मालिनी अवस्थी के किताब चन्दन किवाड़ का एक अंश, अनुवाद प्रभात सिंह, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


निमिया के डाढ़ मईया लावेली झुलुहवा हो की झूली रे झूली ना
निमिया के डाढ़ मईया लावेली झुलुहवा हो की झूली रे झूली ना
हो की झूली रे झूली न
की मईया मोरी गावेली गीतियाँ हो की झूली रे झूली ना

देर शाम का समय था, गाँवों में मन्द बल्बों की रोशनी में घने पेड़ों की हरियाली छाया थोड़ी कालिमा लिए हुए थी और हम सोनभद्र में चोपन के भी आगे एक छोटे से सुन्दर गाँव में थे। पठारी भूभाग में स्थित मिर्जापुर सोनभद्र में हम इस क्षेत्र के प्रसिद्ध जनजातीय लोकनृत्य करमा के मुख्य दल नायक कतवारु के न्योते पर पहुँचे थे।

मुझे देखते ही कतवारु और गुठली दौड़े चले आये अगवानी को। हमने एक-दूसरे को अंकवार में भर रखा था, आसपास ढेर सारे लोग जुट आये थे, मैंने चारों ओर निगाह घुमाई, गाय, बकरियों और मुर्गियों का समवेत स्वर उस अवसर को कैसी दिव्यता प्रदान कर रहा था, क्या कहूँ! गुठली और कतवारु, करमा लोकनृत्य के मुख्य कलाकार! इनसे मेरा परिचय बहुत पुराना है। ‘सोनचिरैया' की स्थापना के अवसर पर जब मैंने करमा के कलाकारों को बुलाया था, तब शायद पहली बार मुख्यधारा के श्रोताओं, दर्शकों से पहला परिचय हुआ था हमारे इतने सुन्दर जनजातीय लोकनृत्य का!

तब से नेह-स्नेह का ऐसा भावभीना रिश्ता बन गया हमारा कि वे कभी भी बड़े अधिकार से हमें फ़ोन मिलाकर हाल पूछ लेते या अपनी कोई समस्या साझा कर लेते। एक घटना का ज़िक्र यहाँ बेहद ज़रूरी है।

संगीत नाटक अकादेमी की ओर से असम, गुवाहाटी में मुझे उत्तर प्रदेश की लोक-संस्कृति पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने को कहा गया था। मैंने करमा के कलाकारों को चलने के लिए टिकट आदि कराने के लिए उनके नाम, पते सब मँगवाये। उन्हें अपने गाँव से बनारस तक आना था, वहाँ से गुवाहाटी के लिए जहाज़-यात्रा की व्यवस्था थी। जब सब तय हो गया, तो जिस दिन निकलना था, कतवारु का मेरे पास फोन आया—'दीदी हम बनारस नाहीं आ सकत। पइसा नाहीं बचो।' मैंने बताया कि सब व्यवस्था तो हो गयी, गाड़ी तैयार है, राह -ख़र्च वग़ैरह सब आपको मिल जायेगा, आप बस आ जायें। कतवारु ने आगे जो कहा, वह सुनकर मैं रो पड़ी!

कतवारु कह रहा था—'दीदी घरे एको रुपइया नाहीं है। जानवर का चारा नाहीं, घर में लड़कन को दाना नाहीं। गइया गिरवी रखे दई, दौड़े आई रहे हैं।' मैं हतप्रभ! इतना अभाव! यह कैसा दुर्भाग्य था! संस्कृति का दर्शन कराने वाले हमारे लोक-कलाकारों की स्थिति क्या है? गाय को गिरवी रखकर मंच पर उत्सव सजाने से बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा। मैंने फौरन उनको आर्थिक सहायता पहुँचाई, उनकी गाय छुड़वाई और वे प्रसन्नतापूर्वक अपने गाँव से निकल पड़े।

ऐसे कतवारु के बुलावे पर मैं आज उनसे मिलने गाँव आयी थी। हालाँकि करमा से हमारा परिचय पुराना था, किन्तु करमा को उसी मिट्टी में ठेठ शैली में देखने का, कलाकारों से मिलने का लोभ मैं कहाँ संवरण करने वाली थी!

लोकनृत्य, लोकगीत, लोकनाट्य कभी मंच के लिए नहीं बने थे, मंच पर आना तो एक विवशता थी। वे तो देश, काल सापेक्ष हैं। थोड़ी ही देर में मेरे सामने करमा आरम्भ हो गया। रंग-बिरंगी ऊँची साड़ियाँ बाँधे, बालों में पंख और फूल सजाये स्त्रियाँ गोला बनाकर लयबद्ध हो थिरकने लगीं। उनमें से एक स्त्री के हाथ में नीम का एक छोटा पौधा है। सब स्त्रियाँ नीम को प्रणाम करती हुई झूम रही हैं—

निमिया के डार मइया डालेरी हिंडोलवा मइया झूली झूली ना...

