गीता श्री की उपन्यास क़ैद बाहर का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
“मालविका, एक बात पूछूँ…? चलो, पूछ ही लेती हूँ। तुमने जो ई-मेल लिखा था, उसके अनुसार तुम्हारी परिस्थितियाँ असहनीय थीं। तुम 2015 में ही दिल्ली शिफ़्ट होने वाली थी। यह 2019 है। यह फ़ैसला लेने में देर क्यों हुई?” वह चुप रही। खाते-खाते प्लेट में चम्मच रोक लिया था उसने। चेहरे पर दर्द की कुछ लकीरें उभरीं और लोप हो गईं।
“मैं जानती हूँ कि इतने आसान नहीं होते जीवन के फ़ैसले। मैंने भी बहुत साहस जुटाया तब फ़ैसले ले पाई हूँ... बहुत कठिन होता है, बाबू... सच में... लोगों को लगता है कि तय क्यों नहीं करती, क्यों देर कर रही है... इसी तरह की बकवासें... चलो, छोड़ो... मैंने बहुत सोचा तुम्हारे बारे में... फिर तुम जेहन से निकल गईं।”
माया उसे किसी असमंजस या गिल्ट से बाहर निकालना चाहती थी। अक्सर स्त्रियों को इस तरह की बातें सुनते, झेलते देखा है। कुछ तो सिर झुका लेती हैं और हमेशा के लिए अपना दु:ख साझा करना भूल जाती हैं। दु:ख उनकी त्वचा पर झुर्री बनकर लटक जाता है। आँखों के नीचे स्याह घेरों में बस जाता है।
“दी, फ़ैसला लेना कभी भी आसान नहीं होता, ख़ासकर फ़ैसला जब सिर्फ़ आपसे न जुड़ा हो बल्कि एक परिवार, एक समाज और हमारी समूची सभ्यता से जुड़ा हो और इन सबके साथ यदि आप एक बच्चे की माँ हैं, तो इससे ज्यादा मुश्किल शायद कुछ हो ही नहीं सकता कि एक माँ को अपने बच्चे के बिना हर रात सोना पड़े, यह जानते हुए कि उसकी रात में तो सिर्फ़ एक ही तकिया भीगता है, लेकिन उसके बच्चों की रातों में एक ही कमरे में हर रात कितने तकिये भीगते हैं और सूख जाते हैं अपने आप।”
माया ने चैन की साँस ली। शुक्र है, उसके लिए जीवन का फ़ैसला इसीलिए आसान रहा कि उसका कोई बच्चा न था। बच्चे होते तो फ़ैसला लेना इसके लिए भी इतना आसान न होता। ऐसा नहीं कि बच्चों वाली स्त्रियाँ अलग नहीं होतीं। सबका स्वभाव अलग होता है। माया की आँखों के सामने तैर गया एक दृश्य – पत्नी घर छोड़कर जा रही है, बच्चा आँचल खींचता हुआ विलाप कर रहा है। उस स्त्री की हालत कौन बयाँ कर सकता है? किसी में है इतनी ताक़त कि उस दु:ख को शब्दों में बाँध सके? उसके सामने वही स्त्री फिर बैठी थी, अपनी कहानी सुनाती हुई।
“मेरे लिए फ़ैसला लेने में देरी होने की सबसे बड़ी वजह मेरे बच्चों का उम्र में छोटा होना था और साथ ही लम्बे समय तक उसी माहौल में चीज़ों को ठीक करने की एक नाकाम-सी कोशिश भी। समाज और परिवार भी आड़े आता रहा कुछ-कुछ मौक़ों पर, लेकिन सबसे बड़ी वजह बच्चे ही थे। बच्चों की वजह से ही बहुत लम्बे समय तक अलग-अलग तरह से सम्बन्धों को ठीक करने की कोशिश की, ताकि बच्चों को किसी भी तरह के अलगाव का सामना न करना पड़े। हमेशा के लिए हर चीज़ से अलग हो जाने का फ़ैसला करने से पहले भी मैं दो बार कोशिश कर चुकी थी रिश्ते को ख़त्म करने और घर छोड़ने की।”
बात करते-करते वह रुक जाती थी, जैसे अपने भीतर से सारे दु:ख को काछ रही हो!
