गगन गिल के मैं जब तक आई बाहर का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


एक पल में होना था

अचानक ख़त्म हो गए सब काम
रुकी रह गई
हवा में साँस

न कहीं जाने को जगह
न पहुँचने को

न बची चिन्ता
न कोई
प्रार्थना

पहले अन्न हुआ अस्वीकार
फिर फल
दूध सब

कम हुए घंटे
घट और पल
लँगड़ी हुई घड़ी
फिर लूली

काला हुआ चाँद
खिड़की के बाहर

वनस्पतियाँ काली
दिन काला

डोर काट अकेली
उड़ीं तुम गगन में

डूबी एक किश्ती
गड़गड़ सीने में

उजली तुम्हारी साँस
आख़िर तक
दलदल में

होंठों पर आख़िर तक
नाम प्रार्थना का

आकाश से
बरसा एक कोड़ा

मैं डरी
हम डरे

जा दुबके भीतर
तुम्हारे मृत गर्भ में

एक पल में होना था
एक पल में हुआ

अन्य यह संसार


हमारे लिए नहीं होगा जल

हमारे लिए नहीं होगा
जल
दूसरे लोकों में

हम नहीं होंगे
किसी भी प्रार्थना में

हमारे लिए नहीं होगा
लौटने का
कोई रास्ता
कोई नहीं दिखाएगा हमें

अपना दिया
एक बार की उड़ान बस
और जल जाएँगे
पंख सब

एक बार का चलना बस
और जल जाएँगे
पुल सब

आकाश में फूटतीं
पटाखों की लड़ियाँ

एक कोई नदी
तकती होगी
हमारी राह

उसमें भी नहीं होगा
हमारे लिए
जल


तितली ने कहा

तितली ने कहा
कुल नौ दिन
मैं तुम्हारे पास हूँ
बगीचा यूँ ही रखना

तीसरे दिन
झर जाने वाला था गुलाब

गुड़हल
उसी दिन शाम को

हरसिंगार के पास थे
कुल जमा एक घंटा तीन मिनट

कुछ भी नहीं
रहने वाला था थिर

न ओस, न जल
न आँख, न आँसू

कुल नौ दिन का जीवन उसका
उड़ती फिरती थी वह
जहान भर में

कह गई थी मुझसे
बगीचा यूँ ही रखना


मैं जब तक आई बाहर

मैं जब तक आई बाहर
एकान्त से अपने
बदल चुका था
रंग दुनिया का

अर्थ भाषा का

मंत्र और जप का
ध्यान और प्रार्थना का

कोई बन्द कर गया था
बाहर से
देवताओं की कोठरियाँ

अब वे खुलने में न आती थीं

ताले पड़े थे तमाम शहर के
दिलों पर
होंठों पर

आँखें ढक चुकी थीं
नामालूम झिल्लियों से
सुझाई कुछ पड़ता न था

मैं जब तक आई बाहर
एकान्त से अपने
रंग हो चुका था लाल
आसमान का

यह कोई युद्ध का मैदान था
चले जा रही थी
जिसमें मैं

लाल रोशनी में
शाम में

मैं इतनी देर में आई बाहर
कि योद्धा हो चुके थे
लड़ते-लड़ते
अदृश्य
शहीद

युद्ध भी हो चुका था
अदृश्य
हालाँकि
लड़ा जा रहा था
अब भी
सब ओर

कहाँ पड़ रहा था
मेरा पैर
चीख़ आती थी
किधर से

पता कुछ चलता न था

मैं जब तक आई बाहर
ख़ाली हो चुके थे हमारे हाथ
न कहीं पट्टी
न मरहम

सिर्फ़ एक मंत्र मेरे पास था
वही अब तक याद था

किसी ने मुझे
वह दिया न था
मैंने ख़ुद ही
खोज निकाला था उसे
एक दिन
अपने कंठ की गूँ-गूँ में से

