कुँवर नारायण, सम्पादन: यतीन्द्र मिश्र के किताब दिशाओं का खुला आकाश का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


दिशाओं का खुला आकाश – वरिष्ठ कवि, आलोचक एवं हमारे समय के अप्रतिम चिन्तक श्री कुँवर नारायण के रचनात्मक जीवन की ऐसी नोटबुक है, जिसे व्यापक प्रबुद्ध समाज के सामने लेकर वे पहली बार उपस्थित हैं। दरअसल यह पुस्तक कुँवर नारायण की डायरी, नोटबुक या जॉटिंग्स की किताब कही जा सकती है, जिसमें यह देखना अत्यन्त दिलचस्प है कि इस किताब का पूरा संयोजन न तो पूरी तरह डायरी है, न वह शत-प्रतिशत नोटबुक है और न ही वह अपने सम्पूर्ण कलेवर में जॉटिंग्स ही है। इस लिहाज़ से यह पुस्तक कुँवर नारायण के पिछले पचास-साठ वर्षों के अपने सृजन-काल में लिखी गयी अनगिनत साहित्यिक टीपों, कलात्मक टिप्पणियों, सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों एवं व्यक्तिगत जीवन की रोजमर्रा की ज़रूरतों का ऐसा मिला-जुला दस्तावेज़ है, जिसे हम उनके द्वारा लिखी गयी गद्य की एक अभिनव पुस्तक के रूप में परख सकते हैं।

इस पुस्तक से गुज़रते हुए यह जानना प्रासंगिक है कि कुँवर नारायण द्वारा अपने दैनिक जीवन में चुपचाप दर्ज़ की गयी अनगिनत बहुमूल्य लेखकीय सामग्री का छोटा सा अंश, नोटबुक या डायरी के इस चयन से परिलक्षित है। यह उनके कवि-मन के भीतर खुलने वाली वह खिड़की है, जिसे कुँवर जी सरीखा लेखक खोलने में बहुत झिझक महसूस करता रहा है। यह हिन्दी समाज और उसके सुधी पाठकों के लिए भी एक अवसर है, कि हम उनके ऐसे बौद्धिक चिन्तन की छोटी सी बानगी के साथ पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ।

दिशाओं का खुला आकाश में नोट्स बिलकुल असम्बद्ध तरीके प्रस्तुत किये गये हैं। उन्हें उसी रूप में रखते हुए, कुछ अंश यहाँ चुनकर देने के पीछे मंशा यही रही कि उनका स्वाभाविक रूप वैसा ही बना रहे – फिर भी अपनी समग्रता में वे कवि के लेखन और उसकी चिन्तना के कुछ आधार-बिन्दु दे सकें । इनमें परस्पर तालमेल बैठाने की कोई कोशिश नहीं की गयी है। दुहराव और विरोधाभासों को स्वीकारते हुए कि वे जीवन और लेखन दोनों ही में स्वाभाविक हैं।

यहाँ यह बताना जरूरी है कि इस छोटी सी आत्मीय पुस्तक जीवन के अंश नहीं रखे गए, केवल कविता, साहित्य, रचनाकर्म, समाज और राजनीति से उनके अन्तस्सम्बन्ध पर टिप्पणियों का एक छोटा-सा संचयन बनाया गया है। यहाँ यह बताते चलना भी पुस्तक के स्वभाव एवं उसकी सामग्री के सन्दर्भ में ज़रूरी है कि कुँवर जी का ऐसा कोई इरादा नहीं था कि यह सारी सामग्री कभी पुस्तक रूप में छपेगी। वे बस इसे अपने लिए लिखते गये और धीरे-धीरे इन कॉपियों का एक बड़ा भण्डार उनके पढ़ने के कमरे और घर में अपना आयतन बढ़ाता गया। फिर भी, यह कुँवर जी की सदाशयता है कि पुस्तक के इस रूप में प्रकाशन तथा उसमें चयनित सामग्री को लेने की छूट की इज़ाज़त उन्होंने सहर्ष दे दी। अब, विचार - बिन्दुओं की शक्ल में, सूक्तिपरक उद्धरणों के कलेवर में तथा व्यक्तिगत स्तर पर स्वयं से संवाद करने की सूरत में यह पाठ्य सामग्री आप सभी के सामने है।

