सुरेश माहेश्वरी द्वारा मराठी से अनुवादित विश्वास पाटील के किताब अण्णा भाऊ साठे: दलित और स्त्री जगत् के श्रेष्ठ क़लमवीर का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


इस मुंबई में भीड़ है बेरोजगारों की, भीड़ में आ गया एक और, लाश पर गिरी मिट्टी की तरह दशा हो गई हमारी।

मार्च 1931 में मुंबई, असम और बंगाल में धार्मिक दंगों का उन्माद भड़क उठा था। यह मुंबई का हिंदू-मुस्लिमों का इधर का सबसे बड़ा दंगा था। उस समय सांप्रदायिक दंगों से मुंबई बोबिल (एक प्रकार की समुद्री मछली) मछली की तरह जल रही थी। इस दंगे के भयवश कई लोग मुंबई छोड़कर चले गए। दफ्तर सूने हो गए। कपड़ा मील बाबू, मजदूर, टोकरी ढोनेवाले सब मुंबई छोड़कर अपने-अपने प्रदेश की ओर भाग गए।

भायखला के चाँदबीबी चाल में भाऊराव मांग का परिवार जैसे-तैसे बसने की स्थिति में आ ही रहा था। एक दिन शाम के समय दो सौ मुसलमान गुंडों ने स्टेशन के पासवाले हनुमानजी के मंदिर को निशाना बनाया। कुछ ही घंटों में मंदिर चकनाचूर हो गया और हनुमानजी की मूर्ति हथौड़े से तोड़ डाली। दूसरे ही दिन भायखला में प्रतिशोध की भावना से 'जय भवानी' और 'हर-हर महादेव' की घोषणा देते हुए हिंदू गुंडों ने मस्जिद पर धावा बोल दिया। वह मस्जिद भी धराशायी हो गई। मुंबई की सड़कों पर सोडा वाटर की मोटे काँचवाली बोतलें और लोगों के सिर एक साथ फूट रहे थे। एक रात चाँदबीबी घबराते हुए आयी और अण्णाभाऊ के परिवार को जगा कर सूचना दी, "मेरी चाल पर काफिर लोगों का (हिंदुओं का) हमला होनेवाला है, इसलिए उस आग में जलाए जाने से तो अच्छा है कि आप अपना बोरिया-बिस्तर उठाकर भाग जायें।" यह बात अण्णाभाऊ के परिवार को ठीक लगी।

हड़बड़ी में अण्णा के परिवार ने जैसे-तैसे अपना सामान समेटा। उन्हें विदा करने के लिए भायखला स्टेशन तक चाँदबीबी और हसीना आए थे। जिस निराश्रित, निराधार, बनवासी हसीना को अण्णा के परिवार ने ममता की छाँव दी थी आज वे ही जातीय दंगों के अँधियारे में बेघर हो रहे हैं, यह सोच जड़ों से उखड़े पेड़ की भाँति हसीना दुख और आँसुओं से भर उठी थी। शंकरभाऊ द्वारा तीस साल पहले कहे गए वे शब्द मैं आज भी भूला नहीं हूँ।

भायखला से निकला हुआ अण्णाभाऊ का परिवार चेंबूर के पास विजय थिएटर के पड़ोस में रहने गया। उस जमाने में मील मजदूरों के हक हेतु कम्युनिस्ट पार्टी तथा मील-मालिकों में हमेशा संघर्ष छिड़ता रहता था। कई बार हड़ताल नामक हथियार उठाया जाता। ऐसे में "एक छोटा लड़का काम ढूँढ़ रहा था। वह काले रंग का था। सिर पर ऊलन की सतरंगी टोपी थी। फटा शर्ट पहने था। नीले रंग की आधी चड्डी पहने, नंगे पैर था। कुछ बीड़ियाँ, कुछ पान, कत्था, सुपारी टोकरी में रख कर सिर पर लिए हुए था। यह विलक्षण-अजूबा पात्र दूसरा और कोई नहीं मैं स्वयं ही था।"

