अनुपम मिश्र की किताब बिन पानी सब सून का एक अंश, राजकमल प्रकाशन और रज़ा पुस्तक माला द्वारा सह-प्रकाशित।
आज हर बात की तरह पानी की राजनीति भी चल निकली है। पानी तरल है, इसलिए उसकी राजनीति भी जरूरत से ज्यादा बहने लगी है। देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गाँवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच भी पानी को लेकर एक न एक लड़ाई हर जगह मिलेगी। मौसम विशेषज्ञ बताते हैं कि देश को हर साल मानसून का पानी निश्चित मात्रा में नहीं मिलता, उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति “आईएसआई मार्का” तराजू लेकर पानी बाँटने निकलने वाली पनिहारिन नहीं है। तीसरी-चौथी कक्षा से हम सब जलचक्र पढ़ते हैं, अरब सागर से कैसे भाप बनती है, कितनी बड़ी मात्रा में वह “नौतपा” के दिनों में कैसे आती है, कैसे मानसून की हवायें बादलों को पश्चिम से, पूरब से उठाकर हिमालय तक ला जगह-जगह पानी गिराती हैं, हमारा साधारण किसान भी जानता है। ऐसी बड़ी, दिव्य व्यवस्था में प्रकृति को मानक ढंग से पानी गिराने की परवाह नहीं रहती। फिर भी आप पायेंगे कि एकरूपता बनी रहती है। जिस चेरापूँजी में देश का सबसे ज़्यादा पानी गिरता था, वहाँ आज भी सबसे ज़्यादा पानी बरसता है। केन्द्र में सरकार बदल जाने से प्रकृति का चेरापूँजी के लिए वाटर बजट कम या ज्यादा नहीं होता। इसी तरह जिस मरुप्रदेश राजस्थान में सबसे कम पानी गिरता है, वहाँ की स्थिति भी नहीं बदलती। लेकिन पानी की राजनीति ने प्रकृति के इस स्वभाव को भूलने की अक्षम्य ग़लती की है। इसलिए हम प्रकृति से क्षमा नहीं पा सके हैं।
हमने विकास की दौड़ में सब जगह एक-सी आदतों का संसार रच दिया है, पानी की एक जैसी ख़र्चीली माँग करने वाली जीवनशैली को आदर्श मान लिया है। अब सबको एक जैसी मात्रा में पानी चाहिये और जब नहीं मिल पाता तो हम सारा दोष प्रकृति पर, नदियों पर थोप देते हैं।
अब हमारे सामने नदियों को जोड़ने की योजना भी रखी गयी है। देश के जिस भूगोल ने लाखों साल की मेहनत से इस कोने से उस कोने तक तरह-तरह से छोटी-बड़ी नदियाँ निकालीं, अब हम उसे दोष दे रहे हैं और चाहते हैं कि एक नदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक क्यों नहीं बही? अभी भी करने लायक छोटे-छोटे कामों के बदले अरबों रुपये की योजनाओं पर बात हो रही है। इस गोद में कुछ ही पहले तक हज़ारों नदियाँ खेलती थीं, उन सबको सुखाकर अब हम चार-पाँच नदियों को जोड़कर उनका पानी यहाँ-वहाँ ले जाना चाहते हैं। बदली राजनीतिक परिस्थितियों ने नदी-माला परियोजना पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाली टास्क फोर्स के पूर्व अध्यक्ष सुरेश प्रभु को बदल दिया है, लेकिन कोई प्रमाण नहीं है कि योजना रोक ली गयी है। जो काम सचमुच के प्रभु का था, उसे सुरेश प्रभु करने जा रहे थे, लेकिन राजग सरकार के जाने से वह काम फ़िलहाल टल गया है। जलसंकट प्रायः गर्मियों के दिनों में आता था, अब वर्ष भर बना रहता है। ठण्ड के दिनों में भी शहरों में लोग नल निचोड़ते मिल जायेंगे। राजनीतिक रूप से जो शहर थोड़े सम्पन्न और जागरूक हैं, उनकी ज़रूरत पूरी करने के लिए पानी पड़ोस से उधार भी लिया जाता है और कहीं-कहीं तो चोरी से खींच लिया जाता है, लेकिन बाक़ी पूरा देश जलसंकट से उबर नहीं पाता। इस बीच कुछ हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करके जलसंग्रह, पानी रोको जैसी कई योजनायें सामने आयी हैं। वाटरशेड डेवलपमेंट अनेक सरकारों और सामाजिक संगठनों ने अपनाकर देखा है, लेकिन इसके खास परिणाम नहीं मिल पाये। शायद एक बड़ी ग़लती हमसे यह हो रही है कि हमने पानी रोकने के समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध तरीक़ों को पुराना या परम्परागत करार देकर छोड़ दिया है। यदि कुछ लाख साल से प्रकृति ने पानी गिराने का तरीक़ा नहीं बदला है तो हम भी उसके सेवन के तरीक़े नहीं बदल सकते। प्यास लगती है, अकाल की आग लगती है, तो सरकार और समाज कुआँ खोदना शुरू कर देते हैं। कहावत में तो कुआँ खोदने पर शायद पानी निकलता भी है पर सरकारी आयोजनों और योजनाओं में इस पानी का रंग कुछ और ही दिखता है।