“समझ सकती हूँ, घर आसानी से नहीं छूटता। घर एक आदत भी है और स्त्री का स्वभाव भी। कई बार हम चाहकर, कोशिश करके भी नहीं छूट पाते…”
माया उसकी मनोदशा समझ रही थी। उसके दिमाग़ में कई चीजें घुमड़ रही थीं। उन तमाम स्त्रियों की रील चलने लगी थी, जिन्हें घर ने अपने नागपाश में फाँस रखा था। वे छटपटाती हुई दम तोड़ रही थीं जिन्हें वह मुक्त नहीं करा सकी थी। मालविका की हालत पर गहरे दु:ख के बावजूद उसे इस बात की तसल्ली मिल रही थी कि वह अन्य स्त्रियों की तरह फन्दे में फड़फड़ाकर दम तोड़ने से मुक्त हो गई थी।
मालविका अपनी रौ में बोले जा रही थी :
“दी, मैंने पहली कोशिश 2014 में की थी, जब हमारे बीच काफ़ी खराब स्थिति बन गई। मैं बिलकुल साथ नहीं रहना चाहती थी और किसी तरह बहाना बनाकर अपने दोनों बच्चों को लेकर माँ-पिताजी के घर चली गई, लेकिन मैं तब इंडिपेंडेंट नहीं थी। एक धनवान व्यक्ति की पत्नी तो थी, पर मेरे पास अपनी अर्निंग का कोई साधन नहीं था। माँ-पिताजी के पास जाकर, वहीं रहकर बच्चों को अपने साथ रखते हुए नौकरी करना चाहती थी। लेकिन घरवालों से कोई सपोर्ट नहीं मिला और शादी के बाद नौकरी छोड़ने के बाद इतना गैप हो गया था कि नौकरी मिलना आसान भी नहीं था। बच्चे साथ थे। मुझे पहली कोशिश में लगभग एक-दो महीने के बाद वापस मुम्बई लौटना पड़ा। हालाँकि इस वापसी में वह मुझे लेने आया बाक़ायदा और मैं बच्चों को लेकर उसके साथ वापस चली गई। मैं भी तो बच्ची ही थी और मजबूर भी और कहीं न कहीं रिश्ता भी बाक़ी था शायद।”
“अरे... तुमने मुझे मेल लिखा था। तुम मेरे पास आ जातीं, जैसे आज आई हो। मैं तो हमेशा से अकेली रही हूँ। तुम सबके लिए मेरे दरवाजे हमेशा खुले रहे। तुम फ़ोन तो करतीं। मैं ही लेने आ जाती तुम्हें... सब कुछ अकेले झेला... ओह!”