चाहिए थी बस मुझे
तिनका-भर कुशा
जुड़े हुए मेरे हाथ
ध्यान
प्रार्थना

सर्वम शान्ति के लिए

मंत्र का अर्थ मगर अब
वही न था
मंत्र किसी काम का न था

मैं जब तक आई बाहर
एकान्त से अपने

बदल चुका था मर्म
भाषा का


गगन गिल के रचना-संसार को उन्हीं की एक कविता के रूपक में देखते हैं। वह खास कविता है― “तितली ने कहा”

तितली ने कहा
कुल नौ दिन
मैं तुम्हारे पास हूँ 
बगीचा यूँ ही रखना

तीसरे दिन
झर जाने वाला था गुलाब

गुड़हल
उसी दिन शाम को

हरसिंगार के पास थे
कुल जमा एक घंटा तीन मिनट

कुछ भी नहीं
रहनेवाला था थिर

न ओस, न जल
न आँख, न आँसू

कुल नौ दिन का जीवन उसका
उड़ती फिरती थी वह
जहान भर में

कह गई थी मुझसे
बगीचा यूँ ही रखना

“मैं जब तक आई बाहर" संग्रह की यह कविता संसार की क्षणभंगुरता के बारे में जितनी है उससे अधिक उसके सौंदर्य और उस सौंदर्य की अक्षुण्णता के बारे में है। तितली का जीवन भले नौ दिन का हो या हरसिंगार का मात्र एक घंटे तीन मिनट का लेकिन उनका सौंदर्य, सुगंध और उनके रंग इस संसार में सदा-सदैव के लिए शाश्वत सुंदरता के प्रतीक हैं। ठीक इसी तरह गगन जी की लेखनी, उनकी कविताएँ, उनके शब्द हिन्दी भाषा और भाव-जगह के शाश्वत अनश्वर सौंदर्य के प्रतीक हैं। भाव-बोध और अभिव्यक्ति की वह दृढ़ता जो कोमल है और अपनी कोमलता में भी ठोस, स्पष्ट, सुगठित और दृढ़ है – वह है गगन गिल की कविता।

उनके पाँच कविता संग्रह― एक दिन लौटेगी लड़की’, अंधेरे में बुद्ध, यह आकांक्षा समय नहीं, थपक थपक दिल थपक थपक, मैं जब तक आई बाहर के साथ ही प्रतिनिधि कविताएँ भी प्रकाशित हैं। उन्होंने कन्नड़ भक्त कवि-अक्क महादेवी की कविताओं का हिन्दी भावानुवाद भी किया है।

ऐतिहासिक क्रम से किसी कवि की रचनाशीलता से गुजरने का एक लाभ यह होता है कि उनका एक स्पष्ट विकासक्रम दिखता है। ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ की ‘लड़की’ अपनी आकांक्षाओं, वेदना, विषाद, राग-विराग, मोह-विमोह और बुद्धत्व के जीवन-पथ पर चलते-चलते ‘मैं जब तक आई बाहर' की पूर्ण स्त्री बन जाती है। दोस्ती, प्रेम, राग और विरह के रास्ते वे दर्शन तक पहुँचती हैं। पुरस्कृत संग्रह के कई आंतरिक उपभाग है – तुम सुई में से निकलती हो, ये जो जल मैं पीती हूँ, कौन रख गया है तुम्हें यहाँ, स्वप्न के बाह – ये सभी उपभाग साधना और संसार के अलग-अलग कोनों को रोशन करते हैं।

गगन गिल दर्शन को भी पुकार के रास्ते खोलती हैं, जिसे ‘इस तरह खोलते हैं लंगर’ कविता में आप देख सकते हैं –

आप खोलते हैं अपने लंगर
और कोई नहीं रोकता
आपकी राह
कोई नहीं पुकारता
किनारे से
कोई यह तक नहीं देखता
कि आप उठ गए हैं
सभा से

देह के सादेपन और आत्मा के भीतर बसे शोक से लंगर खोलने तक की यह आकांक्षा-भरी यात्रा, अपनी वेदना कवि आपको सौंपती हैं, लेकिन सवाल वही है कि कविता की दुनिया के नागरिक की मनुष्य होने की पात्रता क्या है?

