चार्ली चैप्लिन के आत्मकथा मेरी आत्मकथा, अनुवाद सूरज प्रकाश, का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
मुझे अचानक लगा कि माँ और बाहर की दुनिया के साथ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। माँ सुबह से अपनी किसी सहेली के साथ बाहर गई हुई थीं। वापस लौटीं तो बहुत अधिक उत्तेजित थीं। मैं फ़र्श पर खेल रहा था और अपने आसपास चल रहे भीषण तनाव के बारे में सतर्क था, ऐसा लग रहा था मानो मैं कुएँ की तलहटी में सुन रहा होऊँ। माँ भावपूर्ण तरीक़े से अपनी बात बता रही थीं, रोए जा रही थीं और बार-बार आर्मस्ट्रांग का नाम ले रही थीं – आर्मस्ट्रांग ने यह कहा या आर्मस्ट्रांग ने वह कहा। आर्मस्ट्रांग जंगली है। माँ को इस तरह की उत्तेजना में पहले मैंने कभी नहीं देखा था और यह इतनी तेज़ थी कि मैंने रोना शुरू कर दिया। मैं इतना रोया कि मजबूरन माँ को मुझे गोद में उठाना पड़ा और दिलासा देना पड़ा। हालाँकि मुझे उस दोपहरी की बातचीत के महत्त्व का पता कुछ बरस बाद चल पाया जब माँ अदालत से लौटीं जहाँ उन्होंने मेरे पिता पर बच्चों के भरण-पोषण का ख़र्चा-पानी न देने की वजह से मुक़दमा कर रखा था और बदक़िस्मती से मामला उनके पक्ष में नहीं जा रहा था। आर्मस्ट्रांग मेरे पिता का वकील था।
मैं अपने पिता को बहुत ही कम जानता था और मुझे बिलकुल भी याद नहीं कि वे कभी हमारे साथ रहे हों। वे भी वैराइटी स्टेज के कलाकार थे। एकदम शान्त और चिन्तनशील। उनकी आँखें एकदम काली थीं। माँ का कहना था कि वे एकदम नेपोलियन की तरह दीखते थे। उनकी हल्की महीन आवाज़ थी और उन्हें बेहतरीन अदाकार समझा जाता था। उन दिनों भी वे हर हफ़्ते चालीस पौंड की शानदार रक़म कमा लिया करते थे। बस, दिक़्क़त सिर्फ़ एक ही थी कि वे शराब बहुत पीते थे। माँ के अनुसार यही उन दोनों के बीच झगड़े की वजह थी।
उन दिनों स्टेज कलाकारों के लिए यह बहुत ही मुश्किल बात होती कि वे अपने आपको पीने से रोक सकें। कारण यह था कि उन दिनों शराब सभी थियेटरों में बिका करती थी और कलाकार की अदाकारी के बाद उससे उम्मीद की जाती थी कि वह थियेटर बार में जाए और ग्राहकों के साथ बैठकर पीए। कुछ थियेटर तो बॉक्स-ऑफ़िस के मुक़ाबले शराब से ज़्यादा कमा लिया करते थे। यहाँ तक कि कुछेक कलाकारों को जो तगड़ी तनख़्वाह दी जाती थी उसमें उनकी प्रतिभा का कम और उस पगार को थियेटर के बार में उड़ाने का योगदान ज़्यादा रहता था। इस तरह से कई बेहतरीन कलाकार शराब के चक्कर में बर्बाद हो गए—मेरे पिता भी उनमें से एक थे। ज़्यादा शराब के कारण वे मात्र सैंतीस बरस की उम्र में भगवान को प्यारे हो गए।
कई बार माँ मज़ाक़ में और कई बार उदासी के साथ उनके क़िस्से बताया करती थीं। शराब पीने के बाद वे उग्र हो जाते थे और एक बार उनकी इसी तरह की दारूबाज़ी की नौटंकी में माँ उन्हें छोड़-छाड़कर अपनी कुछ सहेलियों के साथ ब्राइटन भाग गई थीं। तथा उनके द्वारा हड़बड़ी में भेजे तार, “तुम्हारा इरादा क्या है, तुरन्त जवाब दो?” का माँ ने भी वापसी तार से जवाब दिया, “नाच, गाना, पार्टियाँ और मौज़-मज़ा, डार्लिंग!”
