ज्ञानरंजन, कमला प्रसादके किताब बाज़ार में खड़ा दार्शनिक का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
वाल्टर बेंजामिन जानते थे कि पूँजीवादी संस्कृति का सबसे रोचक खेल आधुनिक महानगरों में खेला जा रहा है। उन्होंने कहा कि, “कोई चेहरा इतना अतियथार्थवादी नहीं है, जितना कि एक शहर का चेहरा"। उन्होंने देखा कि यहाँ इच्छाओं और लालसाओं की एक भयावह मरीचिका रची गयी है। महानगरों में परीकथाओं के भयानक विरोधाभास हैं। चमक और रंगीनी के साथ-साथ शोषण, अन्याय, अजनबीपन और अमानवीयकरण के सबसे जटिल रूप यहाँ के दैनंदिन जीवन में व्याप्त हैं। बेंजामिन शहरों में ख़ाली हाथ भटकते एक रूमानी आवारा थे। शहर उन्हें चुम्बक की तरह खींचते थे। बर्लिन, मर्सेल्स, बर्गेन, मास्को, नेपल्स, पेरिस सभी महानगरों में उन्होंने उत्कट सौन्दर्य और पाशविकता के अद्भुत मेल को एक साथ रेखांकित किया। 1927 से 1933 के बीच उन्होंने शहरों के बारे में बर्लिन रेडियो पर लगभग 84 वार्ताएँ प्रसारित कीं। आधुनिक शहर, उनका शिल्प, इमारतें, भीड़, बाज़ार, सड़कों पर दिखता जीवन, नागरिक दिनचर्याएँ, मुक्ति और तनाव, ज़रूरतें और लाचारियाँ बेंजामिन के लेखन में एक शहरनामा रचती हैं। वे छोटे-छोटे नागरिक अनुभवों के तफ़सीलों में अपने विचार-बिम्ब खड़े करते हैं।
बेंजामिन के लिए शहरी जटिलता आधुनिकता का सारतत्त्व है। वे समय और स्थान में हो रहे परिवर्तनों को निरख रहे थे। मनुष्य व्यवहार में आ रहे बदलावों को समझना चाहते थे। उनका मानना था कि सामाजिक समग्रता अपने सबसे सूक्ष्म रूप में महानगरों में अभिव्यक्त होती है। महानगरों का एक आकृति विज्ञान है। इमारतों के शिल्प और मनुष्यों की गतिविधियाँ एक-दूसरे को आकार देते हैं। किसी भी शहर की इमारतें और उनका अन्दरूनी जगत् कर्म के ढाँचे को रचता है। इन ढाँचों में मनुष्य अपने होने और गुज़र जाने के चिह्न छोड़ जाते हैं। किसी उत्सव की शाम कैसे बीती है, यह तश्तरियों, प्यालों और गिलासों में छूटी हुई सामग्री को देखकर जाना जा सकता है। एक सामाजिक सिद्धान्तकार एक ख़ास तरह का जासूस होता है। वह पीछे छूट गये सूक्ष्म चिह्नों और सबूतों से जीवन के ढाँचे की पुनर्रचना करना चाहता है। उनसे अर्थ निकालना चाहता है। “जीवन का अर्थ है, अपने पीछे कुछ निशान छोड़ जाना।” वे कहते हैं कि, “एक शहर को उसके असंख्य चेहरों में पढ़ा जाना चाहिए। शहर एक इकाई है, जिसके भीतर असंख्य छोटी-छोटी इकाइयाँ हैं। हज़ारों आँखों और हज़ारों वस्तुओं में शहर दिखाई पड़ता है। यह दृश्य- प्रपंच है। शहरों की भौतिक आकृतियों के भीतर मानसिक अवस्थाएँ अबूझ पहेलियाँ हैं, रोजमर्रा का घिसा-पिटा जीवन एक समूचे युग की माइक्रो-सोशियोलॉजी को गढ़ता है।”