अण्णा ने इन शब्दों में अपना वर्णन किया है।

हड़ताल की पृष्ठभूमि पर ऐन वक्त नई मजदूर-भर्ती की जाती। मील शुरू रखना और नई भर्ती के हथियार से हड़ताल तोड़ने की चालाकी मील मालिक करते। मील के मास्टर, लेबर ढूँढ़ने रास्ते पर दौड़ते फिरते। ऐसा ही एक बार मोरबाग मील का ट्रक नए मजदूरों को ढूँढ़ते आया। अण्णा को पकड़कर सीधे ट्रक में डाला और मोरबाग मील ले गया। मील को मजदूरों की बहुत जरूरत थी। उस समय चेंबूर नाका तक रोज मोटर गाड़ी लेने आती थी। जब हिंसाचार बंद हुआ, दंगे शांत हुए तब मोटर का आना बंद हो गया। अण्णाभाऊ रोज चेंबूर से दादर की मोरबाग मील तक पैदल आते-जाते। सह्याद्रि के वन-जंगलों में हिरनवत् दौड़नेवाले अण्णा के लिए यह चलना मुश्किल नहीं था। लेकिन अण्णाभाऊ की रोजमर्रा होनेवाली भागदौड खींचतान घरवालों से देखी नहीं गई। इसलिए अण्णा के पिताजी भाऊराव साठे दादर की ओर खोली ढूँढ़ने लगे। उन्हें टाटा पावर हाउस कंपनी के पास आगरी चाल में खोली मिली।

मोरबाग मील में वेटर लड़के की तरह प्रारंभ में छोटे-छोटे काम ही उनके हिस्से में आए। पहले, तारवाला, फिर बाजूवाला और डबल बाजूवाला के रूप में वे मील में काम करने लगे।

मास्टर विठ्ठल, नवीनचंद्र जैसे अभिनेताओं की अदाकारीवाले मूक सिनेमा का यह जमाना था। अण्णा ने 'फुलपाखरू' उपन्यास की प्रस्तावना में लिखा है, "मोरबाग मील में काम करते हुए मुझे अंग्रेजी सिनेमा देखने का गहरा शौक था। मैंने हॉलीवुड के कई सिनेमा वडाला, दादर के थिएटरों में भाई शंकर के साथ देखे। हम सिनेमा के दीवाने हो गए थे। सिनेमा के कथानक पर हमारी चर्चा चलती रहती।"

सिनेमा समझ में आए या न आए चार-चार, पाँच-पाँच बार हम देखते। फिर आगे चलकर अभिनय द्वारा ही भाषा कथानक सारे तत्व खून में उतर जाने की तरह समझ में आ जाते। मेरी दृष्टि से तो यह कलाकार के मन के लिए एक तरह का रियाज ही था। अण्णा जैसे अनपढ़ मनुष्य द्वारा आगे कई कहानी-उपन्यास लिखे गए। कथाविस्तार कौशल और चरित्र-चित्रण की विविधता के कई रंग शब्दों द्वारा प्रस्तुत किए गए। उसके पीछे यह सारी तपस्या थी।

उस जमाने में हॉलीवुड के सिनेमा में तलवारबाजी की भिड़ंत शिखर पर थी। इसे देख अण्णा के मन में पारंपरिक दांडपट्टा (एक मर्दाना खेल, लाठी से करतब दिखाना, गतका।) को नया आयाम देने की कल्पना सूझी। दांडपट्टा महाराष्ट्र का मर्दानी खेल है। अण्णा के साथ शंकरभाऊ भी इस काम में बड़े जोश-खरोश से लगे।

मोरबाग मील अर्थात् आज दादर पूर्व के शारदा सिनेमा टॉकीज के पीछे का और चित्रा सिनेमा टॉकीज के सामने की सड़क पर का चार-पाँच एकड़ का भूभाग। यहाँ पहले टाटा की स्प्रिंग मील नामक कपड़ा मील थी। पड़ोस में मोरबागवाड़ी होने से स्प्रिंगमील को लोग मोरबाग मिल कहते थे। अण्णा और शंकर को मूल सिनेमा देखने का घना शौक था। इसलिए दोनों भाई किंग सर्कल से अरोरा के आगे फोरास रोड की ओर 'मोती' और 'अलेक्जेड्रा' सिनेमा टॉकीज तक काफी भागदौड़ करते। उस जमाने में हिंदी की तुलना में विदेशों से आयात अंग्रेजी सिनेमा ही अधिक चलते थे। टिकट सामान्यतया दो या तीन आने होता था।