इन वैचारिक टिप्पणियों के सन्दर्भ में कुछ बातें अलग से ध्यान आकर्षित करती हैं, जिनके कारण कुँवर नारायण जैसे रचनाकार के चिन्तक मन की सृजनशीलता पूरी संवेदनात्मकता के साथ खुलती नज़र आती है। उनका मानना है कि साहित्य और कलाओं का पक्ष मूलतः मानवीय होता है। वे मानवीय के भाव को बुद्धिमत्ता के श्रेष्ठतम उदाहरणों तक बारीकी से विस्तृत करते हैं। यह लेखक की स्थाई चिन्ता रही है, जिसकी ओर वह बार-बार लौटता है, जब भी वह बाहर की दुनिया में विसंगतियाँ, विकृतियाँ, अन्याय, क्रूरताएँ और हिंसाएँ देखता है। वह मनुष्य की सभ्यता और संस्कृतियों के उस दूसरे इतिहास को याद करता है, जो उसकी रचनात्मक चेष्टाओं और उसके उदात्त नैतिक प्रयासों में पढ़ी जा सकती हैं । जीवन-रक्षा ( सरवाईवल) की दृष्टि से भी उन्हें वह आदमी की आक्रामक वृत्तियों की अपेक्षा, अधिक वैज्ञानिक मानता है। यह अकारण नहीं है कि उनके जैसा रचनाकार इन्हीं आशयों के चलते विनम्रता की लचीली शक्ति में जीवन - विकास की बेहतर सम्भावनाओं को देखता है।

कुँवर जी के इन नोट्स की तुलना हिन्दी में उपलब्ध डायरियों और नोटबुकों से नहीं की जा सकती, क्योंकि इन्हें कवि ने अपनी शर्तों और चिन्तन की कसौटियों पर लिखा है। वे कई स्थानों पर अपने डायरी लिखे जाने के सरोकारों को भी लक्ष्य करते हुए कहते हैं— 'नोट्स लिखना मेरे लिये चिन्तन मनन का एक तरीका है। एक ऐसा एकान्त जिसमें बैठकर मैं अपने और सबके बारे में अपनी तरह सोचता हूँ : कभी अपने बारे में ज्यादा, तो कभी दूसरों के बारे में ज़्यादा, लेकिन इस सोचने में विभाजन नहीं है, एक समावेशी ढंग है।' ज़ाहिर है, उनकी वैचारिकता के आँगन में आने वाला अपने और दूसरों के जीवन को जोड़कर समावेशी संसार रचने का एक विनम्र उपक्रम ही, इन टिप्पणियों की सार्थकता है। अतः कई मायनों में उनके जैसे कवि-चिन्तक ने नोटबुक के इन पन्नों पर अतीत और आज, समाज और राजनीति, साहित्य और जीवन से होकर गुज़रती हुई अनगिनत मर्मस्पर्शी टिप्पणियों का एक अचीन्हा व अप्रतिहत संसार भी रचा है।

ऐसे में, यह जानना हमेशा ही हिन्दी साहित्य के परिसर में प्रासंगिक होगा कि एक लम्बा साहित्यिक जीवन जीते हुए, साहित्य, कलाओं तथा अन्य रचनात्मक अभिव्यक्तियों में चिन्तन करते हुए तथा संकोच के साथ अपने जीवन और जीने की मुश्किलों को उजागर करते

कुँवर जी ने एक ऐसा समावेशी किस्म का जीवन जिया है, जिस पर बड़ी सी रोशनी यह पुस्तक डालती है। मात्र इतना कहना कि कवि ने अपने बारे में जितना कम कहा है, यह किताब उससे कई गुना ज्यादा उनके बारे में बोलती है - इस किताब की सबसे बड़ी खूबी बनकर उभर सका है।

शायद इसीलिए, सब दिशाओं में फैला और खुला हुआ कुँवर नारायण की रचनात्मकता का आकाश कुछ अधिक बड़ा, कुछ अधिक आत्मीय, कुछ अधिक सार्थक बन पाया है।