यहाँ शहरों के इस दृश्य-प्रपंच की मुख्य विषय-वस्तु अनुभव की समग्रता का छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाना और हाशिये पर चले जाना है। बेंजामिन कहते हैं कि आधुनिक अनुभव की सबसे बड़ी विशेषता एक ‘आघात’ है। यह आघात बदले में एक विस्मृति को रचता है, जो स्मृति का ही एक पृथक् रूप है। महानगरीय जीवन की तीव्र गति और मशीनों से बँधी लय एक सुनिश्चित लौकिक संवेदना को रचती है। यह समय का पदार्थीकरण करती है अर्थात् समय और धन-सम्पदा के समीकरण बनाती है। यह एक दोहराव के सिलसिले को जन्म देती है जिसे उत्सवधर्मिता और फ़ैशन की संस्कृति में देखा जा सकता है। शहरी संस्कृति के अपने अध्ययन में वाल्टर बेंजामिन उत्पादन के रूप पर ज़ोर देने वाले परम्परागत मार्क्सवाद से दूर हटते हैं। वे वस्तुओं को प्रदर्शित करने, उन्हें विज्ञापित करने, उनकी ख़पत को उकसाने वाली उपभोक्ता संस्कृति पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। उनके विश्लेषण के केन्द्र में उत्पादन की प्रक्रिया में अजनबी होते जाते मज़दूर का अनुभव नहीं, लगातार उत्सवधर्मिता का शिकार होते और खन्डित चेतना जीने वाले ग्राहक का मनोलोक है।
‘आर्केड्स प्रोजेक्ट’ की प्रेरणा बेंजामिन को बॉदलेयर पर अपने अध्ययन के दौरान मिली। ‘लेस फ्ल ड्यू माल’ (‘फ़्लावर ऑफ़ इविल’) की कविताओं में बॉदलेयर ने पहली बार एक आधुनिक महानगर को कविता का विषय बनाया था। इन कविताओं में शहर की सड़क पर मनुष्यों की भीड़ है और हर आदमी इस भीड़ में अकेला है। उसे चारों तरफ़ से अर्थहीन शोर, चकाचौंध और विज्ञापनों ने घेर लिया है। इस सबके बीच बॉदलेयर का नायक शहर की सड़कों पर नाकामो-नासाजा भटकता फिरता एक आवारा (फ्लेनैर) है। बॉदलेयर पर अध्ययन के दौरान बेंजामिन जो नोट्स ले रहे थे, वे ‘आर्केड्स प्रोजेक्ट’ के रूप में स्वतन्त्र अध्ययन का विषय बन गये। 'पेरिस द कैपिटल ऑफ नाइंटींथ सेंचुरी' नामक बॉदलेयर सम्बन्धी अपने अधूरे अध्ययन के दो ड्राफ़्ट बेंजामिन ने ‘आर्केड्स प्रोजेक्ट’ के आरम्भ में ही दिये हैं। 'आर्केड्स प्रोजेक्ट' में पेरिस की सड़कों पर निट्ठल्ले घूमते हुए बेंजामिन बाज़ार की हलचलों में जो कुछ भी देख और समझ रहे थे, उस विशाल सामग्री को असंख्य छोटी-छोटी टिप्पणियों, प्रभाव चित्रों, सूक्तियों और उद्धरणों के रूप में उन्होंने कुछ दिलचस्प उप शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया है। उप-शीर्षकों के कुछ उदाहरण हैं– ‘फैशन’, ‘बोरियत’, ‘इस्पात के ढाँचे’, ‘प्रदर्शनियाँ और विज्ञापन’, ‘स्वप्न-नगरी और स्वप्न -गृह’, ‘भविष्य का सपना’, ‘आवारा-गर्द’, ‘वेश्याएँ’, ‘जुआ’, ‘पेरिस की सड़कें’, ‘आईने’, ‘प्रकाश व्यवस्था’, ‘फ़ोटाग्राफ़ी’ इत्यादि। बेंजामिन के यहाँ आवारागर्द (फ्लेनैर) की यह स्थिति शहरों की आत्मा में घुसने का आधार देती है क्योंकि बाज़ार में तमाम कामकाजी और आत्मलिप्त लोगों के बीच निरुद्देश्य भटकता यह वह व्यक्ति है जो उपयोगितावाद के जंजाल से मुक्त है और अपने आप से बाहर निकलकर दूसरों को देख सकता है।