तालाब, बावड़ी जैसे पुराने तरीकों की विकास की नयी योजनाओं में बहुत उपेक्षा हुई है। न सिर्फ शहरों में, बल्कि गाँवों में भी तालाबों को समतल कर मकान, दुकान, मैदान, बस स्टैंड बना लिए गये हैं। जो पानी यहाँ रुक कर साल भर ठहरता था, उस इलाके के भूजल को ऊपर उठाता था, उसे हमने नष्ट कर दिया है। उसके बदले हमने आधुनिक ट्यूबवेल, नलकूप, हैण्डपम्प लगाकर पानी निकाला है। डालना बन्द किया और निकालने की गति राक्षसी कर दी और मानते रहे कि सब कुछ हमारे अनुकूल चलेगा, लेकिन अब प्रकृति हमें हर साल चिट्ठी भेजकर याद दिला रही है कि हम ग़लती कर रहे हैं। इसकी सजा भुगतनी होगी। कभी पानी का प्रबन्ध और उसकी चिन्ता हमारे समाज के कर्तव्य-बोध के विशाल सागर की एक बूँद थी। सागर और बूँद एक-दूसरे से जुड़े थे। बूँद अलग हो जाये तो न सागर रहे, न बूँद बचे।
सात समुन्दर पार से आये अँग्रेज़ों को न तो समाज के कर्तव्य-बोध का विशाल सागर दिख पाया, न उसकी बूँदें। उन्होंने अपने यहाँ के अनुभव और प्रशिक्षण के आधार पर यहाँ के राज में दस्तावेज़ ज़रूर खोजने की कोशिश की लेकिन वैसे रिकॉर्ड राज में रखे नहीं जाते थे। इसलिए उन्होंने मान लिया कि यहाँ सारी व्यवस्था उन्हीं को करना है, यहाँ तो कुछ है ही नहीं। पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अकुशल कारीगरों में बदल दिये गये। ऐसे बहुत से लोग, जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गये जनों की सूची में थे, अनपढ़, असभ्य, अशिक्षित माने जाने लगे। हमें भूलना नहीं चाहिये कि अकाल, सूखा, पानी की किल्लत ये सब कभी अकेले नहीं आते। अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। हमारी धरती सचमुच मिट्टी की एक बड़ी गुल्लक है। इसमें 100 पैसा डालेंगे तो 100 पैसा निकाल सकेंगे। लेकिन डालना बन्द कर देंगे और केवल निकालते रहेंगे तो प्रकृति चिट्ठी भेजना भी बन्द करेगी और सीधे-सीधे सज्जा देगी। आज यह सज़ा सब जगह कम या ज्यादा मात्रा में मिलने लगी है।
पंजाब और हरियाणा सूखे राज्य नहीं माने जाते, लेकिन आज इनमें भी पानी के बँटवारे को लेकर राजनीतिक कड़वाहट दिख रही है। इसी तरह दक्षिण में कर्नाटक और तमिलनाडु में कोई कम पानी नहीं गिरता, लेकिन इन सभी जगहों पर किसानों ने पानी की अधिक माँग करने वाली फसलें बोयी हैं और अब उनके हिस्से का पानी उनकी प्यास नहीं बुझा पा रहा है।
ऐसे विवादों का जब राजनीतिक हल नहीं निकल पायेगा तो हमें ऊँची अदालत का दरवाजा खटखटाना होगा। अदालत भी इसमें किसी एक के पक्ष में फैसला देगी तो दूसरे पक्ष को सन्तोष नहीं होगा। इसमें मुख्य समस्या प्यास की जरूरत की नहीं बची है और बनावटी प्यास और बनावटी जरूरत लम्बे समय तक पूरी नहीं की जा सकेंगी। कई बार जब अव्यवस्था बढ़ती जाती है, जन-नेतृत्व और सरकारी विभागों का निकम्मापन बढ़ने लगता है तो दुर्भाग्य से एक ही हल दिखता है : राष्ट्रीयकरण के बदले निजीकरण कर दो। यही हल अब पानी के मामले में भी आगे रखा जाने लगा है। पहले हमारा समाज न राष्ट्रीयकरण जानता था और न निजीकरण। वह पानी का “अपनाकरण” करता था। अपनत्व की भावना से उसका उपयोग करता था। जहाँ जितना उपलब्ध था, उतना ख़र्च करता था, इसलिए कम से कम पानी के मामले में, जब तक बहुत सोची-समझी योजना फिर से सामने नहीं आयेगी, हम सब चुल्लू भर पानी में डूबते रहेंगे, लेकिन हमें शर्म नहीं आयेगी।