इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि स्त्री श्रमिक, जो श्रम के सोपानीकरण में भी सबसे निचले पायदान पर खड़ी है, की स्थिति पर अलग से सोचने-विचारने का समय किसी के पास नहीं है । इस स्थिति से निजात पाने के लिए सरकार को तो नया दृष्टिकोण अपनाना चाहिए था। गैर-सरकारी संस्थाओं की भी महती भूमिका है। यदि वे चाहें तो सीधे पश्चिमी देशों में सक्रिय गैर-सरकारी संगठनों से संवाद स्थापित कर सकते हैं। और इस बहाने स्त्री श्रम की समस्याओं पर प्रकाश डालना संभव होगा। जिस कमीज की सिलाई करने में एक श्रमिक को १५ रुपये मिलते हैं, उसे एक अमेरिकी स्त्री १०० डॉलर यानी लगभग पाँच हजार रुपये में खरीदती है । पाँच हजार रुपये में कमीज खरीदने वाली स्त्री यदि चाहे तो इस स्त्री के हक में लड़ाई लड़ सकती है लेकिन क्या वह ऐसा करना चाहेगी? तकनीक किसी भी हालत में निष्पक्ष नहीं। मानवीय सरोकारों से तकनीक स्वतंत्र भी नहीं, तकनीक के साथ सामाजिक विशेषताएँ जुड़ी होती हैं जो इस तकनीक को स्थापित और विस्थापित करती हैं। स्त्री वर्ग को भी यह समझना होगा कि परिवर्तन से होने वाले विरोधाभासी परिणामों का सामना कैसे किया जाए?

नब्बे के दशक में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाए गए। नये तकनीक से रोजगार योजनाओं का विकेंद्रीकरण हुआ। नई तकनीक स्त्रियों के लिए दुधारी तलवार है। इससे एक ओर सुविधा मिलती है तो दूसरी ओर बेरोजगारी बढ़ती है। उदाहरण के लिए, टेलीफोन उद्योग को लीजिए। कहाँ गई वे लड़कियाँ जो कभी आपरेटरों का काम करती थीं। उनके बदले तो अब इन्टरनेट डाटा वितरण हो गया। इसी प्रकार चीन में बस कन्डक्टर का काम स्त्रियाँ किया करती थीं। आज प्रत्येक बस में भाड़ा वसूलने वाली मशीन लगी हुई है।

त्वरित उद्योगीकरण के कारण गाँव-देहात के लोग शहरों में आते हैं। जिसका असर श्रम के संसाधन पर पड़ता है। चूँकि प्रबंधन मान कर चलता है स्त्री श्रमिकों की अपनी पुरुष साथी की तुलना में शिक्षा और कारीगरी की क्षमता कम है अतः छँटनी की मार पहले स्त्री पर पड़ती है। इस बेरोजगारी का प्रभाव स्त्री की हैसियत पर पड़ा है। न केवल वह अपने घरों में वापिस लौटने पर मजबूर हुई हैं, बल्कि अर्थ के अभाव में वह ज्यादा पराधीन भी हुई है। जब पुरुष ही कमाएगा, परिवार में निर्णय का अधिकार भी पुरुष को ही मिलेगा तो सत्ता और अधिक पुरुष के हाथों में केंद्रित होगी।