‘आर्केड्स प्रोजेक्ट’ में बेंजामिन का उद्देश्य पूँजीवादी आधुनिकता के उदय की द्वन्द्वात्मक छवियों को निर्मित करना था, जिनका केन्द्रीय 'लोकेल' 19वीं सदी के प्रारम्भिक दशकों का पेरिस के भव्य सुपर बाज़ार थे, जहाँ पूँजीवादी संस्कृति अपनी आंखें खोल रही थी और नये मिथक रचे जा रहे थे। बेंजामिन का यह मानना था कि अतीत के भग्नावशेष हमेशा हमारे वर्तमान में मौजूद रहते हैं और उन आद्य बिंबों का अध्ययन करते हुए वर्तमान की शक्ल बनायी जा सकती है। यह 19वीं सदी के शुरुआती वर्षों में पूँजीवाद की राजधानी पेरिस का स्वप्न-लोक था जहाँ बाज़ारों में फ़ंतासी, विभ्रम और मरीचिकाएँ रची जा रही थीं और एक आदिम दुनिया को नये मिथकों के द्वारा पुनरुज्जीवित किया जा रहा था। बेंजामिन यहाँ एक खोये हुए समय के खन्ड चित्रों को बटोर रहे थे, जहाँ स्वप्न और जागरण की अद्भुत द्वन्द्वात्मक लीला थी। पेरिस के आवां गार्द कलाकारों से उनका परिचय हो चुका था। लुई अरागां और आंद्रे ब्रेतां की दुनिया को वे जान चुके थे और अतियथार्थवादी कला आन्दोलन के उपकरण उनके पास थे। 1930 में अपने मित्र गर्शेम सोलेम को एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि ‘पेरिस आर्केड्स’ मेरी सारी लड़ाईयों और विचारों की रंगशाला है। बेंजामिन सम्भवतः अतियथार्थवादी कला का इस्तेमाल करते हुए मोंताज शैली में अपने मानसिक प्रभावों, दृश्यों, उद्धरणों और टिप्पणियों को रखना चाहते थे। यह काम अधूरा रह गया। छोटी-छोटी टिप्पणियों, सूक्तियों, दृश्य-खन्डों, असंख्य उद्धरणों और गद्यांशों से भरे हुए लगभग एक हज़ार पृष्ठों के इस कच्चे माल का अन्तिम रूप क्या बनता, इसे आज कोई नहीं जानता। लेखिका सूसन बक-मोर्स ने इस अधूरी सामग्री में अपनी कल्पना का रंग भरते हुए ‘बेंजामिन : द डाइलेक्टिस ऑफ़ सीइंग' नामक एक अद्भुत पुस्तक लिखी है जिसमें बेंजामिन के कच्चे माल को एक तरतीब और व्याख्या देने का दिलचस्प प्रयोग किया है।
बेंजामिन के लिए 'आर्केड्स प्रोजेक्ट' का यह कार्य अख़बारी टिप्पणियों के रूप में शुरू हुआ था जहाँ उन्हें पूँजीवादी उद्योग और शहरीकरण के कला रूपों पर पड़ते प्रभावों का ही अध्ययन करना था पर धीरे-धीरे यह कार्य फैलकर 19वीं सदी की भौतिक संस्कृति के विराट अध्ययन में तब्दील हो गया और इसने बेंजामिन के जीवन के बाद के तमाम वर्षों को आच्छादित कर लिया।
बेंजामिन ने देखा कि ये शापिंग केन्द्र राजमार्गों के किनारे थे, इनकी काँच की मेहराबदार छतें थीं और संगमरमर के फ़र्श थे। ये शापिंग आर्केड्स मौसम की दख़लंदाज़ी से मुक्त एक अबाधित मायालोक रच रहे थे। इनमें गैस से जलने वाली बत्तियाँ थीं और इन्होंने पेरिस के पुराने सितारों-भरे आकाश को ओझल कर दिया था। इन बाज़ारों में व्यापार और मानव-सम्प्रेषण के नये साधनों से जन्मी एक ख़ास तरह की गहमागहमी और उल्लास था। राहगीर इस सबमें स्वयं को घिरा हुआ पाता था। बेंजामिन ने इन बाज़ारों में फ़ैशन के तेज़ी से बदलते चलन को देखा। इन बाज़ारों में इस्पात के ढाँचे और शीशे में मढ़ी आन्तरिक साज-सज्जा ने बाह्य और भीतर के अन्तर को मिटा दिया था। सड़क आपके बैठकख़ाने तक आती थी और आपका बैठकख़ाना एकदम सड़क की हलचलों