भीड़ पर गोली चलाने का प्रयास किया। सिपाही ने भिंडर को अपनी बन्दूक़ देने से मना कर दिया, लेकिन जब उसे गोली चलाने का आदेश दिया गया तो वह मना नहीं कर पाया। सरकारी आँकड़ों के अनुसार मरनेवालों की संख्या छह बताई गई, लेकिन बतानेवाले बताते हैं कि मरने वाले इसकी दोगुनी संख्या में थे।
प्रदर्शन इसके बाद निर्दयतापूर्वक कुचला गया। पुलिस ने घरों और कारख़ानों में घुसकर जिस पर भी शक हुआ उसे मारा-पीटा। महिलाओं से बदसलूकी की गई। विरोध के इस रक्तरंजित तरीक़े से कुचले जाने के बाद इलाक़े में बुलडोज़र की गड़गड़ाहट गूँजने लगी। उन्होंने पूरी रात कृत्रिम रोशनी के बीच काम किया और अगले कुछ दिनों में कई घर और दुकानें ज़मींदोज़ कर दी गईं। मलबे को हाथोंहाथ ट्रकों द्वारा वहाँ से हटवाया गया और बेघरों को फ़ौरन यमुनापार की विस्थापित कॉलोनियों में भेज दिया गया।