फरवरी 1, 2012

– यतीन्द्र मिश्र

2 नवम्बर, 1999

अकसर लगता मैं रुका हूँ, मेरे घर चल-फिर रहे हैं। एक दिन मेरे सारे घर मुझे छोड़ कर कहीं दूर चले जायेंगे। मैं मिट्टी में मिल जाऊँगा।

जब भी किसी नयी जगह ठहरता हूँ उस जगह को सन्देह से देखता हूँ। वह एक धोखा हो सकता है - घर भी, और मेरा उसमें ठहरना भी। ठहरने से चलते रहना अधिक विश्वसनीय लगता है । एक चलते-फिरते घर की परिकल्पना में अकसर भटकता है एक आदिम बंजारा - मन...। सागर पर तैरता एक नाव – घर!


30 फरवरी, 2003

इन वर्षों में मैंने अनुभव किया है कि कविता साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता की पहचान राजनीति से स्वतंत्र नैतिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में स्पष्ट बननी चाहिए। साहित्य और कला दोनों की कार्य-प्रणाली में बुनियादी अन्तर है। राजनीतिक सोच पद्धति विभाजन और सम्पर्क पर आधारित है।

कविता और कलाएँ जीवन के वैविध्य को अपनाती हैं और उसी से पलती- पनपती हैं। रचनात्मक ऊर्जा पाती हैं। जीवन में भी इस विविधता का पक्ष-विपक्ष जैसे सरल वर्गीकरण से संघर्ष और कलह की भूमिका तो बनती है – लेकिन उस सहिष्णुता और समता की जड़ें कमज़ोर होती हैं, जिसे साहित्य और कलाओं का बुनियादी सरोकार माना जाता रहा है। कलाएँ यदि समावेशी दृष्टि से जीवन को न देखें तो उनका जीवनबोध एकांगी और अपूर्ण होगा।


07 मार्च, 2007

बहुतों को मुझसे शिकायत है कि मैं दूसरों के लिये कुछ नहीं करता। यह शिकायत मुझे अपने से भी है कि मैं अपने लिये भी कुछ नहीं करता। बस, हर समय अपने में डूबा कविता लिखता रहता हूँ, और इसे ही मैंने अपने और सबके प्रति अपना कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व मान लिया है। बहुत से कवि, कविताएँ लिख रहे हैं और अपने तथा दूसरों के लिये बहुत कुछ कर भी रहे हैं। यह उदाहरण मुझे प्रेरित नहीं करता, इसके बावजूद कि वह सराहनीय है।

मुझे अपने बचाव में कुछ नहीं कहना है। दूसरों के लिये कुछ करने के पीछे भी स्वार्थ हो सकता है। बड़े से बड़े परोपकार के पीछे भी यशकामी स्वार्थ। मैं किसी के लिये कुछ नहीं करता, इस धारणा के पीछे कहीं यह ग़लतफहमी भी रहती है, मानो मैं सब कुछ कर सकने में समर्थ हूँ, फिर भी अपना हाथ खींचे रहता हूँ। इस निर्दय निष्कर्ष का शिकार सबसे पहले मेरे जैसे लोगों का होना आसान है, जो दूसरों से एक वांछनीय फासला रखकर अपनी तरह जीना चाहते हैं। मुझे याद है 'अज्ञेय' कुछ ही लोगों के साथ घनिष्ठ हो पाते थे, जिस कारण उन पर आत्मकेन्द्रित होने के आरोप लगते रहे। इसके बावजूद हिन्दी साहित्य को अज्ञेय की देन अप्रतिम है। मेरे और अज्ञेय के बीच निकटता का माध्यम केवल साहित्य था। उन्होंने मुझ पर एक शब्द भी नहीं लिखा, फिर भी मैं उन पर बराबर लिखता रहा, क्योंकि हमारे बीच साहित्य की मर्यादाएँ प्रमुख थीं न कि लोक व्यवहार। कई जगह उनके लेखन को लेकर मैं काफी आलोचनात्मक भी रहा हूँ, फिर भी हमारे बीच कभी कोई कटुता नहीं आई।