के बीचोंबीच स्थित था। निजी और सार्वजनिक के बीच का परम्परागत भेद संकट में पड़ गया था। बेंजामिन नये बने रेल्वे स्टेशनों और विशाल प्रदर्शनी-कक्षों को देख रहे थे। उन्होंने इन बाज़ारों में भटकते हुए भीड़ की नानाविध मनस्थितियों को देखा। इन महानगरीय केन्द्रों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में रागात्मक निरन्तरता नहीं, भीड़ के बीच आकस्मिक मुलाक़ातों से जन्मी 'इरॉटिक' उत्तेजना थी। इनमें वांछित वस्तुओं की भरमार थी पर भौतिक वस्तुओं का विशाल कबाड़खाना भी था। व्यापार, आवागमन और अपने मूल स्थानों से उखड़कर आये लोगों के सनसनीखेज सम्बन्धों ने सारे परम्परागत सम्बन्धों को क्षतिग्रस्त कर दिया था।
पेरिस के 'आर्केड' का अध्ययन करते हुए बेंजामिन देखते हैं कि बाहर के सार्वजनिक समय में भले ही एक उत्सवधर्मिता, कोलाहल और आमोद हो पर घरों के भीतर एक अन्तर्भूत उदासी और ऊब है। ये घर जर्जर हो चुके जेलख़ानों की तरह हैं। आर्केड भी और कुछ नहीं कुछ गलियाँ हैं जिन्हें ढँककर बाज़ार बना दिया गया है। यहाँ जगह को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट दिया गया है; दैनिक जीवन की बाधाओं, तनावों और उदासियों को इस बाज़ार से हटा दिया गया है। यह एक स्वप्न-लोक है। इन ख़ुशहाल बाज़ारों में गरीब और बीमार और लाचार कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते। बीमारों, पागलों और फटेहालों को दूर कहीं धकेल दिया गया है। बाकी पूरा समय एक विस्मृति का समय है। (कहना न होगा कि तीस वर्ष बाद मिशेल फूको की कुछ प्रसिद्ध उत्तर-आधुनिक अवधारणाओं के बीज वाल्टर बेंजामिन के ‘पेरिस आर्केड्स’ में मौजूद हैं)।
बेंजामिन बाज़ारों में घूमते हुए हाशिये पर पड़े ख़ामोश और अदृश्य जीवन को देखते हैं– वह सब जो पुराना, अनुपयोगी, विकृत और हास्यास्पद हो चुका है। वे शहर की आन्तरिक पर्तों में छिपे हुए भिखारियों, जुआरियों, वेश्याओं, पागलों, विकलांगों और कूड़ा बीनते लोगों को देखते हैं। बेंजामिन आधुनिकता के इस दृश्य-प्रपंच को इस युग के सबसे चित्र-विचित्र प्रतिनिधियों के मार्फ़त एक ख़ास अर्थ देते हैं। ये सारे लोग शहरों के मायालोक और मिथकीय संसार में एक अलग रंग भरते हैं। बेंजामिन के लिए शहरों का यह मिथकीय संसार तमाम तरह की प्रवंचनाओं, अनिवार्यताओं और नृशंसताओं के मेल से बना है। ये अजीबोगरीब विरोधाभास परम्परागत एकध्रुवीय अवधारणाओं को भंग करते हैं। बेंजामिन इन द्वन्द्वात्मक छवियों में आधुनिक संस्कृति के प्रतिगामी और यूटोपिया की संभावना से युक्त दोनों प्रकार के तत्त्वों को विश्लेषित करना चाहते थे।
कहते हैं कि 1935 में बेंजामिन के इस प्रोजेक्ट को देखकर एडोर्नो ने आश्चर्य व्यक्त किया था कि केवल दृश्य-खन्डों और उद्धरणों का ढेर लगाते जाने से पूँजीवाद की व्याख्या कैसे हो सकती है। इस पर बेंजामिन का जवाब था कि परस्पर विरोधी दिखाई देती चीज़ों की द्वन्द्वात्मक छवि एक अन्योक्ति (एलगरी) की भूमिका को बख़ूबी निभा सकती है। इन चमकते बाज़ारों में हर तरफ आईने, धूल, मोम के पुतले और मशीनी गुड़ियाएँ हैं। ये प्रतीक-चिन्ह है। इनके आपसी सम्बन्धों से अन्योक्ति -भरे अर्थ निकलते हैं। वे कहते थे कि इसके लिए किसी सिद्धान्त की दख़लदाज़ी आवश्यक नहीं है।