किसी के लिए भी आसान नहीं कि तुरंत नयी तकनीक को अपना ले। रोजगार की अवधारणा बदलती जा रही है बल्कि शहर में रहने वाली स्त्रियाँ आज पारम्परिक उद्योगों से निकलकर सेवा क्षेत्र में ज्यादा जा रही हैं। घरों में नौकरानियाँ ज्यादा उपलब्ध हो रही हैं। वे स्थायी रोजगार योजनाओं को स्वीकारती हैं। अविवाहित स्त्रियाँ कुछ वर्षों के लिए ही नौकरी खोजने आती हैं और उन्हीं कामों को स्वीकारती हैं जिसे शहरी औरतें छोड़ चुकी हैं। विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक्स, वस्त्र उद्योग, खिलौने के कारखाने, बीड़ी बनाने के कारखाने और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में कुछ वर्ष काम करने के बाद इनमें से अधिकतर अपने गाँव लौट जाती हैं। और वहाँ कुछ छोटा-मोटा धंधा भी कर लेती हैं। जब ये गाँव से आती हैं तो कम शिक्षा और प्रशिक्षण के अभाव के कारण बिल्कुल निचले स्तर से काम शुरू करती हैं। मगर नियुक्ति के दौरान पता चलता है कि इनमें कुछ ऐसे गुण हैं जो औरों में नहीं। आज्ञाकारिता, विनम्रता, मेहनत की क्षमता और स्वाभाविक धीरज। जल्दी से ये मुँह नहीं खोलतीं, अतः प्रबंधन इन्हें रखना चाहता है। उत्पादन की लाइन पर जो भी श्रम-साध्य उद्योग हैं वहाँ इन स्त्रियों की जरूरत पड़ती है। प्रबंधन के अनुसार शहरों की लड़कियों की तुलना में गाँव से आई ये लड़कियाँ सस्ती हैं। इन लड़कियों के लिए कमाई का नया स्रोत खुलता है, इन्हें समझाया जाता है कि कम पगार पर भी तुम्हें यह काम करना है। अन्यथा घर पर तुम भूखों मरती। अतः ये किसी भी हालत में किसी भी कीमत पर काम करने को तैयार हैं।

उन्नत राष्ट्रों में श्रम की प्रक्रिया में भारी बदलाव हुआ है। वहाँ जमीनी स्तर की संस्थाओं का अपना नजरिया है जिसके तहत नये मुद्दे उठाये जा रहे हैं। लंबे अर्से तक दावा किया जाता रहा है कि उदारीकरण की नीति से स्त्री लाभान्वित होगी और उसे अधिक रोजगार मिलेगा, मगर आज स्त्री को उसी पारंपरिक चौखटे में फिट किया जा रहा है जो उसके खिलाफ रहा है। स्त्री श्रम की हकीकत हमें सवाल उठाने के लिए मजबूर करती है कि अन्ततः भूमंडलीकृत समाज किस हद तक लैंगिक सम्बन्धों में परिवर्तनकारी साबित होगा और क्या यह परिवर्तन स्त्री के हक में जाएगा? अतीत में स्त्रियों द्वारा किये गए सामाजिक आंदोलन के संदर्भ में आज गरीबी उन्मूलन, पर्यावरण की अवनति एवं काम का अस्वास्थ्यकर वातावरण का मुद्दा ज्यादा केंद्र में है। अतः इतिहास के ऐसे दौर में जब सभी विस्थापित हो रहे हों, तब क्या समाज के लिए, राजसत्ता के लिए स्त्री समस्याओं पर अलग से ध्यान देना संभव है? फिलहाल स्त्रियों की नियुक्ति का जो पैटर्न चला आ रहा है, भविष्य में भी जरूरी नहीं कि वही पैटर्न चलता रहे। क्या भूमंडलीकृत बाज़ार व्यवस्था स्त्री-पुरुष के पारंपरिक सम्बन्धों को बदलने जा रही है? क्या इस परिवर्तन की आड़ में पितृसत्तात्मक समाज पुनः स्त्री के श्रम पर अपनी लगाम कस पाएगा और क्या अन्य देशों में भी स्त्रियों को इन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है? और क्या ये सारे परिवर्तन पितृसत्तात्मक संस्थाओं की ताकत को कमजोर करने में समर्थ होंगे?