माँ दो बहनों में बड़ी थीं। उनके पिता चार्ल्स हिल्स, एक आइरिस मोची थे, जो काउंटी कॉर्क, आयरलैंड से आए थे। उनके गाल सुर्ख़ सेबों की तरह लाल थे और उनके सिर पर बालों के सफ़ेद गुच्छे थे। उनकी सफ़ेद दाढ़ी वैसी ही थी जैसी व्हिस्लर के पोर्ट्रेट में कार्लाइल की। वे कहा करते थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन के दिनों में पुलिस से बचने के चक्कर में गीले नम खेतों में छुपे रहने के कारण उनके घुटनों में हमेशा के लिए दर्द बैठ गया और इस कारण वे झुककर चलते थे। आख़िर में वे लंदन आकर बस गए और अपने लिए ईस्ट लेन वेलवर्थ में जूतों की मरम्मत का काम तलाश लिया।
नानी काफ़ी घुमक्कड़ थीं। यह बात हमारे सारे परिवार को पता थी। वे हमेशा इस बात की शेखी बघारा करती थीं कि उनका परिवार हमेशा ज़मीन का किराया देकर रहता आया था। उनका घर का नाम स्मिथ था। मुझे वे एक शानदार बुढ़िया के रूप में याद हैं जो हमेशा मेरे साथ बातचीत करके नन्हे-मुन्ने बच्चों जैसी बातें मुझसे किया करती थीं। मेरे छह बरस के होने से पहले ही वे चल बसीं। वे नाना से अलग हो गई थीं। हालाँकि इसका कारण उन दोनों में से कोई भी नहीं बताता था। लेकिन केट यानी माँ की छोटी बहन के अनुसार इसके पीछे एक पारिवारिक झगड़ा था। दरअसल, नाना की एक प्रेमिका थी और एक बार उसे बीच में लाकर नाना ने नानी को हैरानी में डाल दिया था।
आमतौर पर सामान्य पारिवारिक मानदंडों के माध्यम से हमारे ख़ानदान की नैतिकता को मापना उतना ही ग़लत होगा जितना गर्म पानी में थर्मामीटर डालकर देखना। इस तरह की आनुवंशिक क़ाबिलियत के साथ मोची परिवार की दो प्यारी बहनों ने घर-बार छोड़ दिया और स्टेज को समर्पित हो गईं।
केट आंटी, माँ की छोटी बहन, भी स्टेज की अदाकारा थीं। लेकिन हम उनके बारे में बहुत ही कम जानते थे। इसका कारण यह था कि वे हमारी ज़िन्दगी में आती-जाती रहती थीं। वे देखने में बहुत आकर्षक और ग़ुस्सैल स्वभाव की थीं, इसलिए माँ से उनकी कम ही पटती थी। उनका कभी-कभार आना भी अचानक किसी छोटे-मोटे झगड़े में ही ख़त्म होता था, यानी माँ ने उन्हें कुछ-न-कुछ उलटा-सीधा कह दिया होता था या कर दिया होता था।
अट्ठारह बरस की उम्र में माँ एक अधेड़ आदमी के साथ अफ़्रीका भाग गई थीं। वे अक्सर वहाँ की अपनी ज़िन्दगी की बात किया करतीं कि किस तरह से वे वहाँ पेड़ों के झुरमुटों, नौकरों और जीन कसे घोड़ों के बीच मस्ती भरी ज़िन्दगी जी रही थीं।
उनकी उम्र के अट्ठारहवें बरस में मेरे बड़े भाई सिडनी का जन्म हुआ था। मुझे बताया गया था कि वह एक लॉर्ड का बेटा था और जब वह इक्कीस बरस का हो जाएगा तो उसे वसीयत में दो हज़ार पौंड की शानदार रक़म मिलेगी। इस बात से मैं एक ही साथ दुखी और ख़ुश हुआ करता था।
माँ बहुत अरसे तक अफ़्रीका में नहीं रहीं और इंग्लैंड आकर उन्होंने मेरे पिता से शादी कर ली। मुझे नहीं पता कि उनकी ज़िन्दगी के अफ़्रीकी घटनाचक्र का अन्त क्या हुआ, लेकिन भयंकर ग़रीबी के दिनों में मैं उन्हें इस बात के लिए कोसा करता था कि वे इतनी शानदार ज़िन्दगी क्यों छोड़ आई थीं। वे हँस देतीं और कहा करतीं कि तब वे इन चीज़ों को समझने के लिए बहुत छोटी और नासमझ थीं।