बहरहाल, अधूरे रह गये इस 'आर्केड्स प्रोजेक्ट' की इन दिनों अनेक प्रकार की व्याख्याएं हो रही हैं। सबसे दिलचस्प व्याख्या यह है कि बेंजामिन इस कार्य के द्वारा इतिहास चेतना को विश्लेषित करने के परम्परागत तरीक़ों को ध्वस्त कर देना चाहते थे। ऐतिहासिक विश्लेषण में किसी ‘फ़िनोमिना’ या गोचर दृश्य की ऐतिहासिक स्थितियों और सामाजिक दशाओं का अध्ययन करते हुए आम-तौर पर इस धारणा का खन्डन किया जाता है कि कोई ‘फ़िनोमिना’ समयातीत, प्राकृतिक और अपरिहार्य क़िस्म का होता है। अपने मूल में यह धारणा 19वीं सदी के जर्मन स्वच्छन्दतावाद से जन्मी थी पर मार्क्स ने भी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के उदय में प्राकृतिक नियमों को देखा था। बेंजामिन भी यह समझतें रहे थे कि स्वप्न और स्मृति का इतिहास होता है। पर क्रमशः वे इस निष्कर्ष की ओर पहुँच रहे थे कि ऐतिहासिक प्रगति में इस तरह का अन्धविश्वास इतिहास की उन प्रतिगामी शक्तियों को अनदेखा कर देता है जो परिवर्तन और प्रगति की चमक-दमक के पीछे से हमेशा झाँकती रहती है। बेंजामिन कथित ऐतिहासिकता के भीतर नैसर्गिक अनिवार्यताओं के वर्चस्व को उजागर करना चाहते थे। वे विकास और प्रगति के मिथकों के भीतर से जन्मते फ़ासीवाद और नेशनल सोशलिज़्म की व्याख्या की ओर बढ़ रहे थे। उनका मानना था कि फ़ासीवाद का उभार अचानक नहीं हुआ। बर्बरता की ओर इस आगमन के संकेत तो 19वीं सदी के विकसित पूँजीवाद की तथाकथित 'अग्रिम' और 'विकासवादी' संस्कृति में ही मिल रहे थे। आज की बर्बरता उस दौर की तहों में छिपी हुई है। बेंजामिन का 'आर्केड्स प्रोजेक्ट' उस सरोकार का ही एक प्रतिफल था जो अपनी युवावस्था में स्वच्छन्तावादी छात्र आन्दोलन के ध्वस्त हो जाने के समय से ही उन्हें मथता रहा था। वे जैसे बार-बार इस केन्द्रीय सच की ओर लौटना चाहते हैं कि बर्बरता और नृशंसता के पुराने मिथक आधुनिकता, प्रगति, तार्किक बुद्धिवाद का भेस बदल कर आ रहे हैं कि और अब वे हाशिये पर नहीं एक सदी की राजधानी के बीचोबीच दिखाई दे रहे हैं। इस अवधारणा की ओर आते हुए उन्होंने सबसे ज़्यादा चर्चित वक्तव्य दिया था कि “पूँजीवाद एक नैसर्गिक फ़िनोमिना है, जिसके द्वारा यूरोप एक बार फिर सो गया है और वह मिथकीय शक्तियों के पुनरागमन का स्वप्न देख रहा है।'' बेंजामिन का दावा था कि आधुनिक समय किसी निरन्तर सरल रैखिक विकास प्रक्रिया का अन्तिम बिन्दु नहीं है और आधुनिक समय को मनुष्य के प्रयत्नों या उपलब्धियों के चरम के रूप में देखना भी एक भ्रम है। यह आधुनिकता सभ्यता के शिखर को नहीं रच रही, बल्कि वह यातनाओं और बर्बरताओं के नये संस्करणों को प्रस्तुत कर रही है। प्रगति में अन्धविश्वास एक आत्मतुष्टि को जन्म देता है। वह युग जिसे आधुनिकता, विज्ञान और टेक्नॉलाजी की उपलब्धियों के युग के रूप में देखा जा रहा है और जिसका एक सार्वभौमिक इतिहास बनाया जा रहा है, उस युग को अन्तिम विश्लेषण में मनुष्य की मुक्ति-कामना की विफलता और भीषण आपदाओं के युग के रूप में समझा जाना चाहिए।