नीम के पेड़ों के नीचे नीले आसमान के तले घास के मैदान में चारों ओर लोग बैठे हैं, सौभाग्य से मैं यहाँ उपस्थित, इस अद्भुत अनुभव को आँखों से मन में समेट रही हूँ। नीम की झूमती डालियों से पत्तों की आ रही आवाज़ और बग़ल में बहते पठारी झरने की कल-कल ध्वनि को सुनते हुए मैं प्रकृति को समर्पित होते हुए मानो स्वयं सुर, ताल, लय हुई जा रही हूँ।

शीतला देवी को मनाती हुई रिझाती हुई अत्यन्त गाती समर्पण भाव से वे सब जा रही थीं। सन्नाटे में मादल की थाप पर ये आवाज़ें ऐसी सुनाई पड़ रही थीं मानो यह समवेत ध्वनि किसी और युग, किसी और कालखण्ड से बहती हुई यहाँ हमारे पास तक पहुँच रही है, निर्मल पवित्र सहज सुन्दर! मादल की थाप में थिरकती हुई सभी स्त्रियाँ नाचते हुए झुकती हैं और सब मिलकर नीम के पौधे को प्रणाम करती हुई सामने रख देती हैं। मादल-वादक भी तेज लय में नाचता हुआ नीम के आगे शीश झुकाता। तभी वही स्त्रियाँ एक ओझा को साथ लेकर आती हैं। ओझा के बदन पर सिर्फ़ एक धोती है, ओझा नीम के सम्मुख बैठ जाता है।

गीत का स्वर ऊँचा होता जा रहा है, लय भी तेज होती जा रही है। मैं देखती हूँ, ओझा की आँखें बन्द होती जा रही हैं, धीरे-धीरे उसकी आँखें चढ़ने लगती हैं। हमारे देखते ही देखते वह ऊपर से नीचे तक काँपने लगता है। काँपते हुए वह अपने सर को गोल-गोल घुमा रहा है, इस समय उसकी आँखें, उसका रूप, तेज देखते ही बनता है, ओझा के ऊपर देवी का रूप आ गया है, स्त्रियों के हाथ श्रद्धा से जुड़े हुए हैं, मादल की थाप और तेज हो गयी है। पुरुषों का नृत्य और गतिमय हो गया है।

सब साँस रोके इस दृश्य को देख रहे हैं। मैं देखती हूँ, सभी दर्शकों के हाथ जुड़े हुए हैं। मेरे भी हाथ जुड़ चुके हैं और उन्हें देखते हुए मैं मन ही मन सोच रही हूँ, विश्वास पर तो यह सृष्टि टिकी है, हम सबका अस्तित्व टिका है। विश्वास ही तो है, जो जीवन का सम्बल है। हमारे पूर्वज कितने दूर-द्रष्टा थे। उन्होंने प्रकृति का माहात्म्य समझा, उपासना की और अपने लोक-विश्वास, लोक-मूल्यों, अपनी आस्था, अपनी धारणाओं, अपने लोक-देवताओं और अपने पूजा-अनुष्ठानों, अपने पर्व-त्योहारों की सांस्कृतिक परम्परा को बनाये रखने के लिए कला को माध्यम बनाया।

नीम के वृक्ष की पूजा जनजातीय समाज की अद्भुत ज्ञान परम्परा का प्रतीक है। एक सजग समाज का प्रकृति के प्रति कृतज्ञ भाव है। नीम का पेड़ ऐसा पेड़ है जिसकी छाल, टहनियाँ, पत्तियाँ और फल सभी गुणकारी हैं। नीम में शीतला मैया का वास मानना नीम के औषधीय गुणों को आदर देना है। महामारी हो या कोई बीमारी, नीम का उपचार शीतलता प्रदान करेगा, इस विश्वास से उस दैवीय रोग उपचारिणी शक्ति को शीतला माई कह आदर दिया हमारे पूर्वजों ने। इसीलिए नीम की टहनियों और पत्तियों से रोगियों का उपचार करते हुए यह पचरा हमारी पुरखिनों द्वारा गहरे भक्ति भाव में डूबकर, रचकर गाया जाता है। ऐसा कोई लोक गायक या गायिका नहीं है, जो इस लोकप्रिय 'पचरे' को नहीं गाता हो। गीत देवी को समर्पित है और देवी का नीम की डाल पर झूला झूलना नीम के देवत्व को रेखांकित करता है। जिस वृक्ष की शक्ति सबको आरोग्य प्रदान करती हो, वह दैवीय ही तो है! हमारे आदिवासी जनजातीय ग्राम समाज को यह मालूम था कि एक अकेला नीम का वृक्ष परिवार को रोग से मुक्त रखता है, इसीलिए उत्तर भारत में हर घर में एक नीम का पेड़ ज़रूर मिलेगा। सोचिए, नीम की वैज्ञानिकता से कितनी भली-भाँति भिज्ञ थे हमारे पूर्वज! तभी मेरे विचार में आता है कि मैं इस समय उस भूमि पर बैठी हूँ, जहाँ विश्व की प्राचीनतम सभ्यता ने साँस ली है। कैमूर पहाड़ी में बहती हुई सोन नदी के किनारे बसा यह पवित्र अंचल ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अनूठा है। इस माटी में करोड़ों वर्ष पूर्व मनुष्य ने अपनी बस्ती बसाई थी, यहाँ मिले प्राचीन जीवाश्म, इसके साक्षी हैं। जहाँ आदि सभ्यता प्रकट हुई चेरो, सीरी, कोल, खरवार और बैगा जनजातियों ने अपने परिश्रम और सहज-सरल जीवनशैली के साथ अपना नीड़ बसाया। उनकी जीवनशैली और विश्वासों से प्रेरणा ले सकती है आज की दुनिया।