सिनेमा की शुरुआत में श्रेयनामावली की पट्टियाँ दिखाई जाती थीं। दर्शक जोर शोर से बड़ी आवाज में तकनीशियन और कलाकारों के नाम पढ़ते थे। अण्णा और शंकर दोनों भाई पढ़े न होने के कारण सिटपिटा जाते। परदे पर के कुछ अक्षर मन में याद कर बाहर आते। उन्हीं अक्षरों को दुकानों के साइनबोर्ड पर खोजते। अक्षर न पढ़ पाने का अण्णा को अपार दुख होता। मुंबई के जीवन का बड़ा व्यापक विस्तार देखकर अण्णाभाऊ विचारमग्न हो जाते। बढ़ती उम्र और अनुभवों की परिपक्वता के चलते अनपढ़ होने का भाव अण्णा के हृदय में टीस उत्पन्न करता। अण्णा झुंझलाकर अपने भाई शंकर से कहते, ऐसा ही ध्यान लगा कर पढ़ते रहेंगे, तो देखते हैं, कैसे पढ़ने में नहीं आता! हम पीछा नहीं छोड़ेंगे, हमें कुछ तो खटपट करनी ही पड़ेगी रे! अण्णा व्याकुल हो जाते, हड़बड़ा जाते, पुन: दृढ़ता को हल की तरह पकड़कर बोलते, “हमारे माथे में भैंसे का दिमाग तो नहीं रखा है न? मानव का ही है न? रास्ता तो मिलना ही चाहिए।"

इससे पूर्व अण्णा का अपनी माँ वालुबाई से शिक्षा के मुद्दे पर जोर से झगड़ा हुआ था। माँ की भोली उम्मीद, 'यदि थोड़ा-बहुत सीख लेगा तो तेरा बाप जो गोरे साहब के यहाँ माली का काम करता है, वहीं कहीं अच्छी नौकरी पर चिपका देगा।' लेकिन मुंबई के गतिशील जीवनरूपी हिरन को पकड़ना हो तो उसके पैर कसकर पकड़ने होंगे और बिना शिक्षा के यह संभव नहीं था। चाहे जो कुछ भी हो पर पढ़ाई जरूरी है ऐसा अण्णा को गहराई से लगने लगा।

उम्र बीत चुकी थी पर पढ़ने की दृढ़ता कुछ कम नहीं हुई। फिर वे दोनों भाई सड़क पर पड़े अखबार के टुकड़े उठाकर पढ़ने का प्रयास करने लगे। इस दरमियान सिनेमा के हीरो-हिरोइन के मजेदार किस्से 'प्रेक्षक' नामक मराठी पत्रिका में और 'मौज-मजा' नामक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित होते थे। आगे ये दोनों हिंदी में भी प्रकाशित होने लगीं। इसी तरह सड़कों के इर्दगिर्द लगे दुकानों के साइनबोर्ड, रद्दी के पुर्जे-चिट और सिनेमा संबद्ध पत्रिकाएँ उनकी आँखों के सामने बार-बार आती थीं। मानो शब्दों की उँगली पकड़कर दोनों भाइयों ने वर्णमाला सीखी। हलके-हलके पढ़ना भी सीख गए। सिनेमा-शौक के कारण वर्णमाला पर उन्होंने अधिकार पा लिया। साथ ही तलवारबाजी और दांडपट्टा खेल में भी नई चेतना मिली। मिल के साँचे पर काम करते-करते अण्णा को कविता लिखने की प्रेरणा मिली। वे गीत और पँवाड़े लिखने लगे।

इसी समय कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन-जुलूस मुंबई में शुरू हुए। अण्णा इसकी ओर अनायास खिंचते चले गए। अण्णा के पास सुरीले कंठ की पूँजी थी। शिवाजी महाराज और बाजी प्रभु के पँवाड़े गाने से वे मशहूर हो गए। अण्णाभाऊ ने इसी काल में पानीपत की लड़ाई पर भी पँवाड़ा की तर्ज पर काव्य रचना की। इसी रचना को पढ़ कर देशपांडे नामक एक व्यक्ति ने खुश होकर उसे एक रुपया इनाम में दिया। उस जमाने में सामान्य लोगों के लिए एक रुपया बैलगाड़ी के पहिये के समान लगता था। तब कराड से मुंबई लगभग तीन सौ किलोमीटर की रेलयात्रा का किराया केवल पचहत्तर पैसे था। इसलिए अण्णा को लगा काव्य लेखन का धंधा ही अच्छा है।