लुकाच ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास और वर्ग चेतना’ में इस धारणा को रखा था कि पूँजीवादी समाज में एक छद्मचेतना की प्रक्रिया (रिइफीकेशन) चलायी जाती है जिसमें मौजूदा मानव सम्बन्धों को वस्तुनिष्ठ बनाकर इस तरह पेश किया जाता है मानो ये ही सम्बन्ध नैसर्गिक और अपरिहार्य हों। मार्क्स ने वस्तुओं के मायालोक के बारे में कहा था। वाल्टर बेंजामिन के ‘आर्केड्स प्रोजेक्ट’ में ये सच्चाइयाँ नये मिथकों की शक्ल ले लेती हैं और आगे की विवेचना का विषय बनती हैं। बेंजामिन ने देखा कि बाज़ार में फ़ैशन के नाम पर परिवर्तन की रफ़्तार को बेहद तीव्र बना देना उपभोक्ता वस्तुओं के अर्थशास्त्र और टेक्नॉलाजी की अन्तर्निहित आवश्यकताएँ हैं। पुरानी पड़ती वस्तुएँ आद्य बिम्बों में बदल जाती हैं। बेंजामिन के पास अतियथार्थवाद के औज़ार थे। वे लुकाच से एक क़दम आगे जाकर यह कहना चाहते थे कि पूँजीवादी बाज़ार में रची गयी छवियाँ और उनका मायाजाल मनुष्य के मन के एक अनियन्त्रित और आदिम संवेग को तो व्यक्त करता ही है, वह उसकी वास्तविक आन्तरिक अतृन्प्त आकांक्षाओं और अधूरे रह गये सपनों को भी ध्वनित करता है जिनकी अपनी एक मार्मिकता है। बेंजामिन को अपने चिन्तन में अतियथार्थवाद के उपकरणों के साथ यहूदी धार्मिक रहस्यवाद में निहित अन्योक्ति का आधार भी प्राप्त था। वे वस्तुओं की मरीचिका में स्वप्न-जगत् की उद्घाटित सामग्री को पढ़ रहे थे। बेंजामिन ने कहा था कि यदि फ़ंतासी और छायाभास को हम जान सकें तो उन्हें निरी बकवास या पलायन की स्थिति कहकर ख़ारिज नहीं कर सकते। इन्हीं फ़ंतासियों और छायामासों में प्रतिगामिता के साथ-साथ भविष्यवादिता और यूटोपिया के क्षण भी परस्पर गुँथे हुए हैं। बेंजामिन अपने इस 'आर्केड्स प्रोजेक्ट' को स्वप्न और जागरण की द्वन्द्वात्मकता से भरा प्रयोग मान रहे थे।
वाल्टर बेंजामिन अकेले थे पर उनका यह अकेलापन एक बन्द कमरे का अकेलापन नहीं था। उनका यह अकेलापन उस आदमी का अकेलापन था जिसने आवारगी की रचनात्मकता को जाना था, जो उपयोगिता के ख़िलाफ़ था, जो दिवास्वप्नी था; जो मिथकों, इच्छाओं, सपनों और मुक्ति के बारे में सजग था। बेंजामिन की इस भटकन और खुले छूटने की निर्वैयक्तिकता में एक गली, एक बाज़ार, एक भूल –भुलैया को उसकी आन्तरिक तहों में जाकर समझने की ललक थी। यह थीम उनके लेखन में बार-बार आती है। वे स्मृति की ओर लौटते हैं और चीज़ों में छिपी परम्परा के रहस्य को निरखते हैं। उनकी वैयक्तिकता में एक समूची सार्वजनिकता थी। वे एक सार्वजनिक समय में वैयक्तिकता के सर्वाधिक सघन खन्डों को उठा सकते थे। उन्होंने एक जगह लिखा है कि, “शहर में अपने रास्ते को न पाना ज़्यादा रोचक स्थिति नहीं है, लेकिन शहर में अपने रास्ते को खो देने के लिए– जैसे कि जंगल में किसी की राह खो जाती है, बड़े धीरज की ज़रूरत है। मैंने इस कला को अपने जीवन में देर से सीखा। इसने उन सपनों को पूरा कर दिया जिसके शुरुआती चिह्न मेरी स्कूली कॉपी में स्याही सोख़्ते की भूल-भुलैया में मिले थे।”