मुझे कभी भी इस बात का अन्दाज़ा नहीं लग पाया कि वे मेरे पिता के बारे में किस तरह की भावनाएँ रखती थीं। लेकिन जब भी वे मेरे पिता के बारे में बात करती थीं, उसमें कोई कड़ुवाहट नहीं होती थी। इससे मुझे शक होने लगता था कि वे ख़ुद भी उनके प्यार में गहरे तक डूबी हुई हैं। कभी तो वे उनके बारे में बहुत सहानुभूति के साथ बात करतीं तो कभी उनकी शराबख़ोरी की लत और हिंसक प्रवृत्ति के बारे में बताया करती थीं। बाद के बरसों में जब भी वे मुझसे ख़फ़ा होतीं, तो हिक़ारत से कहतीं, “तू भी अपने बाप की ही तरह किसी दिन अपने आपको गटर में ख़त्म कर डालेगा।”
वे पिताजी को अफ़्रीका जाने से पहले के दिनों से जानती थीं। वे एक-दूसरे को प्यार करते थे और उन्होंने ‘शम्स ओ ब्रायन’ नाम के एक आयरिश मेलोड्रामा में साथ काम किया था। सोलह बरस की उम्र में माँ ने उसमें प्रमुख भूमिका निभाई थी। कम्पनी के साथ टूर करते हुए माँ एक अधेड़ उम्र के लॉर्ड के सम्पर्क में आईं और उसके साथ अफ़्रीका भाग गईं। जब वे वापस इंग्लैंड आईं तो मेरे पिता ने अपने रोमांस के टूटे धागों को फिर से जोड़ा और दोनों ने शादी कर ली। तीन बरस बाद मेरा जन्म हुआ। मैं नहीं जानता कि शराबख़ोरी के अलावा और कौन-सी घटनाएँ या वजहें रही थीं लेकिन मेरे जन्म के एक बरस बाद ही वे दोनों अलग हो गए। माँ ने गुज़ारा भत्ते की माँग भी नहीं की थी क्योंकि उन दिनों वे ख़ुद एक स्टार हुआ करती थीं और हर हफ़्ते 25 पौंड कमा रही थीं। उनकी माली हैसियत इतनी अच्छी थी कि अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण कर सकें। लेकिन जब दुर्भाग्य ने उनकी ज़िन्दगी में दस्तक दी, तब उन्होंने मदद की माँग की। अगर ऐसा न होता तो उन्होंने कभी भी क़ानूनी कार्रवाई न की होती।
माँ को उनकी आवाज़ बहुत तकलीफ़ दे रही थी। यूँ तो पहले भी उनकी आवाज़ कभी इतनी बुलन्द नहीं थी लेकिन अब तो ज़रा-सा भी सर्दी-ज़ुकाम होते ही उनकी स्वर-तंत्री में सूजन आ जाती थी जो हफ़्तों चलती थी; फिर भी उन्हें मजबूरी में काम करते रहना पड़ता था। इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी आवाज़ बद से बदतर होती चली गई। अब वे अपनी आवाज़ पर भरोसा नहीं कर सकती थीं। गाना गाते-गाते बीच में ही उनकी आवाज़ भर्रा जाती या अचानक ही बन्द होकर फुसफुसाहट में बदल जाती। इस पर श्रोता ठहाके लगाने लगते या गला फाड़कर चिल्लाना शुरू कर देते। आवाज़ की चिन्ता ने माँ की सेहत को और भी डाँवाँडोल कर दिया था तथा उनकी हालत मानसिक रोगी जैसी हो गई थी। नतीजा यह हुआ कि उन्हें थियेटर से बुलावे आने कम होते गए और एक दिन ऐसा भी आया कि बिलकुल ही बन्द हो गए।