एक बार वर्णमाला अवगत होने पर अण्णाभाऊ को पढ़ने की गहरी प्यास लगी, इसलिए वे स्थान, समय और काल का बिना विचार किए शब्दों के पीछे पागल जैसे दौड़ने लगे। फुटपाथ पर पुरानी पुस्तकें बेचनेवाले लोगों से मिलने लगे। वहीं दो आने देकर, फुटपाथ पर किनारे बैठकर दिन-दिन भर पुस्तकें पढ़ते रहते। शुरुआत में 'हातिमताई', 'गुलबकावली', 'हरिविजय', 'रामायण', 'महाभारत' आदि पठनयात्रा जारी हुई। एक दिन उनके हाथों 'शिवचरित्र' की पुस्तक लगी। उसे पढ़ते-पढ़ते उनकी कल्पना का अश्व सरपट दौड़ने लगा। यहीं से ऐतिहासिक पँवाड़ों का झरना प्रकट हुआ।'

14 मार्च 1931 का दिन केवल मुंबइवासियों के लिए ही नहीं तो समूचे हिंदुस्तान की रसिक जनता के लिए उत्सुकता और अपूर्वता से आपूरित था। क्योंकि उस दिन गिरगाँव के मैजेस्टिक नामक सिनेमा थिएटर में 'आलम आरा' नामक पहला बोलनेवाला सिनेमा प्रदर्शित होनेवाला था। सिनेमा का गूँगा परदा बोलनेवाला था। तब तक अण्णा और शंकर कई मूक सिनेमा देख चुके थे| मराठी से ज्यादा अंग्रेजी देखे थे। अब परदा बोलेगा-के एहसास से ही दोनों भाइयों को हर्ष की गुदगुदी होने लगी। अण्णा ने शंकर को कहा, "भैया, जो होगा, वो होगा परंतु जोश के साथ बोलनेवाले थिएटर में जाकर पहले ही शो में देखना है। फिर चाहे जो हो।"

इस सिनेमा में काम करनेवाले वजीद अहमदखान, मुख्य हिरोइन जुबेदा आदि कलाकार इस समारोह में उपस्थित होनेवाले थे। उनके अलावा साठे बंधुओं का प्यारा, कसे हुए शरीरवाला मास्टर विठ्ठल भी आनेवाला था। इन भाइयों को उसे बालते हुए देखना था। टिकटें ब्लैक में बिकने लगीं। जिसे खरीदना इनके लिए संभव नहीं था। फिर भी इन्होंने हिम्मत से कुछ भी हो, सिनेमा तो देखना ही है, ऐसा निश्चय किया था।

अण्णा ने बारीकी से जानकारी हासिल की कि शिंदेवाड़ी में रहनेवाले पालव नामक एक युवा पहलवान की टोली है। आसपड़ोस के थिएटरों में ब्लैक टिकट बेचनेवाले लड़के उसी की टोली के थे। पालव एक मीलबाबू का ही लड़का है, यह जानकारी भी मिली। केवल इसी सूत्र से अण्णा उसकी खोली पर जा पहुँचे। इन दोनों सातारा के भाइयों का अपार उत्साह देखकर पहलवान भी खुश हुआ। आखिरकार इन दोनों को टिकट मिले।

थिएटर में मंगलवाद्य बज रहे थे। सिनेमा कलाकार (नट-नटी) और सूट-बूट पहने लोगों की काफी भीड़ थी। इस भीड़ में सिर पर कोल्हापुरी साफा और पीली पंजी, घुटने तक के लंबे कुर्ते में सातारा के ये दोनों बहादुर अलग ही दिखाई दे रहे थे। बोलनेवाला सिनेमा देखकर अण्णा और शंकर दोनों भाई बहुत खुश हुए। आगे चल कर कुछ सालों बाद ब्लैक टिकटे बेचनेवाला पहलवान पालव 'मास्टर भगवान' नामक बड़ा अभिनेता बन गया।

इसी समय अण्णा के मानस में संगीत वाद्यों के प्रति रुचि जाग्रत हुई, उन्हें चसका ही लग गया। वे वनों में सुरीली बाँसुरी उत्कृष्ट रीति से बजाते थे, पर अब उनका सधा हुआ हाथ हार्मोनियम और बुलबुल तरंग पर भी अच्छे से चलने लगा।

1934 के दरमियान कम्युनिस्ट पार्टी के आंदोलन, सम्मेलन की ओर अण्णाभाऊ आकर्षित हुए। वे स्वयं प्रचारक के रूप में पार्टी कार्यालय जाकर छोटे-बड़े काम करने लगे थे।