1926 में बेंजामिन जब मास्को गये तो वहाँ उन्होंने दुकानों, रेस्त्राओं, मयख़ानों, संग्रहालयों, कार्यालयों और कारख़ानों को तो देखा ही वे नाटकों, फ़िल्मों और संगीत की महफ़िलों में भी गये। इसी के साथ वे सड़कों पर भिखारियों, बच्चों, परचूनियों, फेरीवालों के बारे में भी नोट्स ले रहे थे। वे दुकानों के साइनबोर्डों, कारों की संख्या, चर्च की घन्टियों, कपड़ों की डिज़ाइनों और नगरवासियों की दिनचर्या में एक बदलते इतिहास की अन्दरूनी लय को निरख रहे थे। बेंजामिन ने मास्को मे नियमित डायरी लिखी। वह क्रान्ति के 8-9 वर्ष बाद का मास्को था। बेंजामिन को रूसी भाषा नहीं आती थी पर वे रोजमर्रा के दृश्यों में रूस की आन्तरिकता को पकड़ रहे थे। बाद में इसे उन्होंने आकृति विज्ञान (फिजिग्नॉमिक) का तरीक़ा कहा जिसमें किसी अमूर्तता की ओर बढ़ने या मूल्य-निर्णय की उतावली दिखाने के बजाय तथ्यों को स्वयं अपनी बात कहने दी जाती है।
मानचित्र और रेखाचित्र, स्मृतियाँ और स्वप्न, भूल-भुलैया और बाज़ार, विथिकाओं और दृश्य-पटलों के रूपक उनके लेखन में बार बार आते हैं। वे अतीत की किसी चीज़ को याद करते हैं तो वह उन्हें भविष्य-कथन करती नज़र आती है, क्योंकि स्मृति का काम समय की कारा को ध्वस्त कर देना है। बेंजामिन के संस्मरणों में समय का कोई तरतीबवार सिलसिला नहीं है। इन संस्मरणों को वे आत्मकथात्मक लेखन भी नहीं मानते क्योंकि तारीख़ यहाँ अप्रासंगिक है। ‘बर्लिन क्रॉनिकल’ में उन्होंने अपने बचपन की स्मृतियों को संजोया है। वे लिखते हैं कि, “यहाँ मैं एक 'स्पेस' के बारे में कह रहा हूँ जो क्षणों की क्रमभंगता से जन्मा है।”। बेंजामिन ने प्रूस्त का अनुवाद किया था। वे कहते हैं, “स्मृति अतीत को मंचित करती है और घटनाओं का प्रवाह एक दृश्य में बदल जाता है।” “ओरिजन ऑफ़ जर्मन ट्रेजिक ड्रामा” में वे बरॉक कला के नाटककारों के बारे में लिखते हैं कि, “वहाँ कालानुक्रम की गतिशीलता को स्थान की छवियों में पकड़ा और विश्लेषित किया गया है"। इस शोध-कार्य में बेंजामिन ने न केवल पहली बार इस अर्थ को तलाशा कि समय को स्थान में रूपान्तरित करने का अर्थ क्या है, बल्कि वे ऐसे किसी प्रयास के पीछे की मूल भावना को भी पकड़ते हैं। वे कहते हैं, “बरॉक कला विश्व इतिहास में एक मनहूस कालखन्ड की अवसाद मंडित जागरूकता है। यह एक अनवरत क्षरण के बीच से उपजी थी और बरॉक नाटककार इतिहास से भागकर एक समयातीत स्वर्ग को हासिल करना चाहता है। कलाकृति अनुभव का वह रूप सँजोती है, जिसमें अन्धकार में जिये क्षणों और एक आततायी निरन्तरता को भंग कर देने की क्षमता होती है।”