“नहीं दी, आपसे दिल की बात कर तो ली थी, आपका कोई जवाब नहीं आया था, इसलिए संकोच ने घेर लिया था। फिर यह मेरी लड़ाई थी, अकेले लड़कर देखना चाहती थी। मन में एक आस थी कि शायद कुछ ठीक हो जाए। 2014 के बाद 2017 तक चीजें ठीक चलती रहीं, छोटे-मोटे झगड़े हो जाया करते थे, लेकिन हाथ नहीं उठाया इस बीच। फिर 2017 में हमारे बीच फिर से एक झगड़ा हुआ जिसमें मुझे चोटें भी आ गईं और उसके बाद मैंने फ़ैसला किया कि अब नहीं रहना साथ में। बेटे को लेकर कहीं और रहूँगी, अलग रहूँगी क्योंकि मैंने 2016 से नौकरी करनी भी शुरू कर दी थी तो मैं इंडिपेंडेंट थी, मगर इतनी नहीं कि मुम्बई जैसे शहर में बेटे को अकेले अपने साथ रखकर उन्हें वैसी ज़िन्दगी दे पाती जैसी कि उन्हें उनके पिता के घर में मिल रही थी। मैं बेटे को लेकर 10 दिन के लिए कम्पनी के गेस्ट हाउस में रुकी। वहाँ रहते हुए मैं कोई व्यवस्था करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन ऑफ़िस का दबाव था, गेस्ट हाउस जल्दी खाली कर दिया जाए। उस बीच दोस्तों से लेकर परिवार-खानदान वालों ने पूरी कोशिश की कि मैं वापस लौट जाऊँ; मैं अपने बच्चे के साथ अच्छा नहीं कर रही। अपनी जिद के चलते उसे अभावों में रख रही हूँ। बेटा भी उस तरह से रहना पसन्द नहीं कर रहा था। इस बीच मैंने पाया कि बेटे को किसी चीज में खुशी नहीं मिल रही थी। वो हर वक्त अपने पापा को याद करता और घर जाने की जिद करता, जिसके चलते मुझे दस दिन बाद, बेटे के साथ दूसरी बार भी वापस लौटना पड़ा। इस बार वो मुझे लेने नहीं आया क्योंकि उसके लिए मेरा जाना और जाकर वापस लौट आना सामान्य बात हो चुकी थी।
“इस बार वापस लौटने के बाद कुछ भी पहले जैसा नहीं था। सब कुछ बदल चुका था। हमने रिश्तों को ठीक करने की कोशिश की, लेकिन कई कोशिशों के बाद भी हमारे कमरे अलग हो गए थे – एक ही फ़्लैट में रहते हुए। बच्चों के लिए मुझे एक नक़ली माहौल बनाकर रखना पड़ता था। उन्हें यह एहसास दिलाना पड़ता था कि मैं उनके पिता के साथ वैसे ही जुड़ी हुई हूँ जैसे कि पहले हुआ करती थी। घर के भीतर हमेशा दिवाली जैसा माहौल बनाकर रखना मेरी मजबूरी हो गई। हम दोनों एक-दूसरे के साथ पहले जैसे नहीं थे। इस बीच उसने मुझे अपनी बातों से यह एहसास कई बार दिलाने की कोशिश की कि मैं अब कहीं नहीं जा सकती थी। मैं चाहे ख़ुशी से रहती या फिर बिना मन के, लेकिन उसे यह यक़ीन हो चुका था कि मैं उसके साथ हमेशा रहूँगी, वो चाहे जैसे भी रहे। उसका बर्ताव खराब हो चुका था। बातचीत में रिस्पेक्ट देना पूरी तरह से ख़त्म हो चुका था, मेड तक के सामने इंसल्ट करना उसके लिए सामान्य बात थी। मैं ऐसे माहौल में घुटन महसूस करने लगी थी। मैं हर शाम रोती थी; क्यों रोती थी, मुझे भी नहीं पता था।”
माया उसके दर्द को समझ सकती थी। जिस आदर की बात वो कर रही थी, वो अधिकांश स्त्रियों के जीवन से गायब है। स्त्रियों का क़द तो बढ़ गया है, घरों में अभी भी उनके प्रति नजरिया नहीं बदला है। उसने महिलाओं के मुद्दों पर काम करते हुए अनेक स्त्रियों से संवाद किया है और सबके दु:ख लगभग एक जैसे पाए। स्त्री का हृदय फल्गू नदी की तरह होता है, जरा-सा कुरेदो तो पानी छलछलाकर निकल आता है। माया ने हमेशा अपने दोस्तों से कहा है कि उसके कन्धे असंख्य स्त्रियों के आँसुओं से गीले हैं। उसके लिए कोई कन्धा बना ही नहीं। आज फिर एक स्त्री अपना दु:ख खोल रही थी।
“यार मालविका, तुमने कितना झेला? मुझे गिल्ट हो रहा है कि मैंने तुम्हारी ख़बर क्यों न ली? हम सब अपनी-अपनी ज़िन्दगी में इतने मुब्तिला हैं कि होश नहीं। दूसरे का दर्द पता नहीं लगता। अपने ही दर्द में लिपटे कराहते रहते हैं, किसी और की चीख सुनाई कहाँ देती है...? मुझे अब दु:ख हो रहा है... मैंने क्यों तुम्हारे ई-मेल पर ध्यान नहीं दिया, मेरा दु:ख तुमसे छोटा ही था?”