जैसे ही मादल की गति थमी, मेरे विचार प्रवाह की गति भी टूटी, मैंने देखा, ओझा को कन्धे पर बैठाए हुए स्त्री-पुरुष एक सीधी पंक्ति में नृत्य करते हुए दूर जा रहे थे। तालियों और मादल की गूंज के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मैंने कतवारु से कह ओझा से मिलने की इच्छा प्रकट की। उसकी पत्नी गुठली ने हमसे कहा–‘बहिनी, अबहिं मत जावो, उई अबहीं गरम हैं। बहुत तेज गरम!'

गुठली के इस वाक्य का अभिप्राय मैं बखूबी समझती थी। देवी चढ़ने के बाद ओझा को सामान्य होने में समय लगेगा। फिर भी मैं अँधेरे में ही इस तरह बढ़ चली, जहाँ नीम के पेड़ के नीचे वह ओझा अकेले बैठा था।

मैंने इसे देखा, भूमि पर बैठे ओझा ने अपनी विस्फारित लाल आँखें मेरी ओर घुमाईं। वह दृष्टि असामान्य थी। वह जैसे इस लोक में था ही नही! गुठली मुझे खींचकर ले जा रही थी, चलो बहिनी कुछ मीठा खाकर पानी पियो। मैं आगे बढ़ी लेकिन ओझा से आँखें नहीं हट रही थीं, अब उसकी नज़रें भूमि पर थीं, वह ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ा रहा था, लोग एक-एक कर आते हुए दूर से उसे भूमि प्रणाम कर रहे थे। भाग्य मेरा जो मैं उस क्षण की द्रष्टा बनी। शीतला मइया की शक्ति को बहुत निकट से अनुभूत किया मैंने उस रात।

कतवा से मैंने पूछा —' कतवारु इसे 'करमा' क्यों कहते हैं।' 'कतवारु' के बदले गुठली ने उत्तर दिया, बहिनी, 'हम सब आदिवासी हैं, करम यानी मेहनत की पूजा करे लेन हम सब' मैं गुठली की विद्वता से प्रभावित थी। मेरे साथ आये इस क्षेत्र के एक अधिकारी ने कहा—आदिवासी कर्म को ही पूजा मानते हैं, फ़सल बोने और फ़सल के पकने पर सब मिलकर करमा करते हैं, अच्छे भाग्य की प्रार्थना करते हैं। आज आपने जो देखा वह शीतला मैया का आवाहून था। करमा के नृत्य में बहुत से विषय होते हैं, गाय चराना, शिकार खेलना, शक्तिपूजा, गृहस्थ जीवन, अनेक विषयों पर नृत्य करते हैं, अधिकतर धनगर, बैगा, पनिका, घसिया, गोंड आदि जनजातियाँ इसे अलग-अलग ढंग से करती हैं।

बाहर मैदान में दूसरा नृत्य आरम्भ हो गया था, आवाज़ सुनाई पड़ रही थी—

कवनी चिरइया सुख सोवै मइया रे
कवनी चिरइया रोवै रात रे...

वहाँ से उठने का जी तो नहीं था, किन्तु रात हो रही थी और मुझे आगे जाना था सिंगरौली।

कतवारु गुठली के सरल-सहज आतिथ्य से फारिग हो, फिर आने का वचन दे, मैं आगे की यात्रा के लिए गाड़ी पर बैठी, गाड़ी आगे बढ़ी और पीछे स्नेह अभिवादन से हाथ हिलाते करमा के कलाकार ग्राम-वासियों के खिले पवित्र चेहरे हृदय में अंकित हो गए। न जाने क्या सोच मैंने खिड़की से उचककर नीम के पेड़ की ओर झाँका, क्या पता ओझा अब तक उठ के चला गया हो, मैं हैरान रह गयी जब मैंने पाया कि ओझा अभी भी उसी तरह बैठा था, स्थितप्रज्ञ! सम्भवतः गाँव के अच्छे भाग्य की प्रार्थना में लीन करमा का पुजारी। मैंने श्रद्धा में हाथ जोड़ते हुए माथे से टिकाया, आज मैंने शक्ति की भक्ति के रहस्यवाद को अनुभूत किया था। आज मैं करमा नहीं देखकर आयी थी, समष्टि की कुशलता की कामना के लिए किये गये शक्ति पूजन के अनुष्ठान में अपनी आहुति अर्पित करके आयी थी।