1934 के दरमियान ही उन्होंने कई जब्त (कुर्क की हुई) की हुई पुस्तकें पढ़ीं। "रूसी क्रांति का इतिहास, कॉमरेड लेनिन का चरित्र इन पुस्तकों का मेरे मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा।" ऐसा स्वयं अण्णा ने ही लिखा है। इसके सिवा मुझे एक बार पढ़ना आने लगा तो मैंने विगत दस-पंद्रह सालों में इतना पढ़ा कि ज्ञानेश्वरी से लेकर मराठी का लगभग पूरा साहित्य पढ़ डाला। ऐसा स्वयं अण्णाभाऊ ने मनोहर पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में बताया है। स.ह.मोडक ने कुछ रूसी पुस्तकें मराठी में प्रकाशित की थीं। अण्णा के हाथों मैक्सिम गोर्की नामक रूसी लेखक का 'मदर' उपन्यास लगा। इससे अण्णा काफी प्रभावित हुए। इसमें वर्णित यूरोपियन मजदूरों की बस्तियाँ, उनकी तकलीफें और अपने यहाँ के मुंबई के कपड़ा मील मजदूरों की स्थिति में कोई अंतर नहीं है-का एहसास उन्हें हुआ।

1934 को मुंबई में कपड़ा मिल मजदूरों की सर्वपक्षीय हड़ताल हुई। हड़ताल के लिए 23 अप्रैल की तिथि निश्चित की गई। कारण यह दिन मजदूर नेता शहीद परशुराम जाधव का स्मृति का दिन था।

अण्णा की बुद्धि एक स्थान पर टिकती नहीं थी। वह व्यापक थी। अण्णा ने परशुराम की सारी जानकारी इकट्ठा की। अण्णा मुंबई में ना.म.जोशी, कॉमरेड डांगे जैसे लोकप्रिय, कद्दावर मजदूर नेताओं की सभाओं में हाजिर रहते थे।

शिवड़ी में मजदूरों और पुलिसों में भिड़न्त हुई। इस घटना के साक्षी अण्णा थे। मजदूरों पर होनेवाले पुलिस अत्याचारों को देखकर उनका सातारी खून खौल उठा। गोरे सिपाहियों की लाठियों और बंदूकों से बचते हुए उन्हें जितना परेशान किया जाना संभव था; उतना अण्णा ने अपने सातारी तरीके से किया।

उम्र सोलह-सत्रह के बीच की। उनके शरीर में युवा जोश और देशप्रेम उबल रहा था। इस पर तुक्का यह भी कि अनूदित साहित्य के पठन से उनका सिर गर्म हो रहा था। अपने श्रमिक मजदूर भाइयों के लिए कुछ तो करना चाहिए इस विचार से प्रेरित होकर उनकी धमनियों में रक्त उफन रहा था।

इसी काल में डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर का मजदूर आंदोलन में सक्रिय सहभाग बढ़ा। एक मजदूर नेता के रूप में उनका नेतृत्व उभरा। 7 सितंबर 1938 को अम्बेडकर की स्वतंत्र पार्टी ने मील-मजदूरों को हड़ताल के लिए ललकारा। इस दिन मुंबई के लगभग एक लाख मजदूरों ने हड़ताल में सहभागिता दर्ज की। अपने मित्रों से चर्चा के समय अण्णा के कानों काफी बातें आयीं। कुछ पूँजिपतियों के दबाव के आगे प्रांतीय कांग्रेस नेता आ गए थे। हड़ताल के हथियार को फौजदारी गुनाह (क्रिमिनल क्राइम) तय करने का विधेयक कांग्रेस द्वारा असेंबली में रखा जाना था। इसका डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने कड़ा विरोध किया था। मजदूरों का राज लाने से पहले यहाँ की जातीय व्यवस्था को ठीक करना होगा ऐसे विचार बाबासाहेब के थे। अण्णा ने ये विचार 'जनता' नामक पत्र में पढ़े थे।

1938 में मुंबई की 73 कपड़ा मीलों में हड़ताल घोषित हो गई। यह हड़ताल कितने महीनों तक शुरू रहेगी इसका कोई अंदाजा नहीं था। रोजगार चौपट हो गया, डूब गया। अत: अण्णा ने मुंबई छोड़ने का निर्णय लिया। उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा, ऐसा कहना अधिक समीचीन होगा।