एक अ-पुरुष और अ-स्त्री की बात उनकी कई कविताओं में है। संभवतः वे ही हैं कविता की दुनिया के सच्चे मनुष्य जिनके लिए वे लिखती हैं –

दिन के दुख अलग थे
रात के अलग
दिन में उन्हें
छिपाना पड़ता था
रात में उनसे  छिपना

यह सिर्फ स्त्रियों के और उसमें भी स्त्रियों के देह के दुख नहीं है। यहाँ रात भी वही रात नहीं है जो दिन और रात के संदर्भ में है। एक दुख जो हम बाँट सकते हैं और एक दुख जो हमें सब से छुपा कर अपने सीने पर रखना पड़ता है वह –

दुख जो सोचते थे
दिन में
वे रात में नहीं
जो रात को रुलाते
वह दिन में नही

वह दुख स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करता है। “धीरे-धीरे दृश्य से ओझल होता आदमी” भी सिर्फ़ आदमी या कोई औरत नहीं है, वह आज का मनुष्य है। देह से ऊपर होकर संवेदना की यह धरातल गगन गिल के यहाँ सहज उपलब्ध है।

गगन गिल की अधिकांश कविताएँ गहरे भावों की हैं मगर शब्दों के साथ उनका रिश्ता भावात्मक से ज्यादा बौद्धिक है। हर एक कविता में शब्द एकदम कसे हुए। सुगठित। विलंबित काव्य भाषा है – आन्तरिक लय से भरी सहज गद्य की भाषा, जिसमें किसी एक शब्द को भी अतिरिक्त रूप से रहने की इजाजत नहीं, कोई पंक्ति भी अनावश्यक नहीं। इसीलिए कई पंक्तियाँ सूक्ति वाक्य की तरह प्रतीत होती हैं –

पत्थर की तरह डूबती थी
वह
तैरती थी
लकड़ी की तरह। 

होना भिक्षु
जैसे होना निर्वासित
ईश्वर के राज्य में। 

अभी तक तुम दिखते हो
पीड़ा में नहीं
अपने सहने में। 

देवता हो चाहे मनुष्य
देह मत रखना किसी के चरणों में। 

उनकी लेखनी में वर्तमान अपनी सभी जटिलताओं और राजनीतिक उथल-पुथल के साथ उपस्थित है।

एक गऊ मेरे भीतर है
जिसे कटने का डर है
इस गऊ से अलग
जिसे खिलाया जा रहा है चारा
जिसके साथ खींची जा रही है फ़ोटो 

यह सिर्फ एक संयोग था
अंधेरे में हुई गफ़लत
कूद बैठी यह गऊ
मेरे भीतर
अब हम दोनों को
कटने का डर है
बचने का डर है। 

जैसी पंक्तियों वाली यह कविता है – “एक गऊ मेरे भीतर है”। “अयोध्या में पुण्य स्मृति” और “कभी-कभी अपना सच” जैसी कविताएँ वही हैं जो बिना किसी हिचक के इस समय के सच को सशक्त तरीक़े से कहतीं हैं और बताती हैं कि कविता में जब समय उपस्थित होता है तो वह इतिहास से भिन्न होकर भी इतिहास का अभिन्न पाठ बन जाता है।

पुरस्कृत संग्रह से उल्लेखनीय कविताएँ हैं – एक पल में होना था, जो भी था, धीरे-धीरे दृश्य से, दिन के दुख अलग थे, मुझे यदि पता होता, हमारे लिए नहीं होगा जल, तितली ने कहा, अयोध्या में पुण्य स्मृति, तुम्हारे बादल में कभी, देवता हो, चाहे मनुष्य, देवता नहीं, कोई मनुष्य, लौटना पड़ता है, कभी-कभी अपना सच, मैं वहां थी मगर, एक गऊ मेरे भीतर है, इस तरह खोलते हैं लंगर।

– सुदीप्ति