पिछले २० सालों का इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि आर्थिक क्षेत्र में स्त्री और अधिक परिधिकृत हुई है। स्त्री की सार्वजनिक क्षेत्र में भागीदारी कमतर हुई है, विशेषकर ऐसे दौर में जब सार्वजनिक उद्योग नहीं के बराबर हों तथा उद्योग का संगठन टुकड़ों में बँटता और टूटता हुआ गृह-उद्योग में सिमटता जा रहा हो। घरेलू उद्योग यानी घर में रहकर स्त्री श्रम का विनियोजन कैसे संभव होगा, समाज को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत नहीं है। कुल मिलाकर पूरा स्त्री श्रम समाज को जो देता है, उसके बदले उसे केवल अपने भरण-पोषण की सुविधा मिलती है। परिवार में पुरुष के मातहत रहने वाली स्त्री के श्रम के ऊपर पूँजीपति के नियंत्रण का जीता-जागता उदाहरण है। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध अन्ततः पूँजी और श्रम के सम्बन्ध में बदल जाता है। मार्क्सय नारीवाद के अनुसार असमान लैंगिक सम्बन्ध प्रत्येक प्रकार की आर्थिक व्यवस्था में पाए जाते हैं। आर्थिक व्यवस्था का स्वरूप चाहे कुछ भी हो, चाहे वह प्राक् पूँजीवादी व्यवस्था हो, सामंती हो, प्रत्येक समाज ने अपनी परंपरा के अनुसार अपना ढाँचा बना लिया है जिसे आज बाज़ार की ताकतें भुना रही हैं। जरूरत पर स्त्री श्रम को खंगाला जाता है, उसे सुविधानुसार नियुक्त किया जाता है और सुविधानुसार फेंक दिया जाता है। इसी कारण स्त्रियाँ भूमंडलीकृत उद्योग व्यवस्था में नियुक्त होते हुए भी एक आज्ञाकारी और सस्ते श्रम की कोटि का ही प्रतिनिधित्व कर रही है। जिसका श्रम सस्ता होगा, वह पितृसत्ता व्यवस्था से कैसे मोल-भाव कर पाएगा यह गहरे समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय होना चाहिए।

भूमंडलीकृत बाज़ार की माँग पूर्ति के लिए गैर पारंपरिक उद्योगों का पनपना और इसमें स्त्रियों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति के साथ ही उदारीकरण के फलस्वरूप तकनीकी परिवर्तन से उत्पन्न असुरक्षा और अनिश्चय की स्थिति में यह सोचना कि पूरे श्रम का स्त्रीकरण ही होगा, जिससे पुरुष श्रम का अवमूल्यन होगा। मगर इन बातों पर नारीवादी लेखिकाओं के लेखन से विशेष प्रभाव नहीं पड़ने वाला। स्त्री श्रमिक को स्वयं अपनी बात कहनी होगी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने राज्य व्यवस्था को लोक-कल्याणकारी भूमिका के लिए मना किया है। स्त्री श्रमिक का मसला अपनी गृहस्थी में पति से उपेक्षित रहने का नहीं है, बल्कि वह तकनीक से संचालित बाज़ार अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन चुकी है।

इसके विपरीत नारीवादी लेखिकाएँ फिलहाल अपना दृष्टिकोण पारम्परिक व्यवस्था पर ही केद्रित रखे हुए हैं। जब तक सार्वजनिक क्षेत्रों में समाजवादी संस्थाएँ सक्रिय नहीं होंगी, इस मुद्दे पर विशेष काम करना संभव भी नहीं होगा। मगर पुराने के बदले जो नयी संस्थाएँ बनेंगी, जरूरी नहीं कि वे स्त्री अधिकारों की पक्षधर हों। परिवार श्रम का बाज़ार, धर्म और राजनीतिक क्षेत्र में हर जगह स्त्री समस्याओं का परिधिकरण हो रहा है। यहाँ एक क्षेत्र में लागू किया गया नियंत्रण अन्य क्षेत्र को प्रभावित करता है। यदि अफगान स्त्रियों पर राजनीतिक बंधन लगाया गया तो उलेमाओं ने इसका समर्थन किया और इसे नियोजित करने में पारिवारिक पितृसत्ता ने पूरा सहयोग दिया। नियंत्रण की साइट स्त्री की अपनी देह है, उसका श्रम और उसकी यौनिकता है।