यह उनकी आवाज़ के ख़राब होते चले जाने के कारण ही था कि पाँच बरस की उम्र में मुझे पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। आमतौर पर माँ मुझे किराये के कमरे में अकेला छोड़कर जाने के बजाय रात को अपने साथ थियेटर ले जाना पसन्द करती थीं। वे उस वक़्त कैंटीन एट एल्डरशॉट में काम कर रही थीं जो कि एक गन्दा, चलताऊ-सा थियेटर था और ज़्यादातर फ़ौजियों के लिए खेल दिखाता था। वे उजड्ड क़िस्म के लोग होते थे और उनके भड़कने या ओछी हरकतों पर उतर आने के लिए मामूली-सा कारण ही काफ़ी होता था। एल्डरशॉट के नाटकों में काम करने वालों के लिए वहाँ एक हफ़्ता भी गुज़ारना भयंकर तनाव से गुज़रना होता था।
मुझे याद है, मैं उस वक़्त विंग्स में खड़ा हुआ था। पहले तो माँ की आवाज़ फटी और फिर फुसफुसाहट में बदल गई। श्रोताओं ने ठहाके लगाने शुरू कर दिये, वे अनाप-शनाप गाने लगे और कुत्ते-बिल्लियों की आवाज़ें निकालने लगे। सब कुछ अस्पष्ट-सा था, मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या चल रहा है। लेकिन जब शोर-शराबा बढ़ता ही चला गया तो मजबूरन माँ को स्टेज छोड़कर आना पड़ा। जब वे विंग्स में आईं तो बुरी तरह से व्यथित थीं और स्टेज मैनेजर से बहस कर रही थीं, जिसने मुझे माँ की सहेलियों के सामने अभिनय करते देखा था; शायद वह माँ से कह रहा था कि अपने स्थान पर वे मुझे स्टेज पर भेज दें।
और इसी हड़बड़ाहट में मुझे याद है कि उसने मुझे एक हाथ से थामा और स्टेज पर ले गया। मेरे परिचय में दो-चार शब्द बोले और मुझे स्टेज पर अकेला छोड़कर चला गया। जहाँ फ़ीटलाइटों की चकाचौंध और धुएँ के पीछे से झाँकते चेहरों के सामने मैंने गाना शुरू कर दिया। ऑर्केस्ट्रा भी मेरा साथ देने की कोशिश कर रहा था। थोड़ी देर तक तो वे थोड़ा गड़बड़ बजाते रहे लेकिन अन्ततः उन्होंने मेरी धुन पकड़ ही ली। यह उन दिनों का एक मशहूर गाना ‘जैक जोंस’ था।
अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूँगा, उसके बाद ही गाना गाऊँगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगने लगे। स्टेज मैनेजर एक रूमाल लेकर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के अपने पास रखना चाहता है। मैंने यह बात दर्शकों से कह दी। इस पर ठहाकों का जो दौर शुरू हुआ उसने थमने का नाम ही नहीं लिया। ख़ास तौर पर तब जब वह रूमाल लिये-लिये विंग्स में जाने लगा और मैं चिन्तातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने सिक्कों की वो पोटली मेरी माँ को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापस नहीं आया। अब मैं बिलकुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं नाचा और मैंने तरह-तरह की नक़ल करके दिखाई। मैंने माँ के आयरिश मार्च गाने की भी नक़ल करके दिखाई।
इस तरह कोरस को दोहराते हुए मैं अपने भोलेपन में माँ की आवाज़ के फटने की भी नक़ल कर बैठा और मैं यह देखकर हैरान था कि दर्शकों पर इसका ज़बर्दस्त असर पड़ा। हँसी के पटाखे छूट रहे थे। लोग बहुत ख़ुश थे और इसके बाद फिर से सिक्कों की बौछार। और जब माँ मुझे स्टेज से लिवाने के लिए आईं तो उनकी मौज़ूदगी पर लोगों ने जमकर तालियाँ बजाईं। उस रात मैं अपनी ज़िन्दगी में पहली बार स्टेज से उतरा था और माँ आख़िरी बार।