“आप अपने को दु:ख मत पहुँचाइए, दी... हम स्त्रियों की कहानी एक-सी निकलती है। दु:ख थोड़ा कम या ज्यादा हो सकता है। आपने पूछा है, तो सारी बातें आपको विस्तार से बताकर मैं भी मुक्त होना चाहती हूँ।”
किसी को दर्द बता देना भी एक क़िस्म की मुक्ति है। मालविका ने बताना जारी रखा –
“2018 के शुरुआती महीनों से ही माहौल और ख़राब रहने लगा। हम एक-दूसरे के साथ पूरी तरह से साइलेंट हो चुके थे। बस, जरूरत भर बातचीत। बिना वजह ही लड़ाइयाँ होती थीं। जहाँ लड़ने की बात नहीं, वहाँ भी लड़ते थे। ऐसा बहुत कुछ था जो उसको पसन्द नहीं आता था, जैसे मेरा नौकरी करना। यह उसने कभी साफ़ शब्दों में जाहिर नहीं किया, लेकिन अपनी बातों से इंडाइरेक्टली कई बार जताया कि उसे मेरा घर से बाहर जाना पसन्द नहीं, नौकरी करना पसन्द नहीं, इंडिपेंडेंट होना पसन्द नहीं। उन्हीं दिनों हमारे बीच फिर से एक बड़ा झगड़ा हुआ और मैंने अन्तत: उस घर को पूरी तरह से छोड़ने का फ़ैसला ले लिया। अब बच्चों के बिना जा रही थी। तकलीफ़ बहुत ज़्यादा थी, लेकिन बस छोटा-सा यह सुकून था कि वो मेरे बिना भी होंगे, शायद उस जीवन से बेहतर जीवन जी पाएँ जो मैं उन्हें इस घर से बाहर ले जाकर अपने साथ दूँगी! घर छोड़ने से पहले मैंने उसे इस बात के लिए कन्विंस करने की कोशिश की कि वो घर छोड़कर चला जाए और मैं बच्चों के साथ रहूँ। लेकिन उसने मना कर दिया और कहा कि तुम्हें जाना है तो जाओ। ये सब होने के बाद मैंने पन्द्रह दिन के भीतर घर छोड़ दिया। उसने रोकने की कोई कोशिश भी नहीं की और मैं हमेशा-हमेशा के लिए निकल गई। अभी चल रही हूँ, थक जाती हूँ। नहीं पता, कहाँ जा पाऊँगी, लेकिन चलना सीख गई हूँ।”
प्लेट में खाना वैसे ही धरा रह गया। वह अपनी यादों में खोई हुई थी।
“मालू, खाना खा लो...छोड़ो, ये बातें अब नहीं करेंगे... तुम बहुत उदास हो जाती हो। सारा माहौल गमगीन हो जाता है...।”
“दी, बहुत कुछ है अभी आपको बताने को... सब बताऊँगी, धीरे-धीरे। कहानी इतनी ही नहीं है। पिक्चर अभी बाक़ी है, दीदी।”
मालविका के फीके, सूखे चेहरे पर हल्की लाली तैर गई।
“अच्छा... कुछ महके हुए राज हैं... खोलो, खोलो!”
माया ने उसे गुदगुदाया। माहौल बहुत बोझिल हो चला था। उसे हल्का करना चाहती थी। मालविका उसकी बातें सुनकर खिलखिला पड़ी। माया को अच्छा लगा कि वह हँस रही थी। उसके खुले, लम्बे सिल्की बाल चेहरे पर झुक आए थे। कितनी सुन्दर रही होगी यह लड़की? सितम कैसा ढाया कि सूखती चली जा रही है। कैसे इसकी रंगत हरी-भरी करूँ? सबसे बड़ी चुनौती थी कि पहले इसकी सेहत सुधारी जाए।