सामाजिक परंपरा के अनुसार संस्थाएँ किस पक्ष पर ध्यान देना चाहेंगी यह उनकी मर्जी पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, भारत में ऊँची जाति वालों में यदि स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करने की बाध्यकारी भूमिका है तो निम्न जाति और गरीब वर्ग में स्त्री के श्रम को लेकर बाध्यता है। यानी . उच्च वर्ग स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करना चाहता है तो दूसरा वर्ग उसके श्रम को नियंत्रित करना चाहता है। मुझे यहाँ सौदागर फिल्म याद आती है। फिल्म की नायिका घर में गुड़ बनाती है। पति बाज़ार में इस गुड़ को बेचता है और अन्ततः दोनों के बीच सम्बन्ध भी बाज़ार ही निर्धारित करता है। बाज़ार में ऊँचे दाम मिलने से पति बौरा जाता है। दूसरी औरत को ले आता है । मंगर यह दूसरी बीवी पहली जैसा गुड़ बना नहीं सकती। इसलिए बाज़ार में गुड़ के दाम मिलते नहीं। बाध्यं होकर सौदागर को वापस पहली पत्नी के पास लौट जाना पड़ता है।

तब क्या भूमंडलीय समाज में स्थिति थोड़ी-बहुत बदली है? ऐसा लगता है बाज़ार के सामने गृहस्थी ने समझौता कर लिया है। कोरिया में महिलाओं की बड़े पैमाने पर उद्योग-धंधों में नियुक्ति होने से शादी की उम्र बढ़ गई है और कम बच्चे होने लगे हैं। भारत में मध्यमवर्गीय शहरी परिवारों में माता- पिता यह स्वीकारने लगे हैं कि कैरियर के लिए उच्च शिक्षा की आवश्यकता है, अतः विवाह देर से किये जाएँ, बल्कि इन सुविधाओं को देखते हुए गाँव में रहनेवाले माता-पिता भी अपनी लड़कियों को शहरों में रखना चाहते हैं । इसका नतीजा है कि पहली बार गाँव से आई हुई लड़की को लगता है कि जिंदगी जीने का कोई और तरीका भी हो सकता है। चाहे जैसी भी स्थिति हो, वह वापस गाँव नहीं लौटना चाहती।

गाँव से आई हुई बहुतेरी स्त्रियों का कहना है कि उनके लिए गाँव में विशेष कुछ नहीं रखा है। यहाँ कम से कम शहर में वे अपने मन से जी तो पाती हैं, टिकली-बिन्दी खरीदती हैं, और सिनेमा देखती हैं, रात-बिरात कहीं आती-जाती हैं तो उन्हें कोई टोकता नहीं है। गाँव में उनका दम घुटता है।

निस्संदेह भारतीय समाज एक संक्रमणकालीन स्थिति से गुजर रहा है, जिसे सबको झेलना पड़ रहा है। ज्यादा बोझ तले स्त्री वर्ग है। मगर इस संक्रांति से उभरी दरार से वह स्पेस भी निर्मित हुआ है जिस साइट पर पुनः स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को निर्मित करना संभव है और जिसके बिना भारतीय श्रम गतिशील एवं परिवर्तनकामी नहीं हो पाएगा। स्त्री श्रम के संदर्भ में इन बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-दक्षता के आधार पर बेरोजगारी और छँटनी से जनित समस्याओं एवं बेरोजगारी से होने वाले क्षेत्रीय बदलाव (उदाहरण के लिए अस्थायी ठेका, अंशकालिक और औपचारिक क्षेत्र, सुरक्षा-संजाल को बनाना), सामाजिक सुरक्षा, देशांतरण और बाल श्रम तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों के अलावा मजदूर संघ के मोल भाव करने की क्षमता का ह्रास तथा गिरती हुए आर्थिक स्थिति में परिवार में स्त्री के अधिकारों में आई हुई कमी।

प्रभा खेतान के किताब बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ़ का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।